पिछले एक दशक में यह (२००८) क्रिकेट का सबसे उथलपुथल वाला साल रहा. ऑस्ट्रेलियाई वर्चस्व के बीच हरभजन-साइमंड्स विवाद से शुरू हुआ यह साल ख़त्म होते-होते मेलबर्न में ऑस्ट्रेलियाई टीम के पराक्रम के दौर के अवसान का साक्षी बन रहा है. दक्षिण अफ्रीका के ख़िलाफ़ मेलबर्न टेस्ट के चौथे दिन कंगारू हार की कगार पर खड़े हैं और किसी चमत्कार के कारण अगर वो यह मैच जीत भी जाते हैं तो भी इतना तय है कि आने वाले समय में वह नंबर एक कि कुर्सी से हटाये जाने वाले हैं.
उम्मीद तो थी कि टीम इंडिया शीर्ष पर पहुचेगी लेकिन मौजूदा हालत में यह गद्दी दक्षिण अफ्रीका को मिलने वाली है. यह भले ही हो सकता है कि भारत नंबर २ पर बना रहे और ऑस्ट्रेलिया नए साल में तीसरे या चौथे पायदान पर खिसक जाए. भारत टेस्ट में वर्ष २००९ में नंबर एक नही बनने वाला. इसके पीछे २ कारण हैं. पहला इस साल भारत महज सात टेस्ट मैच खेलेगा. इनमे से दो न्यूजीलैंड के साथ, तीन श्रीलंका के साथ और दो बांग्लादेश के साथ. ये तीन टीम आईसीसी रैंकिंग में इतना पीछे है कि भारत को इन्हे हरा कर भी ज्यादा अंक नही मिलने वाला. अगर दक्षिण अफ्रीका ऑस्ट्रेलिया को हरा कर नंबर एक बनता है तो उस समय उसके और भारत के बीच करीब १४ अंक का फासला होगा. इस फासले को कम करने के लिए हमारे पास अगले साल ज्यादा मौके नही हैं.
वहीँ दक्षिण अफ्रीका भी अगले साल केवल आठ टेस्ट मैच ही खेलेगा लेकिन ये मैच वह ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसी अच्छी रैंकिंग वाली टीमों के खिलाफ खेलेगा. अफ्रीकी टीम अगर जीत जाती है तो वह भारत से अपना अन्तर और बढ़ा लेगी. यदि वह हार जाती है तो उसे हराने वाली टीम (ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड) भारत के बराबर या आगे निकल जायेगी.
कुछ ऐसा ही माजरा सचिन तेंदुलकर के सर्वाधिक टेस्ट शतक के रिकॉर्ड के साथ भी दिख रहा है. वह अभी तक ४१ शतक जमा चुके हैं. दूसरे स्थान पर कायम पोंटिंग ने ३७ शतक ठोके हैं. वहीँ ऑस्ट्रेलिया को २००९ में कम से कम १२ टेस्ट खेलने हैं. अगर वो पाकिस्तान के खिलाफ खेलती है उसके टेस्ट मैचों कि संख्या १५ हो जायेगी.
ऑस्ट्रेलिया को दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और वेस्टइंडीज के ख़िलाफ़ उछालभरी पिचों पर खेलना है. इन प्रतिद्वंदियों और इन पिचों पर पोंटिंग को बल्लेबाजी करना पोंटिंग को खूब रास आता है. इसका उदहारण हमने अभी चल रहे मेलबर्न टेस्ट में भी देखा. आउट ऑफ़ फॉर्म चल रहे पोंटिंग ने अफ्रीकी टीम के ख़िलाफ़ पहली पारी में शतक ठोका तो दूसरी पारी में वह सिर्फ़ एक रन से शतक चूक गए. अफ्रीका के ख़िलाफ़ वह पहले भी एक टेस्ट में दो शतक ज़माने का कारनामा कर चुके है. तो कोई ताज्जुब न हो अगर अगले साल पोंटिंग टेस्ट शतकों के मामले में सचिन से आगे निकल जाए. पोंटिंग टेस्ट रनों के मामले में भी सचिन से करीब १८०० रन पीछे हैं अगले साल यह अन्तर भी कम हो जाएगा.
खैर रिकॉर्ड बनते ही टूटने के लिए हैं लेकिन जिस तरह हमारा बोर्ड टेस्ट क्रिकेट पर कम ध्यान देता है वह चिंता का कारण है. सचिन १९८९ से खेल रहे हैं और उन्होंने तब से अब तक १५५ टेस्ट खेले. जबकि पोंटिंग १९९५-१९९९६ से खेलने के बावजूद १२९ टेस्ट खेल चुके हैं.
हाँ अगले साल भारत को एक दिवसीय मैचों कि कमी नही होने वाली. हम बांग्लादेश से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक सबसे भिडेंगे और करीब ४० मैच खेलेंगे. जहाँ तक २०-२० कि बात है तो इसका दूसरा विश्व कप २००९ के मई में इंग्लैंड में होगा ही. आईपीएल के मजे तो मिलेंगे ही.
Monday, December 29, 2008
Sunday, December 28, 2008
आने वाले दिनों में यह नाम बहुत सुनाई देगा, 'जीन पॉल डुमनी'
दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम को वर्षों से एक ऐसे बल्लेबाज़ की तलाश थी जो संकट के समय अच्छी पारी खेल सके. जो उस दबाव को झेल सके जिसके आगे दक्षिण अफ्रीकी टीम और दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाज़ घुटने टेक देते हैं. एक ऐसा खिलाड़ी जो ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ अच्छा खेल दिखा सके और टीम को न सिर्फ़ जीत के करीब ले जाए बल्कि जीत दिला भी दे. ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ मौजूदा सीरीज के पहले दो मैचों को देखने से लगता है जीन पॉल डुमनी नाम के बाएं हाथ के बल्लेबाज़ ने क्रिकेट जगत में चोकर माने जाने वाली अफ्रीकी टीम की तलाश को पूरा कर दिया है.
पर्थ में अफ्रीका की ऐतिहासिक जीत में डुमनी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने अपने टीम की दूसरी पारी में न सिर्फ़ अर्धशतक जमाया बल्कि डिविलियर्स के साथ नाबाद शतकीय शाझेदारी भी निभाई. मेलबर्न टेस्ट में भी उन्होंने दक्षिण अफ्रीका को पहले फोलोऑन के खतरे से बाहर निकाला फिर आखिरी तीन बल्लेबाजों के साथ मिलकर २७५ रन जोर डाले. उन्होंने ख़ुद १६६ रनों के शानदार पारी खेली. अपने दूसरे ही टेस्ट में ऐसा प्रदर्शन कबीले तारीफ है.
वैसे तो दक्षिण अफ्रीका के बहुत से बल्लेबाज अच्छे हैं लेकिन उनमे दबाव के क्षणों में खासकर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ संकट के पलों में टूट जाने प्रवृति होती होती है. इस पैमाने पर डुमनी बिल्कुल जुदा हैं.
डुमनी की बल्लेबाजी शैली भी ऐसी है जो उन्हें सभी टीमों के ख़िलाफ़ और सभी तरह की परिस्थितियों में अच्छा प्रदर्शन करने में मदद देगी. उनका फुटवर्क बेहतरीन हैं और वो क्रीज का पूरा इस्तेमाल करते हैं. इससे उन्हें स्पिन और तेज दोनों तरह के गेंदबाजों को खेलने में सहूलियत होती है.
डुमनी की सबसे बड़ी खासियत उनका शानदार टेम्परामेंट है. उनको खेलते देख लगता ही नही है कोई बात उन्हें विचलित कर सकती है. वो ऐसे बल्लेबाज लगते हैं जिन्हें अपनी योग्यता पर पूरा विश्वास है और वो कभी भी भ्रम की स्थिति में में नही दिखते.
उम्र भी डुमनी के साथ है. २४ साल के डुमनी लंबे समय तक दक्षिण अफ्रीका की सेवा कर सकते हैं. साथ ही अब जब की पिछली पीढी के ज्यादातर बल्लेबाज सन्यास ले चुके हैं या लेने वाले हैं ऐसे में भारत के गौतम गंभीर की ही तरह आप डुमनी का नाम लंबे समय तक सुनेंगे.
पर्थ में अफ्रीका की ऐतिहासिक जीत में डुमनी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने अपने टीम की दूसरी पारी में न सिर्फ़ अर्धशतक जमाया बल्कि डिविलियर्स के साथ नाबाद शतकीय शाझेदारी भी निभाई. मेलबर्न टेस्ट में भी उन्होंने दक्षिण अफ्रीका को पहले फोलोऑन के खतरे से बाहर निकाला फिर आखिरी तीन बल्लेबाजों के साथ मिलकर २७५ रन जोर डाले. उन्होंने ख़ुद १६६ रनों के शानदार पारी खेली. अपने दूसरे ही टेस्ट में ऐसा प्रदर्शन कबीले तारीफ है.
वैसे तो दक्षिण अफ्रीका के बहुत से बल्लेबाज अच्छे हैं लेकिन उनमे दबाव के क्षणों में खासकर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ संकट के पलों में टूट जाने प्रवृति होती होती है. इस पैमाने पर डुमनी बिल्कुल जुदा हैं.
डुमनी की बल्लेबाजी शैली भी ऐसी है जो उन्हें सभी टीमों के ख़िलाफ़ और सभी तरह की परिस्थितियों में अच्छा प्रदर्शन करने में मदद देगी. उनका फुटवर्क बेहतरीन हैं और वो क्रीज का पूरा इस्तेमाल करते हैं. इससे उन्हें स्पिन और तेज दोनों तरह के गेंदबाजों को खेलने में सहूलियत होती है.
डुमनी की सबसे बड़ी खासियत उनका शानदार टेम्परामेंट है. उनको खेलते देख लगता ही नही है कोई बात उन्हें विचलित कर सकती है. वो ऐसे बल्लेबाज लगते हैं जिन्हें अपनी योग्यता पर पूरा विश्वास है और वो कभी भी भ्रम की स्थिति में में नही दिखते.
उम्र भी डुमनी के साथ है. २४ साल के डुमनी लंबे समय तक दक्षिण अफ्रीका की सेवा कर सकते हैं. साथ ही अब जब की पिछली पीढी के ज्यादातर बल्लेबाज सन्यास ले चुके हैं या लेने वाले हैं ऐसे में भारत के गौतम गंभीर की ही तरह आप डुमनी का नाम लंबे समय तक सुनेंगे.
Thursday, December 25, 2008
टीम इंडिया सबसे अच्छी टीम नही, अच्छी टीमों में से एक है
ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ घरेलू टेस्ट सीरीज में मिली जीत के बाद इस बात की चर्चा काफ़ी तेज हो गई कि भारत टेस्ट क्रिकेट में दुनिया कि सबसे अच्छी टीम है. इंग्लैंड के ख़िलाफ़ मिली जीत ने इस धारणा को और भी बल दिया. लेकिन क्या असल में ऐसा है.
वर्ष २००८ को भारतीय क्रिकेट के सबसे अच्छे सालों में गिना जा रहा है. लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि इस वर्ष हमने पाँच टेस्ट सीरीज़ खेली जिसमे २ में जीते २ में हारे और एक बराबरी पर छूटी. जो २ सीरीज़ हमने जीती वह अपने घर में जीती. ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका में हमें हार ही मिली. दक्षिण अफ्रीका के ख़िलाफ़ घरेरू सीरीज हम जीत नही पाए. यह १-१ से बराबर रही. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हमने टेस्ट क्रिकेट में वैसा ही प्रदर्शन किया जैसा पहले करते आ रहे थे. घर में जीते और बाहर हारे. हाँ अब हम विदेशी जमीनों पर पहले कि तुलना में ज्यादा अच्छा खेल दिखा रहे हैं.
बहुत लोगों का तर्क हो सकता है कि जो २ सीरीज हमने गवाई उसमे महेंद्र सिंह धोनी कप्तान नही थे. लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ के अगर इंग्लैंड के खिलाफ मोहाली कुंबले में कप्तान होते और वो मैच अनिर्णीत होता तो सब यही कहते कि अगर धोनी होता तो वह जीत के लिए खेलता. लेकिन धोनी ने भी मैच बचने को प्राथमिकता दी न कि २-० से जीत को. इसमे गलती धोनी कि नही. इसमे दोष उस भारतीय क्रिकेट परम्परा कि है जो आक्रमण से ज्यादा रक्षा में यकीन करता है. मेरे कहने का यही मतलब है कि श्रीलंका और ऑस्ट्रेलिया में अगर कप्तान कोई दूसरा भी होता तो परिणाम यही आते.
आज ऑस्ट्रेलिया कमजोर हो गई है तो इसलिए कि उसे मक्ग्राथ और वार्ने का विकल्प नही मिला. ये दोनों टेस्ट क्रिकेट में उसके सबसे बड़े मैच विनर थे. भारत का सबसे बड़ा मैच विनर कुंबले सन्यास ले चुका है और राहुल द्रविड़ और सचिन तेंदुलकर भी जल्दी ही जा सकते हैं.
लोग फिर कह सकते हैं कि कुंबले के संन्यास और द्रविड़ के ख़राब फॉर्म के बावजूद हमने मैच जीते. लेकिन सनद रहे कि हमने यह मैच भारत में जीते. भारत कि पिचों पर हरभजन सिंह, अमित मिश्रा भी विकेट लेते हैं और यहाँ धोनी और युवराज भी रन बनाते हैं. लेकिन ये गेंदबाज और ये बल्लेबाज विदेशी पिचों पर टेस्ट क्रिकेट में अब तक कोई कमाल नही दिखा सके हैं.
इस साल भारत में मिली जीतों के अलावा हमें २ और जीत मिली एक पर्थ में और एक श्रीलंका में. इन दोनों जगहों पर मिली सफलता में एक फैक्टर कॉमन रहा वह है वीरेंदर सहवाग. सहवाग ने पर्थ में ज्यादा रन तो नही बनाये लेकिन अच्छी शुरुआत दी. और ३ कीमती विक्केट भी झटके. श्रीलंका में भी उनके दोहरे शतक ने हमारी नैया पार लगाई. निसंदेह सहवाग एइसे खिलारी हैं जो अगर चल गए (अक्सर वो चलते भी हैं) तो वह दुनिया के किसी आक्रमण की दुनिया कि किसी भी पिच पर बखिया उधेर सकते हैं और आपके लिए मैच जीत सकते हैं. लेकिन सिर्फ़ सहवाग के बल पर आप नंबर एक नही हो सकते.
हो सकता है आप भारतीय क्रिकेट टीम के बहुत बारे प्रशंसक हों और आप कहें की हमारे पास गौतम गंभीर, ज़हीर खान, इशांत शर्मा जैसे शानदार खिलाड़ी भी हैं. बिल्कुल ये शानदार और विश्वस्तरीय खिलारी हैं. लेकिन क्या ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और श्रीलंका के पास ऐसे ही शानदार खिलाड़ी नही हैं? बिल्कुल हैं. और यही वजह है कि ऑस्ट्रेलिया कि बादशाहत ख़त्म होने के बाद कोई भी टीम यह दावा नही कर सकती वो नंबर १ है.
अब क्रिकेट में सत्ता बहुकेंद्रित हो गई है. और अलग-अलग कंडिशन्स में अलग-अलग टीमें नंबर एक प्रतीत होगी. इसमे हमारी टीम भी बहुत अच्छी है और वह दुनिया कि ३-४ बेहतरीन टीमों में से एक है.
वर्ष २००८ को भारतीय क्रिकेट के सबसे अच्छे सालों में गिना जा रहा है. लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि इस वर्ष हमने पाँच टेस्ट सीरीज़ खेली जिसमे २ में जीते २ में हारे और एक बराबरी पर छूटी. जो २ सीरीज़ हमने जीती वह अपने घर में जीती. ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका में हमें हार ही मिली. दक्षिण अफ्रीका के ख़िलाफ़ घरेरू सीरीज हम जीत नही पाए. यह १-१ से बराबर रही. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हमने टेस्ट क्रिकेट में वैसा ही प्रदर्शन किया जैसा पहले करते आ रहे थे. घर में जीते और बाहर हारे. हाँ अब हम विदेशी जमीनों पर पहले कि तुलना में ज्यादा अच्छा खेल दिखा रहे हैं.
बहुत लोगों का तर्क हो सकता है कि जो २ सीरीज हमने गवाई उसमे महेंद्र सिंह धोनी कप्तान नही थे. लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ के अगर इंग्लैंड के खिलाफ मोहाली कुंबले में कप्तान होते और वो मैच अनिर्णीत होता तो सब यही कहते कि अगर धोनी होता तो वह जीत के लिए खेलता. लेकिन धोनी ने भी मैच बचने को प्राथमिकता दी न कि २-० से जीत को. इसमे गलती धोनी कि नही. इसमे दोष उस भारतीय क्रिकेट परम्परा कि है जो आक्रमण से ज्यादा रक्षा में यकीन करता है. मेरे कहने का यही मतलब है कि श्रीलंका और ऑस्ट्रेलिया में अगर कप्तान कोई दूसरा भी होता तो परिणाम यही आते.
आज ऑस्ट्रेलिया कमजोर हो गई है तो इसलिए कि उसे मक्ग्राथ और वार्ने का विकल्प नही मिला. ये दोनों टेस्ट क्रिकेट में उसके सबसे बड़े मैच विनर थे. भारत का सबसे बड़ा मैच विनर कुंबले सन्यास ले चुका है और राहुल द्रविड़ और सचिन तेंदुलकर भी जल्दी ही जा सकते हैं.
लोग फिर कह सकते हैं कि कुंबले के संन्यास और द्रविड़ के ख़राब फॉर्म के बावजूद हमने मैच जीते. लेकिन सनद रहे कि हमने यह मैच भारत में जीते. भारत कि पिचों पर हरभजन सिंह, अमित मिश्रा भी विकेट लेते हैं और यहाँ धोनी और युवराज भी रन बनाते हैं. लेकिन ये गेंदबाज और ये बल्लेबाज विदेशी पिचों पर टेस्ट क्रिकेट में अब तक कोई कमाल नही दिखा सके हैं.
इस साल भारत में मिली जीतों के अलावा हमें २ और जीत मिली एक पर्थ में और एक श्रीलंका में. इन दोनों जगहों पर मिली सफलता में एक फैक्टर कॉमन रहा वह है वीरेंदर सहवाग. सहवाग ने पर्थ में ज्यादा रन तो नही बनाये लेकिन अच्छी शुरुआत दी. और ३ कीमती विक्केट भी झटके. श्रीलंका में भी उनके दोहरे शतक ने हमारी नैया पार लगाई. निसंदेह सहवाग एइसे खिलारी हैं जो अगर चल गए (अक्सर वो चलते भी हैं) तो वह दुनिया के किसी आक्रमण की दुनिया कि किसी भी पिच पर बखिया उधेर सकते हैं और आपके लिए मैच जीत सकते हैं. लेकिन सिर्फ़ सहवाग के बल पर आप नंबर एक नही हो सकते.
हो सकता है आप भारतीय क्रिकेट टीम के बहुत बारे प्रशंसक हों और आप कहें की हमारे पास गौतम गंभीर, ज़हीर खान, इशांत शर्मा जैसे शानदार खिलाड़ी भी हैं. बिल्कुल ये शानदार और विश्वस्तरीय खिलारी हैं. लेकिन क्या ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और श्रीलंका के पास ऐसे ही शानदार खिलाड़ी नही हैं? बिल्कुल हैं. और यही वजह है कि ऑस्ट्रेलिया कि बादशाहत ख़त्म होने के बाद कोई भी टीम यह दावा नही कर सकती वो नंबर १ है.
अब क्रिकेट में सत्ता बहुकेंद्रित हो गई है. और अलग-अलग कंडिशन्स में अलग-अलग टीमें नंबर एक प्रतीत होगी. इसमे हमारी टीम भी बहुत अच्छी है और वह दुनिया कि ३-४ बेहतरीन टीमों में से एक है.
Monday, July 7, 2008
चींटी, मोहम्मद गौरी और अब राफेल नडाल
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी कि मोहम्मद गौरी जब पृथ्वीराज चौहान से युद्ध में बुरी तरह पराजित होने के बाद मायूस होकर बैठा था तो उसने देखा कि एक चींटी बार-बार दीवार पर चढ़ने का प्रयास कर रही है। कई बार चींटी ने अपनी चढ़ाई लगभग पूरी कर ली लेकिन वह फतह करने से पहले फिसल कर गिर जाती थी। लेकिन इससे चींटी का हौसला नहीं टूटा और वह आखिरकार दीवार पर चढ़ ही गई।
चींटी के इस हौसले ने गौरी की हिम्मत बढ़ाई और वह भी आखिरकार पृथ्वीराज को हराने में कामयाब रहा। उस चींटी और मोहम्मद गौरी की ही तरह अथक प्रयास के बाद कामयाबी की एक और दास्तान स्पेन के टेनिस खिलाड़ी राफेल नडाल ने भी लिखी है। वर्ष 2006 और 2007 में भी वह टेनिस के सबसे प्रतिष्ठित ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट विंबलडन की पुरुष एकल स्पर्धा के फाइनल में पहुंचे थे लेकिन दोनों ही बार उन्हें ग्रास कोर्ट के बादशाह रोजर फेडरर ने टिकने नहीं दिया। कोई और खिलाड़ी होता तो शायद हौसला हार चुका होता लेकिन नडाल भी उस चींटी और गौरी की तरह जिद पर अड़ गए।
रविवार को उन्होंने विंबलडन इतिहास के सबसे लंबे फाइनल मुकाबले में सरताज फेडरर को बेताज कर ही दिया। इस मैच में भी ऐसे मौके आए जब लगने लगा कि शायद फेडरर फिर बाजी मार जाएं लेकिन नडाल अपने प्रतिद्वंदी की आभा के सामने फीके नहीं पड़े। जिस तरह गौरी ने पृथ्वीराज की कमजोरी पर हमला किया उसी तरह नडाल ने भी फेडरर की कमजोरी यानी बैकहैंड को निशाना बनाया। यह सबको मालूम है कि फेडरर के फॉरहैंड को झेलना आसान नहीं है इसलिए नडाल ने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि स्विट्जरलैंड का यह चमत्कारी खिलाड़ी ज्यादा से ज्यादा बैकहैंड खेलने पर मजबूर हो जाए।
मैच के दौरान बारिश भी हुई। विंबलडन में पिछले पांच साल का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि अगर फेडरर अच्छा न खेल पा रहे हों और बारिश हो जाए यह उनके लिए फायदे का सौदा साबित होता है। चार साल पहले इसी विंबलडन के फाइनल में फेडरर के सामने अमेरिका के एंडी रोडिक थे। रोडिक ने पहला सेट जीत लिया और दूसरे में भी वह आगे थे कि तभी बारिश शुरू हो गई। बारिश के बाद जब मैच शुरू हुआ तो फेडरर बिल्कुल बदले हुए नजर आए। उन्होंने फिर अमेरिकी खिलाड़ी को दूसरा मौका नहीं दिया।
इतिहास को खुद को दोहराने की बड़ी जिद होती है और कल भी बारिश के बाद जब खेल शुरू हुआ तो लगा कि इतिहास एक बार फिर अपनी यह जिद पूरी कर लेगा। बारिश से पहले नडाल दो सेट जीत चुके थे लेकिन बारिश के बाद के खेल में फेडरर ने लगातार दो सेट जीतकर मैच में जबरदस्त वापसी कर ली। खैर अंत में नडाल की खिताब जीतने की जिद इतिहास की जिद पर भारी पड़ी और विंबलडन के छह साल बाद नया चैंपियन मिला।
भले ही फेडरर की यह हार उनके लिए और उनके प्रशंसकों के लिए काफी दुखदायी रही हो लेकिन टेनिस के लिए यह बहुत अच्छा हुआ। पिछले दो साल से फेडरर जिस तरह का प्रदर्शन कर रहे थे उससे कोर्ट पर एक खिलाड़ी की मोनोपोली बनती जा रही थी। हालांकि नडाल फ्रेंच ओपन जरूर जीत रहे थे लेकिन बाकी जगहों पर सिर्फ फेडरर और फेडरर ही थे। खास तौर पर ग्रास कोर्ट पर होने वाले टूर्नामेंटों में तो ऐसा लगता था कि बाकी खिलाड़ी महज औपचारिकता पूरी करने आते हैं।
अब जब घास पर फेडरर की बादशाहत छिन चुकी है तो अगले वर्ष क्ले पर नडाल को भी फेडरर से और कड़ी चुनौती मिलेगी। फेडरर फ्रेंच ओपन (जिसे नडाल का गढ़ माना जाता है) जीतकर हिसाब बराबर करने की कोशिश करेंगे। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि नडाल की यह जीत टेनिस में प्रतिद्वंदिता को और बढ़ाएगी। वैसे यह प्रतिद्वंदिता सिर्फ फेडरर और नडाल के बीच तक ही सीमित नहीं रहने वाली है। सर्बिया के नोवाक जोकोविच पिछले एक-डेढ़ साल से इन दोनों की सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। साथ ही रूस के मरात साफिन भी लय में लौटने लगे हैं। जब साफिन रौ में होते हैं तो उन्हें रोक पाना अच्छे अच्छों के बस के बाहर की बात होती है।
Friday, June 27, 2008
एक देश जहां क्रिकेट खात्मे के कगार पर है
1983 विश्व कप शुरू होने से पहले जिन देशों से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद की जा रही थी उसमें आश्चर्यजनक रूप से एक नाम जिम्बाब्वे का भी था। जिम्बाब्वे ने वाकई उस विश्व कप में अच्छा खेल दिखाया। हालांकि यह टीम सेमीफाइनल में नहीं पहुंच सकी लेकिन उसने लीग मैचों में आस्ट्रेलिया को जरूर मात दे दी। इसका सीधा फायदा भारत को मिला और आगे जो हुआ वह भारतीय क्रिकेट के इतिहास में सबसे स्वर्णिम अध्याय के रूप में दर्ज हो चुका है।
इसी तरह 1999 में विश्व कप में इसी जिम्बाब्वे ने भारत को हराकर उसकी उम्मीदों पर तुषारापात किया था। 2003 विश्व कप में जिम्बाब्वे की टीम सुपर स्किस में पहुंची थी। 1993 में टेस्ट दर्जा पाने वाली जिम्बाब्वे ने क्रिकेट के इस पारंपरिक स्वरूप में भी अच्छी सफलता प्राप्त की। भारत के खिलाफ हुए अपने पहले टेस्ट को ड्रा करा जिम्बाब्वे उन चुनिंदा टीमों में शामिल हो गई जिसने अपना मैच गंवाया न हो। बाद में जिम्बाब्वे ने भारत और पाकिस्तान जैसी टेस्ट टीमों को मात भी दी। यह एक ऐसी उपलब्धि है जो बांग्लादेश इतने मैच खेलकर भी हासिल नहीं कर पाया है। इतना ही नहीं यहां का एक बल्लेबाज एंडी फ्लावर जिसके नाम से आप अच्छी तरह परिचित होंगे एक समय आईसीसी टेस्ट बल्लेबाजों की सूची में शीर्ष पर कायम था। इसके पूर्व कप्तान हीथ स्ट्रीक की गिनती दुनिया के चुनिंदा ऑलराउंडरों में होती थो पॉल स्ट्रांग को अब तक क्रिकेट खेल चुके 10 बेहतरीन लेग स्पिनरों में से एक माना जाता था। इसी जिम्बाब्वे ने डेविड हाटन और अली शाह जैसे उम्दा बल्लेबाज भी दिए।
लेकिन अफसोस कभी क्रिकेट जगत में मजबूत पहचान बनाने का माद्दा रखना रखने वाला जिम्बाब्वे क्रिकेट आज खात्मे की कगार पर है। राष्ट्रपति राबर्ट मुगाबे की नस्लभेदी नीतियों की वजह कई प्रतिभाशाली क्रिकेटर वहां से पलायन कर गए। टीम बेहद कमजोर हुई और आईसीसी ने उसे टेस्ट खेलने से प्रतिबंधित कर दिया। हालांकि जिम्बाब्वे आईसीसी का पूर्णकालिक सदस्य बना रहा और उसे आईसीसी टूर्नामेंटों के जरिए मोटी रकम का मिलना भी जारी रहा। वेस्टइंडीज में हुए पिछले विश्व कप में बेहद घटिया प्रदर्शन के बावजूद जिम्बाब्वे क्रिकेट बोर्ड को करीब 50 करोड़ रुपये का लाभ हुआ।
अब आईसीसी के सदस्य देशों के बीच यह बहस तेज हो गई है कि जिम्बाब्वे की पूर्णकालिक सदस्यता खत्म की जाए। कई सदस्य देशों का आरोप है कि जिम्बाब्वे आईसीसी से मिलने वाली रकम का सही इस्तेमाल नहीं कर रहा है और उसकी टीम इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने लायक नहीं रही। इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तो काफी समय से जिम्बाब्वे की राजनीतिक स्थिति बदतर होने के कारण उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कभी जिम्बाब्वे का कट्टर समर्थक माने जाने वाले दक्षिण अफ्रीका ने भी अपने इस पड़ोसी देश के साथ सभी प्रकार के क्रिकेट संबंध खत्म करने की बात कही है। इंग्लैंड ने भी 2009 में प्रस्तावित अपना जिम्बाब्वे दौरा रद कर दिया है।
हालांकि जिम्बाब्वे को अभी भी दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई से समर्थन मिलना जारी है। बीसीसीआई का कहना है कि क्रिकेट और राजनीति को आपस में नहीं मिलाना चाहिए। उम्मीद है कि अगले आईसीसी बैठक में भारत फिर जिम्बाब्वे का समर्थन करे। जिम्बाब्वे को समर्थन देने के पीछे बीसीसीआई की वोट बैंक पालिसी भी बहुत हद तक जिम्मेवार है। याद कीजिए 1996 का विश्व कप जो भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका में आयोजित हुआ था। इस विश्व की मेजबानी को लेकर इन एशियाई देशों को इंग्लैंड से कड़ी चुनौती मिल रही थी। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और वेस्टइंडीज भी इंग्लैंड का समर्थन कर रहे थे। लेकिन तब जिम्बाब्वे ने दक्षिण अफ्रीका के साथ एशियाई देशों को अपना समर्थन दिया और यह विश्व कप भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका में हो सका। इसी तरह 2011 विश्व कप की मेजबानी के लिए भी जिम्बाब्वे ने भारत का समर्थन किया।
लेकिन सवाल यह उठता है कि वोट बैंक पालिसी के कारण क्या बीसीसीआई को जिम्बाब्वे के बुरे हालातों को नजरअंदाज कर देना चाहिए। रंगभेद तो रंगभेद है चाहे गोरों के खिलाफ हो या कालों के खिलाफ उसका विरोध होना चाहिए। रंगभेद ही नहीं जिम्बाब्वे क्रिकेट में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला है। साथ ही वहां की टीम भारत की किसी रणजी टीम को भी हरा पाने का माद्दा नहीं रखती। अगर बीसीसीआई जिम्बाब्वे का समर्थन करती है तो इससे वहां की क्रिकेट बेहतर होने की बजाए और बदतर होगी। अगर किसी को गलती का अहसास न कराया जाए तो वह सुधरेगा कैसे। अब बीसीसीआई का फर्ज है कि वह जिम्बाब्वे क्रिकेट की बेहतरी में कदम उठाए और अगर आईसीसी में जिम्बाब्वे की पूर्णकालिक सदस्यता खत्म करने के लिए वोटिंग होती है तो इस वोटिंग के पक्ष में मतदान करे।
इससे क्या होगा? जिम्बाब्वे आईसीसी का पूर्णकालिक सदस्य होने की बजाय फिर से एक एसोसिएट देश रह जाएगा। उसे अपनी गलतियों का अहसास होगा और वह फिर से अपनी जड़े मजबूत करने की कोशिश करेगा। इन सब से आखिर में क्रिकेट का ही भला होगा और दर्शक एकतरफा मुकाबला देखने से बच जाएंगे।
इसी तरह 1999 में विश्व कप में इसी जिम्बाब्वे ने भारत को हराकर उसकी उम्मीदों पर तुषारापात किया था। 2003 विश्व कप में जिम्बाब्वे की टीम सुपर स्किस में पहुंची थी। 1993 में टेस्ट दर्जा पाने वाली जिम्बाब्वे ने क्रिकेट के इस पारंपरिक स्वरूप में भी अच्छी सफलता प्राप्त की। भारत के खिलाफ हुए अपने पहले टेस्ट को ड्रा करा जिम्बाब्वे उन चुनिंदा टीमों में शामिल हो गई जिसने अपना मैच गंवाया न हो। बाद में जिम्बाब्वे ने भारत और पाकिस्तान जैसी टेस्ट टीमों को मात भी दी। यह एक ऐसी उपलब्धि है जो बांग्लादेश इतने मैच खेलकर भी हासिल नहीं कर पाया है। इतना ही नहीं यहां का एक बल्लेबाज एंडी फ्लावर जिसके नाम से आप अच्छी तरह परिचित होंगे एक समय आईसीसी टेस्ट बल्लेबाजों की सूची में शीर्ष पर कायम था। इसके पूर्व कप्तान हीथ स्ट्रीक की गिनती दुनिया के चुनिंदा ऑलराउंडरों में होती थो पॉल स्ट्रांग को अब तक क्रिकेट खेल चुके 10 बेहतरीन लेग स्पिनरों में से एक माना जाता था। इसी जिम्बाब्वे ने डेविड हाटन और अली शाह जैसे उम्दा बल्लेबाज भी दिए।
लेकिन अफसोस कभी क्रिकेट जगत में मजबूत पहचान बनाने का माद्दा रखना रखने वाला जिम्बाब्वे क्रिकेट आज खात्मे की कगार पर है। राष्ट्रपति राबर्ट मुगाबे की नस्लभेदी नीतियों की वजह कई प्रतिभाशाली क्रिकेटर वहां से पलायन कर गए। टीम बेहद कमजोर हुई और आईसीसी ने उसे टेस्ट खेलने से प्रतिबंधित कर दिया। हालांकि जिम्बाब्वे आईसीसी का पूर्णकालिक सदस्य बना रहा और उसे आईसीसी टूर्नामेंटों के जरिए मोटी रकम का मिलना भी जारी रहा। वेस्टइंडीज में हुए पिछले विश्व कप में बेहद घटिया प्रदर्शन के बावजूद जिम्बाब्वे क्रिकेट बोर्ड को करीब 50 करोड़ रुपये का लाभ हुआ।
अब आईसीसी के सदस्य देशों के बीच यह बहस तेज हो गई है कि जिम्बाब्वे की पूर्णकालिक सदस्यता खत्म की जाए। कई सदस्य देशों का आरोप है कि जिम्बाब्वे आईसीसी से मिलने वाली रकम का सही इस्तेमाल नहीं कर रहा है और उसकी टीम इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने लायक नहीं रही। इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तो काफी समय से जिम्बाब्वे की राजनीतिक स्थिति बदतर होने के कारण उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कभी जिम्बाब्वे का कट्टर समर्थक माने जाने वाले दक्षिण अफ्रीका ने भी अपने इस पड़ोसी देश के साथ सभी प्रकार के क्रिकेट संबंध खत्म करने की बात कही है। इंग्लैंड ने भी 2009 में प्रस्तावित अपना जिम्बाब्वे दौरा रद कर दिया है।
हालांकि जिम्बाब्वे को अभी भी दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई से समर्थन मिलना जारी है। बीसीसीआई का कहना है कि क्रिकेट और राजनीति को आपस में नहीं मिलाना चाहिए। उम्मीद है कि अगले आईसीसी बैठक में भारत फिर जिम्बाब्वे का समर्थन करे। जिम्बाब्वे को समर्थन देने के पीछे बीसीसीआई की वोट बैंक पालिसी भी बहुत हद तक जिम्मेवार है। याद कीजिए 1996 का विश्व कप जो भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका में आयोजित हुआ था। इस विश्व की मेजबानी को लेकर इन एशियाई देशों को इंग्लैंड से कड़ी चुनौती मिल रही थी। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और वेस्टइंडीज भी इंग्लैंड का समर्थन कर रहे थे। लेकिन तब जिम्बाब्वे ने दक्षिण अफ्रीका के साथ एशियाई देशों को अपना समर्थन दिया और यह विश्व कप भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका में हो सका। इसी तरह 2011 विश्व कप की मेजबानी के लिए भी जिम्बाब्वे ने भारत का समर्थन किया।
लेकिन सवाल यह उठता है कि वोट बैंक पालिसी के कारण क्या बीसीसीआई को जिम्बाब्वे के बुरे हालातों को नजरअंदाज कर देना चाहिए। रंगभेद तो रंगभेद है चाहे गोरों के खिलाफ हो या कालों के खिलाफ उसका विरोध होना चाहिए। रंगभेद ही नहीं जिम्बाब्वे क्रिकेट में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला है। साथ ही वहां की टीम भारत की किसी रणजी टीम को भी हरा पाने का माद्दा नहीं रखती। अगर बीसीसीआई जिम्बाब्वे का समर्थन करती है तो इससे वहां की क्रिकेट बेहतर होने की बजाए और बदतर होगी। अगर किसी को गलती का अहसास न कराया जाए तो वह सुधरेगा कैसे। अब बीसीसीआई का फर्ज है कि वह जिम्बाब्वे क्रिकेट की बेहतरी में कदम उठाए और अगर आईसीसी में जिम्बाब्वे की पूर्णकालिक सदस्यता खत्म करने के लिए वोटिंग होती है तो इस वोटिंग के पक्ष में मतदान करे।
इससे क्या होगा? जिम्बाब्वे आईसीसी का पूर्णकालिक सदस्य होने की बजाय फिर से एक एसोसिएट देश रह जाएगा। उसे अपनी गलतियों का अहसास होगा और वह फिर से अपनी जड़े मजबूत करने की कोशिश करेगा। इन सब से आखिर में क्रिकेट का ही भला होगा और दर्शक एकतरफा मुकाबला देखने से बच जाएंगे।
Thursday, June 26, 2008
कहां गई कोलिंगवुड की खेल भावना
बुधवार, 25 जून को इंग्लैंड और न्यूजीलैंड के बीच बेहद रोमांचक एक दिवसीय मैच खेला गया। आखिरी ओवर की आखिरी गेंद पर समाप्त हुए मैच में न्यूजीलैंड ने एक विकेट से जीत दर्ज की लेकिन न्यूजीलैंड की पारी के दौरान 44वें ओवर में एक घटना ऐसी घटी जिसने इंग्लैंड के खिलाडि़यों की खेल भावना पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया।
उस वक्त न्यूजीलैंड को 39 गेंदों पर 36 रनों की दरकार थी और उसके तीन विकेट शेष थे। स्ट्राइक पर थे काइल मिल्स और नॉन स्ट्राइक पर खड़े थे ग्रांट इलियट। मिल्स ने एक रन लेने के लिए इलियट को आवाज लगई। इलियट आगे बढ़े लेकिन उनकी राह में गेंदबाज साइड बाटम आ गए। दोनों के बीच रग्बी स्टाइल में टक्कर हुई और चोट खाए इलियट बीच पिच पर गिर गए। फील्डर इयान बेल ने गेंद थ्रो की और यह जानने के बावजूद कि इलयिट उनके गेंदबाज साइडबाटम से टकराने की वजह से क्रीज पर गिरे हैं केविन पीटरसन ने उन्हें रन आउट कर दिया। अंपायर मार्क बेंसन ने स्थिति की नजाकत को भांपते हुए इंग्लिश कप्तान पॉल कोलिंगवुड को अपील वापस ले लेने की सलाह दी लेकिन जीत दर्ज करने के नशे में चूर कोलिंगवुड ने अंपयार की यह सलाह नहीं मानी। हालांकि मिल्स ने कोलिंगवुड का सपना पूरा नहीं होने दिया और अपनी टीम को एक विकेट से जीत दिला दी।
इस घटना ने यह तो साबित कर ही दिया है अक्सर खेल भावना पर लंबी-लंबी स्पीच देने वाले इंग्लैंड के खिलाड़ी समय आने पर खुद इससे कन्नी काट जाते हैं। वह अक्सर एशियाई खिलाडि़यों पर इल्जाम लगाते हैं कि वे खेल भावना का ख्याल नहीं रखते। इंग्लैंड वाले अपने खेलने के तरीके और अपने दर्शकों के सभ्य व्यवहार पर हमेशा गर्व करते हैं। लेकिन यहां तो न ही उनके कप्तान ने सभ्यता दिखाई और न ही उनके दर्शकों ने। लाचार हालात में रन आउट होकर इलियट पवेलियन लौट रहे थे और इंग्लिश दर्शक खुशी में झूम रहे थे।
ये वही कोलिंगवुड हैं जिन्होंने पिछले वर्ष हुई भारत-इंग्लैंड सीरीज के दौरान भारतीय खिलाडि़यों पर खेल भावना के साथ न खेलने का आरोप लगाया था। सात वनडे मैचों की उस सीरीज के पांचवें मैच में कोलिंगवुड खुद रन आउट हुए थे। भारतीयों ने अपील की लेकिन अंपयार थर्ड अंपायर से मदद लेने के लिए तैयार नहीं दिख रहे थे। तभी जाइंट स्क्रीन पर रिप्ले उभरी जिसमें साफ था कि कोलिंगवुड रन आउट हैं। तब भारतीयों द्वारा एक बार फिर अपील करने के बाद अंपायर ने कोलिंगवुड को आउट दिया। उस घटना ने कोलिंगवुड खासे नाराज थे। उनका कहना था कि भारतीयों ने अंपायर पर दबाव बनाया और फील्ड अंपायर को रिप्ले देखकर आउट नहीं देना चाहिए था।
Sunday, June 22, 2008
एक शख्स जो चूहे को शेर बना देता है
तमाम कयासों को झुठलाते हुए रूस यूरो कप फुटबाल के सेमीफाइनल में पहुंच चुका है। क्वार्टर फाइनल में उसने हालैंड जैसी कद्दावर टीम को मात दी जिसे तमाम फुटबाल विश्लेषक इस खिताब के जीतने का सबसे बड़ा दावेदार मान रहे थे।
बेशक रूसी खिलाड़ी शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन अगर इस टीम की कामयाबी के पीछे की सबसे बड़ी वजह की बात की जाए तो वह है कोच गस हिडिंक। वैसे तो इस टूर्नामेंट में खेल रही सभी टीमों के पास एक से एक कोच हैं लेकिन उनमें से कोई भी गस हिडिंक के मुकाबले का नहीं है।
हालैंड के रहने वाले हिडिंग चाहें तो किसी भी बड़ी टीम के साथ जुड़ सकते हैं लेकिन वह ऐसा नहीं करते। उन्हें चुनौती पसंद है और वह हमेशा किसी कमजोर मानी जाने वाली टीम से जुड़ते हैं और उसके खिलाडि़यों में ऐसा आत्मविश्वास भरते हैं कि वे दुनिया की नामचीन टीमों को भी धूल चटाने का माद्दा रखने वाले बन जाते हैं।
याद कीजिए 2002 का विश्व कप जब दक्षिण कोरिया की बेहद कमजोर मानी जाने वाली टीम ने सेमीफाइनल तक का सफर तय किया था। सेमीफाइनल में कोरिया को जर्मनी से हार का मुंह देखना पड़ा था लेकिन इस जीत के लिए जर्मनी को नाकों चने चबाने पड़ थे। उस वक्त कोरियाई टीम के कोच थे गस हिडिंक। टूर्नामेंट शुरू होने से पहले कोरियाई टीम तब तक खेले सभी विश्व कप मैचों में से एक में भी जीत दर्ज नहीं कर सकी थी। सभी विश्लेषक मान रहे थे कि कोरिया लीग राउंड से ही बाहर हो जाएगी लेकिन हिडिंक की सेना से ऐसा कमाल किया कि फुटबाल जगत हतप्रभ हो गया था। हिडिंक के योगदान से कोरियाई इतने प्रभावित हुए कि उन्हें कोरियाई नागरिकता देने की मांग उठने लगी थी।
इसके बाद हिडिंक ने आस्ट्रेलिया का दामन थामा। उस आस्ट्रेलिया का जिसने पिछले 32 साल से विश्व कप के लिए क्वालीफाई नहीं किया था। हिडिंक ने न सिर्फ आस्ट्रेलिया को जर्मनी में हुए 2006 विश्व कप के लिए क्वालीफाई करवाया बल्कि उसे क्वार्टर फाइनल तक भी पहुंचाया। क्वार्टर फाइनल में आस्ट्रेलिया उस विश्व चैंपियन टीम इटली से पराजित हुई। मैच के दरम्यान आस्ट्रेलिया का ही पलड़ा भारी लग रहा था लेकिन एक बेहद विवादास्पद पेनाल्टी की वजह से इटली फाइनल में पहुंचने में सफल रहा जहां उसने एक और विवादास्पद मैच में फ्रांस को हराकर खिताब पर कब्जा किया।
कुछ इसी तरह का कमाल हिडिंक ने रूस की टीम के साथ भी किया है। हालैंड की टीम ने जिस तरह तीन लीग मैचों में 9 गोल किए थे और सिर्फ एक खाए थे उससे तो यही लग रहा था उसे असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर होगा। लेकिन हिडिंक की अगुवाई में रूस ने यह कमाल कर दिया है। सेमीफाइनल में उसका मुकाबला इटली और स्पेन की बीच होने वाले मैच के विजेता से होगा। रूस यूरो कप जीते या न जीते लेकिन उसे सेमीफाइनल में पहुंचा कर हिडिंक ने चूहे को शेर में बदलने की अपनी ताकत का एक बार फिर बेहतरीन नमूना पेश किया है।
Friday, June 20, 2008
हिंदी फिल्मों की बॉक्सिंग
बुधवार देर रात को मनोरंजन चैनल जी नैक्सट पर सोहेल खान अभिनीत और निर्देशित फिल्म आर्यन आ रही थी। वैसे सोहेल खान की फिल्में मुझे ज्यादा नहीं भाती लेकिन यह फिल्म बॉक्सिंग पर बनी थी इसलिए ठहर गया। पूरी फिल्म देखी। फिल्म ठीक-ठाक भी थी लेकिन इसमें बॉक्सिंग को जिस तरह दिखाया गया वह मुझे कुछ खास नहीं लगा।
फिल्म का नायक आर्यन (सोहेल खान) एक बॉक्सर है और उसका लक्ष्य है नेशनल बॉक्सिंग खिताब जीतना। ध्यान दें नेशनल बॉक्सिंग खिताब। जहां तक मेरी जानकारी है नेशनल बॉक्सिंग एक अमैच्योर प्रतियोगिता है लेकिन इस फिल्म में इसे प्रोफेशनल बॉक्सिंग की तरह दिखाया गया है। फिल्म में दिखाया गया है कि नायक का मुख्य प्रतिद्वंदी रंजीत (इंदर कुमार) तीन बार का नेशनल चैंपियन है और वह पूरे भारत में लोकप्रिय है। मीडिया उसके पीछे-पीछे दौड़ती है और उसके प्रशंसक उसकी एक झलक पाने को बेताब रहते हैं। यह भी दिखाया गया है कि क्लाइमैक्स में आर्यन और रंजीत के बीच होने वाले मुकाबले का टेलीविजन पर सीधा प्रसारण हो रहा है।
मुझे ताज्जुब हो रहा है कि भारत में अमैच्योर बॉक्सिंग कब से इतनी लोकप्रिय हो गई और कब से मीडिया एक नेशनल बॉक्सिंग चैंपियन के पीछे भागने लगी। यहां लोग मोहम्मद अली, माइकल टायसन और इवांडर होलीफील्ड जैसे प्रोफेसनल हैवीवेट मुक्केबाजों का नाम भले ही जानते हों लेकिन वे नेशनल चैंपियन का नाम याद नहीं रखते।
अगर आपने कभी अमैच्यौर बॉक्सिंग देखी हो (नेशनल या इंटनेशनल) तो आपको इस फिल्म में दिखाए गए सभी सिक्वैंस बड़े ही बेतरतीब लगेंगे। फिल्म में यह भी नहीं बताया गया कि आर्यन किस भार वर्ग (लाइटवेट, बैंटमवेट या हैवीवेट) का बॉक्सर है। फिल्म में फाइनल मुकाबला दस राउंड का दिखाया गया है जबकि नेशनल बॉक्सिंग के मुकाबले दो-दो मिनट के तीन राउंड के होते हैं और हर राउंड के बीच एक मिनट का अंतराल होता है। हालांकि ओलंपिक और कॉमनवेल्थ जैसी प्रतियोगिताओं में यह चार राउंड का होता है। फिल्म में आर्यन की पूरी तैयारी एक गाने में खत्म हो जाती है जबकि फाइनल मुकाबला करीब 25-30 मिनट तक चलता है।
हाल ही में बॉक्सिंग पर एक और फिल्म बनी है जिसका नाम है अपने। इसमें आर्यन के उलट प्रोफेसनल बॉक्सिंग को दिखाया गया है। लेकिन यह फिल्म भी बॉक्सिंग पर बनी उम्दा फिल्मों की तुलना में कहीं नहीं ठहरती। इसमें बचपन से एक हाथ से अपाहिज रहने वाले बाबी देओल हाथ ठीक होते ही हैवीवेट मुकाबले में उतर जाते हैं तो कई साल से बॉक्सिंग से दूर रहे सन्नी देओल अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए रिंग में उतरते हैं और वर्ल्ड चैंपियन भी बन जाते हैं। फिल्म के निर्देशक अनिल शर्मा ने हैवीवेट बॉक्सिंग को इस तरह ट्रीट किया कि यह दो बच्चों के बीच गली में होने वाली लड़ाई हो।
पता नहीं भारत में खेल पर सिनेमा बनाने वालों के दिमाग में यह बात क्यों होती है कि नायक को अंत में जीतना ही जीतना है। ऐसा भी नहीं है कि हमारे यहां खेलों में जीत दर्ज करने की जबरदस्त परंपरा रही हो और इसलिए यहां के दर्शक जीत से कम कुछ बर्दास्त नहीं करेंगे। एक आध खेलों को छोड़ दे तो हम इस क्षेत्र में हमेशा ही फिसड्डी ही रहे हैं। इसलिए बेहतर हो कि फिल्म निर्माता अगर खेल पर फिल्म बनाए तो खिलाड़ी (नायक) के बेहतरीन प्रयास को उकेरने की कोशिश करे न कि हर हाल में उसे जीताने की।
वहीं बॉक्सिंग पर बनी कुछ ऑल टाइम ग्रेट फिल्मों की कहानी पर नजर दौड़ाएं तो शायद ही कोई फिल्म अपने नायक या नायिका की रिंग में जीत के साथ समाप्त होती है। 1980 में रोबर्ट डी नीरो अभिनीत रोजिंग बुल इस का शानदार नमूना है। इस फिल्म का नायक जेक लामोटा (नीरो) एक अच्छा बॉक्सर रहता है जो अपने भार वर्ग का चैंपियन है। लेकिन फिल्म की कहानी उसके चैंपियन बनने को लेकर नहीं बल्कि उसके चैंपियन की गद्दी से फिसलकर ओवरवेट हो जाने, एक कामेडियन बनने, किसी कारणवश जेल जाने और जेल से छूटकर फिर बॉक्सर बनने के प्रयास की दास्तान बयान करती है। इस फिल्म की गिनती अमेरिका की सर्वकालिक महान फिल्मों में होती है।
इसी तरह 1976 में बनी फिल्म राकी (जिसने सिलवेस्टर स्टोलेन को पहचान दिलाई) भी बॉक्सिंग पर बनी शानदार फिल्म है। सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर जीतने वाली इस फिल्म के अंत में नायक को बॉक्सिंग फाइट जीतते हुए नहीं बल्कि हारते हुए दिखाया गया है। फिर भी लोग राकी के दीवाने हुए क्योंकि वह भले ही फाइट हार गया लेकिन उसने विश्व चैंपियन को पूरे 15 राउंड तक मुकाबला करने पर मजबूर किया।
बॉक्सिंग पर सबसे हाल-फिलहाल बनी उम्दा फिल्म है मिलियन डॉलर बेबी। इस फिल्म का अंत तो खासा दुखद है। यह फिल्म एक ऐसी महिला बॉक्सर के ऊपर बनी है जो 31 साल की उम्र में विश्व चैंपियन बनने का ख्वाब देखती है। लेकिन अंत में वह चैंपियन नहीं बनती बल्कि गले के आसपास लगी चोट से लकवाग्रस्त हो जाती है। उसके कोच को अपनी शिष्या का दर्द नहीं देखा जाता है और वह उसे एड्रीनेलीन का ओवरडोज देकर कष्टमय जीवन से मुक्ति दिला देता है। इस फिल्म को चार ऑस्कर मिले और 30 मिलियन डालर में बनने वाली इस असाधारण फिल्म ने 220 मिलियन डॉलर कमाए।
कहा जाता है कि हमारे यहां के फिल्म निर्माता हालीवुड से प्रेरणा लेते हैं तो भाई स्पोर्ट्स पर फिल्म बनाते समय यह प्रेरणा कहां चली है। खेल पर फिल्में बनाइए लेकिन ऐसी फिल्में बनाइए जिससे खेल का भला हो, दर्शक खेल के असल स्वरूप से रूबरू हो आप अच्छी कमाई भी करें। आर्यन और अपने दोनों ही फिल्में इन पैमानों पर नाकाम रही और उम्मीद के मुताबिक बुरी तरह पिटी भी।
फिल्म का नायक आर्यन (सोहेल खान) एक बॉक्सर है और उसका लक्ष्य है नेशनल बॉक्सिंग खिताब जीतना। ध्यान दें नेशनल बॉक्सिंग खिताब। जहां तक मेरी जानकारी है नेशनल बॉक्सिंग एक अमैच्योर प्रतियोगिता है लेकिन इस फिल्म में इसे प्रोफेशनल बॉक्सिंग की तरह दिखाया गया है। फिल्म में दिखाया गया है कि नायक का मुख्य प्रतिद्वंदी रंजीत (इंदर कुमार) तीन बार का नेशनल चैंपियन है और वह पूरे भारत में लोकप्रिय है। मीडिया उसके पीछे-पीछे दौड़ती है और उसके प्रशंसक उसकी एक झलक पाने को बेताब रहते हैं। यह भी दिखाया गया है कि क्लाइमैक्स में आर्यन और रंजीत के बीच होने वाले मुकाबले का टेलीविजन पर सीधा प्रसारण हो रहा है।
मुझे ताज्जुब हो रहा है कि भारत में अमैच्योर बॉक्सिंग कब से इतनी लोकप्रिय हो गई और कब से मीडिया एक नेशनल बॉक्सिंग चैंपियन के पीछे भागने लगी। यहां लोग मोहम्मद अली, माइकल टायसन और इवांडर होलीफील्ड जैसे प्रोफेसनल हैवीवेट मुक्केबाजों का नाम भले ही जानते हों लेकिन वे नेशनल चैंपियन का नाम याद नहीं रखते।
अगर आपने कभी अमैच्यौर बॉक्सिंग देखी हो (नेशनल या इंटनेशनल) तो आपको इस फिल्म में दिखाए गए सभी सिक्वैंस बड़े ही बेतरतीब लगेंगे। फिल्म में यह भी नहीं बताया गया कि आर्यन किस भार वर्ग (लाइटवेट, बैंटमवेट या हैवीवेट) का बॉक्सर है। फिल्म में फाइनल मुकाबला दस राउंड का दिखाया गया है जबकि नेशनल बॉक्सिंग के मुकाबले दो-दो मिनट के तीन राउंड के होते हैं और हर राउंड के बीच एक मिनट का अंतराल होता है। हालांकि ओलंपिक और कॉमनवेल्थ जैसी प्रतियोगिताओं में यह चार राउंड का होता है। फिल्म में आर्यन की पूरी तैयारी एक गाने में खत्म हो जाती है जबकि फाइनल मुकाबला करीब 25-30 मिनट तक चलता है।
हाल ही में बॉक्सिंग पर एक और फिल्म बनी है जिसका नाम है अपने। इसमें आर्यन के उलट प्रोफेसनल बॉक्सिंग को दिखाया गया है। लेकिन यह फिल्म भी बॉक्सिंग पर बनी उम्दा फिल्मों की तुलना में कहीं नहीं ठहरती। इसमें बचपन से एक हाथ से अपाहिज रहने वाले बाबी देओल हाथ ठीक होते ही हैवीवेट मुकाबले में उतर जाते हैं तो कई साल से बॉक्सिंग से दूर रहे सन्नी देओल अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए रिंग में उतरते हैं और वर्ल्ड चैंपियन भी बन जाते हैं। फिल्म के निर्देशक अनिल शर्मा ने हैवीवेट बॉक्सिंग को इस तरह ट्रीट किया कि यह दो बच्चों के बीच गली में होने वाली लड़ाई हो।
पता नहीं भारत में खेल पर सिनेमा बनाने वालों के दिमाग में यह बात क्यों होती है कि नायक को अंत में जीतना ही जीतना है। ऐसा भी नहीं है कि हमारे यहां खेलों में जीत दर्ज करने की जबरदस्त परंपरा रही हो और इसलिए यहां के दर्शक जीत से कम कुछ बर्दास्त नहीं करेंगे। एक आध खेलों को छोड़ दे तो हम इस क्षेत्र में हमेशा ही फिसड्डी ही रहे हैं। इसलिए बेहतर हो कि फिल्म निर्माता अगर खेल पर फिल्म बनाए तो खिलाड़ी (नायक) के बेहतरीन प्रयास को उकेरने की कोशिश करे न कि हर हाल में उसे जीताने की।
वहीं बॉक्सिंग पर बनी कुछ ऑल टाइम ग्रेट फिल्मों की कहानी पर नजर दौड़ाएं तो शायद ही कोई फिल्म अपने नायक या नायिका की रिंग में जीत के साथ समाप्त होती है। 1980 में रोबर्ट डी नीरो अभिनीत रोजिंग बुल इस का शानदार नमूना है। इस फिल्म का नायक जेक लामोटा (नीरो) एक अच्छा बॉक्सर रहता है जो अपने भार वर्ग का चैंपियन है। लेकिन फिल्म की कहानी उसके चैंपियन बनने को लेकर नहीं बल्कि उसके चैंपियन की गद्दी से फिसलकर ओवरवेट हो जाने, एक कामेडियन बनने, किसी कारणवश जेल जाने और जेल से छूटकर फिर बॉक्सर बनने के प्रयास की दास्तान बयान करती है। इस फिल्म की गिनती अमेरिका की सर्वकालिक महान फिल्मों में होती है।
इसी तरह 1976 में बनी फिल्म राकी (जिसने सिलवेस्टर स्टोलेन को पहचान दिलाई) भी बॉक्सिंग पर बनी शानदार फिल्म है। सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर जीतने वाली इस फिल्म के अंत में नायक को बॉक्सिंग फाइट जीतते हुए नहीं बल्कि हारते हुए दिखाया गया है। फिर भी लोग राकी के दीवाने हुए क्योंकि वह भले ही फाइट हार गया लेकिन उसने विश्व चैंपियन को पूरे 15 राउंड तक मुकाबला करने पर मजबूर किया।
बॉक्सिंग पर सबसे हाल-फिलहाल बनी उम्दा फिल्म है मिलियन डॉलर बेबी। इस फिल्म का अंत तो खासा दुखद है। यह फिल्म एक ऐसी महिला बॉक्सर के ऊपर बनी है जो 31 साल की उम्र में विश्व चैंपियन बनने का ख्वाब देखती है। लेकिन अंत में वह चैंपियन नहीं बनती बल्कि गले के आसपास लगी चोट से लकवाग्रस्त हो जाती है। उसके कोच को अपनी शिष्या का दर्द नहीं देखा जाता है और वह उसे एड्रीनेलीन का ओवरडोज देकर कष्टमय जीवन से मुक्ति दिला देता है। इस फिल्म को चार ऑस्कर मिले और 30 मिलियन डालर में बनने वाली इस असाधारण फिल्म ने 220 मिलियन डॉलर कमाए।
कहा जाता है कि हमारे यहां के फिल्म निर्माता हालीवुड से प्रेरणा लेते हैं तो भाई स्पोर्ट्स पर फिल्म बनाते समय यह प्रेरणा कहां चली है। खेल पर फिल्में बनाइए लेकिन ऐसी फिल्में बनाइए जिससे खेल का भला हो, दर्शक खेल के असल स्वरूप से रूबरू हो आप अच्छी कमाई भी करें। आर्यन और अपने दोनों ही फिल्में इन पैमानों पर नाकाम रही और उम्मीद के मुताबिक बुरी तरह पिटी भी।
Thursday, June 19, 2008
राजनीति की तरह फुटबाल में भी एंटी इनकंबेंसी
आजकल लगता है फुटबाल को भी राजनीति की एंटी इनकंबेंसी वाली बीमारी लग गई है। जिस प्रकार राजनीति में मौजूदा विधायक, मौजूदा सांसद और मौजूदा सरकार के चुनाव जीतने की संभावना काफी कम रहती है उसी तरह फुटबाल में भी डिफेंडिंग चैंपियनों के जीत की उम्मीद भी कम हो रही है।
इस समय स्विट्जरलैंड में चल रहे यूरो कप का ही उदाहरण ले लीजिए। डिफेंडिंग चैंपियन ग्रीस बिना एक भी गोल किए पहले दौर से बाहर हो गया। उसके खेल को देख कर लगा ही नहीं कि चार साल पहले इसी टीम ने पुर्तगाल की धरती पर तमाम यूरोपीय टीमों को धूल चटाई थी। इसी तरह सैफ फुटबाल में भी डिफेंडिंग चैंपियन भारत फाइनल में मालदीव से हारकर बाहर हो गया।
इसी तरह पिछले विश्व कप में ब्राजील की टीम क्वार्टर फाइनल तक का ही सफर तय कर पाई जबकि उसके पिछले विश्व कप में उस समय का डिफेंडिंग चैंपियन फ्रांस पहले ही दौर में बाहर हो गया था। उसे सेनेगल जैसी नौसिखिया टीम ने मात दी थी और फ्रांसीसी टीम तीन लीग मैचों में एक भी गोल नहीं कर पाई थी।
लेकिन जिस तरह राजनीति में कुछ विधायक, सांसद या सरकार लगातार दो बार जीत दर्ज करने में सफल हो जाते हैं उसी तरह फुटबाल में भी एक दो टीम ऐसी है जो लगातार दो बार खिताब जीत जाती है। लेकिन ये टीमें या तो घरेलू फुटबाल की टीमें हैं या क्लब स्तर की। मैनचेस्टर यूनाईटेड और रियाल मैड्रिड ने लगातार दूसरे साल क्रमश: इंग्लिश प्रीमियर लीग और स्पेनिश लीग ला लीगा जीता है। इसी तरह भारत में पंजाब ने लगातार दूसरी बार संतोष ट्राफी पर कब्जा किया।
हालांकि फुटबाल की एंटी इनकंबेंसी राजनीति की एंटी इनकंबेंसी की तुलना में थोड़ी अलग है। राजनीति में चुनाव जितने निचले स्तर हो का मौजूदा विजय उम्मीदवारों के हारने का खतरा उतना ज्यादा होता है। यानी अगर कोई लहर न चल रही हो सांसदों की तुलना में विधायकों के हार का खतरा ज्यादा और विधायकों की तुलना में नगरपालिका के सदस्यों की हार का खतरा उससे भी ज्यादा होता है। वहीं फुटबाल में स्थिति ठीक विपरीत है। टूर्नामेंट जितना बड़ा हो मौजूदा चैंपियन के हार का खतरा उतना ज्यादा रहता है। विश्व कप चैंपियन के ऊपर सबसे ज्यादा खतरा, फिर यूरो कप चैंपियन, कोपा अमेरिका कप चैंपियन, चैंपियंस लीग चैंपियन और विभिन्न देशों घरेलू लीग के चैंपियन का नंबर आता है।
Wednesday, June 18, 2008
कुंद पड़ रही है कंगारुओं की धार
रिकी पोंटिंग की अगुवाई वाली आस्ट्रेलियाई टीम ने भले ही तीन टेस्ट मैचों की सीरीज में वेस्टइंडीज को 2-0 से मात दी हो लेकिन जिस तरह कैरिबियाई खिलाडि़यों ने पाताल नगरी की टीम का सामना किया उससे तो एक बात साफ हो जाती है कि कंगारुओं के आक्रमण में वह धार नहीं है जो एक वर्ष पहले तक थी।
तीसरे टेस्ट में आस्ट्रेलिया ने वेस्टइंडीज के सामने 476 रन का बेहद विशाल लक्ष्य रखा था और उम्मीद की जा रही थी कि वेस्टइंडीज की टीम इतनी बड़ी चुनौती के आगे आसानी से घुटने टेक देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, चौथे और पांचवें दिन की पिच पर भी कैरिबियाई बल्लेबाजों ने जमकर संघर्ष किया और यह मैच सिर्फ 87 रनों से हारे। ऐसा नहीं है कि वेस्टइंडीज का बल्लेबाजी क्रम टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से बहुत शानदार है लेकिन आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी में विविधता की कमी ने वेस्टइंडीज को संघर्ष को लंबा खींचने में मदद पहुंचाई।
यह पिछले कुछ महीनों में कोई पहला अवसर नहीं जब किसी टीम ने टेस्ट मैच की चौथी पारी में आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों के पसीने छुड़ाए हों। पिछले साल के अंत में श्रीलंका ने भी होबार्ट टेस्ट मैच में कुछ ऐसा ही किया था। तब 490 से अधिक रन के लक्ष्य का पीछा करने उतरी श्रीलंकाई टीम सिर्फ 91 रनों से मैच हारी थी। इस हार में भी अंपायर रूडी कोएर्तजन का बड़ा हाथ था। उन्होंने 192 रन के निजी स्कोर पर खेल रहे कुमार संगकारा को बेहद विवादास्पद तरीके से आउट दे दिया था। इस सीरीज के बाद हुई भारत-आस्ट्रेलिया सीरीज में भी भारत ने आस्ट्रेलिया को उसके घर में कड़ी टक्कर दी। अगर सिडनी टेस्ट में पक्षपाती निर्णय नहीं आते तो यह सीरीज या तो ड्रा रहती या इसे भारत जीतता।
आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी इधर कमजोर क्यों नजर आ रही है इसे जानने के लिए किसी राकेट साइंस की जरूरत नहीं है। कोई भी टीम शेन वार्न, ग्लैन मैक्ग्रा, स्टुअर्ट मैकगिल जैसे गेंदबाजों के रिटायर हो जाने से कमजोर होगी। लेकिन आस्ट्रेलिया के जिस मजबूत बेंच स्ट्रेंथ की बात की जा रही थी वह इन तीनों गेंदबाजों के जाने के बाद कसौटी पर खड़ा नहीं उतर रहा है।
ऐसा लग रहा है कि आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी सिर्फ ब्रेट ली के सहारे चल रही है। स्टुअर्ट क्लार्क रिसपोंसिव पिचों पर ही चल पाते हैं जबकि मिशेल जॉनसन आस्ट्रेलियाई परंपरा के हिसाब से कोई धारदार गेंदबाज नहीं लगते। स्पिन विभाग की दास्तान भी कुछ ऐसी ही है। वार्न के संन्यास लेने के बाद से ही स्टुअर्ट मैकगिल फिट नहीं चल रहे थे और जब वह फिट हुए तो उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी। इस हालत में आस्ट्रेलिया गेंदबाजी का स्पिन आक्रमण बेहद कमजोर हो गया। उसने ब्रैड हॉग को मौका दिया लेकिन वह खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए (हालांकि अब हॉग भी संन्यास ले चुके हैं)। वेस्टइंडीज के खिलाफ अंतिम टेस्ट मैच में आस्ट्रेलिया ने बीयू कासन नाम के चाइनामैन गेंदबाज को मौका दिया लेकिन वह तो ब्रैड हॉग से भी कमजोर नजर आते हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि गेंदबाजी कमजोर होने से आस्ट्रेलिया की टीम में अब जीतने का माद्दा नहीं है। वो अब भी जीत रहे हैं और शायद आगे भी जीतेंगे लेकिन उनकी जीत का प्रतिशत पहले की तरह शानदार नहीं होगा। टेस्ट मैचों में आस्ट्रेलिया की नंबर एक गद्दी को फिलहाल कोई खतरा नजर नहीं रहा है। इसके पीछे जो सबसे बड़ी वजह है वह यह कि आस्ट्रेलिया और बाकी टीमों के बीच गुणवत्ता की खाई अभी भी बहुत चौड़ी है। आस्ट्रेलिया का बल्लेबाजी क्रम अभी भी बहुत मजबूत है और साथ ही मानसिक रूप से भी उसके खिलाड़ी बाकी टीमों के खिलाडि़यों की तुलना में बीस है।
तीसरे टेस्ट में आस्ट्रेलिया ने वेस्टइंडीज के सामने 476 रन का बेहद विशाल लक्ष्य रखा था और उम्मीद की जा रही थी कि वेस्टइंडीज की टीम इतनी बड़ी चुनौती के आगे आसानी से घुटने टेक देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, चौथे और पांचवें दिन की पिच पर भी कैरिबियाई बल्लेबाजों ने जमकर संघर्ष किया और यह मैच सिर्फ 87 रनों से हारे। ऐसा नहीं है कि वेस्टइंडीज का बल्लेबाजी क्रम टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से बहुत शानदार है लेकिन आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी में विविधता की कमी ने वेस्टइंडीज को संघर्ष को लंबा खींचने में मदद पहुंचाई।
यह पिछले कुछ महीनों में कोई पहला अवसर नहीं जब किसी टीम ने टेस्ट मैच की चौथी पारी में आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों के पसीने छुड़ाए हों। पिछले साल के अंत में श्रीलंका ने भी होबार्ट टेस्ट मैच में कुछ ऐसा ही किया था। तब 490 से अधिक रन के लक्ष्य का पीछा करने उतरी श्रीलंकाई टीम सिर्फ 91 रनों से मैच हारी थी। इस हार में भी अंपायर रूडी कोएर्तजन का बड़ा हाथ था। उन्होंने 192 रन के निजी स्कोर पर खेल रहे कुमार संगकारा को बेहद विवादास्पद तरीके से आउट दे दिया था। इस सीरीज के बाद हुई भारत-आस्ट्रेलिया सीरीज में भी भारत ने आस्ट्रेलिया को उसके घर में कड़ी टक्कर दी। अगर सिडनी टेस्ट में पक्षपाती निर्णय नहीं आते तो यह सीरीज या तो ड्रा रहती या इसे भारत जीतता।
आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी इधर कमजोर क्यों नजर आ रही है इसे जानने के लिए किसी राकेट साइंस की जरूरत नहीं है। कोई भी टीम शेन वार्न, ग्लैन मैक्ग्रा, स्टुअर्ट मैकगिल जैसे गेंदबाजों के रिटायर हो जाने से कमजोर होगी। लेकिन आस्ट्रेलिया के जिस मजबूत बेंच स्ट्रेंथ की बात की जा रही थी वह इन तीनों गेंदबाजों के जाने के बाद कसौटी पर खड़ा नहीं उतर रहा है।
ऐसा लग रहा है कि आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी सिर्फ ब्रेट ली के सहारे चल रही है। स्टुअर्ट क्लार्क रिसपोंसिव पिचों पर ही चल पाते हैं जबकि मिशेल जॉनसन आस्ट्रेलियाई परंपरा के हिसाब से कोई धारदार गेंदबाज नहीं लगते। स्पिन विभाग की दास्तान भी कुछ ऐसी ही है। वार्न के संन्यास लेने के बाद से ही स्टुअर्ट मैकगिल फिट नहीं चल रहे थे और जब वह फिट हुए तो उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी। इस हालत में आस्ट्रेलिया गेंदबाजी का स्पिन आक्रमण बेहद कमजोर हो गया। उसने ब्रैड हॉग को मौका दिया लेकिन वह खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए (हालांकि अब हॉग भी संन्यास ले चुके हैं)। वेस्टइंडीज के खिलाफ अंतिम टेस्ट मैच में आस्ट्रेलिया ने बीयू कासन नाम के चाइनामैन गेंदबाज को मौका दिया लेकिन वह तो ब्रैड हॉग से भी कमजोर नजर आते हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि गेंदबाजी कमजोर होने से आस्ट्रेलिया की टीम में अब जीतने का माद्दा नहीं है। वो अब भी जीत रहे हैं और शायद आगे भी जीतेंगे लेकिन उनकी जीत का प्रतिशत पहले की तरह शानदार नहीं होगा। टेस्ट मैचों में आस्ट्रेलिया की नंबर एक गद्दी को फिलहाल कोई खतरा नजर नहीं रहा है। इसके पीछे जो सबसे बड़ी वजह है वह यह कि आस्ट्रेलिया और बाकी टीमों के बीच गुणवत्ता की खाई अभी भी बहुत चौड़ी है। आस्ट्रेलिया का बल्लेबाजी क्रम अभी भी बहुत मजबूत है और साथ ही मानसिक रूप से भी उसके खिलाड़ी बाकी टीमों के खिलाडि़यों की तुलना में बीस है।
Tuesday, June 17, 2008
क्या पीटरसन का शॉट वाकई नियमों के विपरीत था?
इन दिनों इंग्लैंड के धाकड़ बल्लेबाज केविन पीटरसन क्रिकेटिया हलकों में खासे चर्चा में हैं। लेकिन उनका नाम इसलिए सुर्खियां नहीं बटोर रहा है कि उन्होंने मैदान पर कोई जबरदस्त पारी खेल दी हो या मैदान के बाहर कोई कारनामा कर दिया हो। उनकी चर्चा इसलिए हो रही है कि उन्होंने न्यूजीलैंड के खिलाफ 15 जून को खेले गए वनडे मैच में दो ऐसे शॉट लगाए जो क्रिकेट पंडितों के हलक से नीचे नहीं उतर रहा।
मामले ने कितना तूल पकड़ा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि क्रिकेट नियमों की संरक्षक माने जाने वाली संस्था मेरिलबोन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) ने पीटरसन के शॉट पर विचार करने की बात कही है। दरअसरल पीटरसन ने किवी गेंदबाज स्कॉट स्टायरिस की गेंद पर रिवर्स स्वीप पर दो छक्के जमाए (पहला छक्का 39वें ओवर में और दूसरा 44वें ओवर में)। आप कहेंगे रिवर्स स्वीप में क्या नया है। आपका सोचना सही है रिवर्स स्वीप कोई नया शॉट नहीं है और इस पर पहले कोई शोर शराबा भी नहीं हुआ लेकिन पीटरसन का शॉट परंपरागत रिवर्स स्वीप नहीं था। उन्होंने इन दोनों शॉटों को जमाने से पहला अपना ग्रिप बदलकर दाएं हाथ के बल्लेबाज की जगह बाएं हाथ के बल्लेबाज बन गए। जबकि आम तौर पर रिवर्स स्वीप जमाते हुए बल्लेबाज अपना ग्रिप नहीं बदलता है।
क्रिकेट के नियमों के जानकार का कहना है कि जब गेंदबाज को अंपायर को बताए बिना अपना गेंदबाजी हाथ बदलने की इजाजत नहीं होती तो बल्लेबाज ऐसा कैसे कर सकता है। इन जानकारों के मुताबिक पीटरसन ने अपना ग्रिप बदल कर नियमों की अवहेलना की है।
हालांकि पीटरसन इन आरोपों को बेबुनियाद बताते हैं। उनके मुताबिक उनका शॉट इंप्रोवाइजेशन का शानदार नमूना था। उन्होंने कहा कि मैंने कुछ गलत नहीं किया है और शोर इसलिए मच रहा है कि मैंने रिवर्स स्वीप पर छक्का जड़ दिया जबकि आमतौर पर कोई अन्य बल्लेबाज रिवर्स स्वीप के सहारे गेंद को इतनी दूर तक नहीं मार पाता है।
वैसे देखा जाए तो पीटरसन ने वाकई कुछ गलत नहीं किया है। क्रिकेट में बल्लेबाज और गेंदबाजों के लिए नियमों का एक जैसा होना जरूरी नहीं है। आप ही सोचिए कोई बल्लेबाज अपनी क्रीज से आगे निकलकर शॉट खेल सकता है जबकि कोई गेंदबाज बॉलिंग करते वक्त ऐसा करने की कोशिश करेगा तो उसकी गेंद वह नो बॉल कहलाएगी। बल्लेबाज विकेट के बाएं और दाएं दोनो ओर शॉट खेल सकता है जबकि गेंदबाज या तो ओवर द विकेट गेंद फेंकेगा या राउंड द विकेट। अगर उसे इसमें परिवर्तन करना है तो अंपायर को बताना होगा।
वैसे भी बल्लेबाज किसी भी दिशा में घूमकर बल्लेबाजी करे लेकिन वह प्रमुखता से किसी एक हाथ का ही इस्तेमाल करता है। सौरव गांगुली हैं तो बाएं हत्था बल्लेबाज लेकिन उनके शॉट्स में अक्सर दाएं हाथ का ज्यादा इस्तेमाल होता है।
जब बल्लेबाज के लिए हाथ फिक्स करने की बात हो रही है तो फील्डरों को इस दायरे में क्यों नहीं लाया जाता। इन नियमों के ठेकेदारों की चले तो एक दिन ऐसा नियम भी बन सकता है कि फील्डर को मैच से पहले बताना होगा कि वह कौन से हाथ के कैच पकड़ेगा या किस हाथ से थ्रो करेगा।
मेरे विचार से जिस तरह ऊपर लिखी बातें अटपटी लगती है उसी तरह पीटरसन के शॉट पर उंगली उठाना भी बेहद अटपटा मामला है। यह किसी बल्लेबाज की योग्यता या क्षमता पर निर्भर है कि वह किस प्रकार शॉट खेलता है। हमें पीटरसन की तारीफ करनी चाहिए कि वह दाएं हाथ के बल्लेबाज होने के बावजूद भी बाएं हाथ से छक्का जमा सकते हैं।
Monday, June 16, 2008
लो एक और चाइनामैन आ गया
वेस्टइंडीज के खिलाफ चल रही टेस्ट सीरीज के तीसरे और आखिरी मैच में आस्ट्रेलिया ने एक नए लेफ्ट आर्म स्पिनर बीयू कासन को मौका दिया। कासन हैं तो लेफ्ट आर्म स्पिनर लेकिन वह परंपरागत शैली वाले लेफ्ट आर्म स्पिनर नहीं हैं। वह हाल ही में संन्यास ले चुके एक अन्य आस्ट्रेलियाई स्पिनर ब्रैड हॉग की ही तरह लेफ्ट आर्म चाइनामैन स्पिनर हैं।
इससे पहले इस आलेख को आगे बढ़ाऊं यह स्पष्ट करता चलूं कि ये चाइनामैन स्पिन है क्या बला। चाइनामैन उस लेफ्ट आर्म स्पिनर को कहते हैं जो उंगली की बजाय कलाई के सहारे गेंद को स्पिन कराता है और उसकी मुख्य गेंद आर्थोडोक्स लेफ्ट आर्मर के विपरीत किसी दाएं हाथ के बल्लेबाज के लिए ऑफ स्पिन होती है। यूं समझ लें कि कोई चाईनामैन स्पिनर किस दाएं हाथ के लेग स्पिनर का मिरर इमेज है। कभी शेन वार्न, दानिश कनेरिया या पीयूष चावला की गेंदबाजी को आइने में देख लीजिए यही है चाइनामैन लेग स्पिन। वहीं लेफ्ट आर्म आर्थोडोक्स स्पिन गेंदबाज अपनी उंगली से गेंद को स्पिन कराता है और उसकी मुख्य गेंद वह होती है जो किसी दाएं हाथ के बल्लेबाज के लिए लेग ब्रेक हो।
ब्रैड हॉग और बीयू कासन से पहले जो लेफ्ट आर्म स्पिनर चर्चा में आया था वह है दक्षिण अफ्रीका का पॉल एडम्स। चाइनामैन गेंदबाज होने के साथ-साथ एडम्स का एक्शन भी थोड़ा अजीबो-गरीब था जिस वजह से दर्शकों के बीच खासे लोकप्रिय रहे थे।
टेस्ट क्रिकेट में जो चाइनामैन गेंदबाज सबसे सफल रहा है वह है वेस्टइंडीज के महान ऑलराउंड सर गारफील्ड सोबर्स (हालांकि वह लेफ्ट आर्म आर्थोडोक्स और लेफ्ट आर्म मीडियम पेस भी फेंकते थे)। सोबर्स ने जब टेस्ट क्रिकेट में नए-नए आए थे थो विरोधी बल्लेबाज उन्हें लेफ्ट आर्म आर्थोडोक्स स्पिनर समझ कर खेलने की गलती करते थे और चकमा खा जाते थे। इसी तरह ब्रैड हॉज भी एक दिवसीय क्रिकेट में खासे सफल रहे। हालांकि सभी बल्लेबाजों को पता होता था कि वह चाइनामैन गेंदबाज हैं लेकिन इस तरह की गेंदबाजी का सामना करने का कम आदि होने के कारण बल्लेबाजों को मुश्किल पेश आती थी।
किसी लेग स्पिनर की ही तरह चाइनामैन गेंदबाज की भी गुगली (दाएं हाथ के बल्लेबाज के लिए लेग ब्रेक) भी काफी घातक साबित होती है। इसके अलावा चाइनामैन गेंदबाज फिलीपर और स्कीडर जैसी गेंदें भी फेंकने में सक्षम होता है।
Sunday, June 15, 2008
पाकिस्तान से मिली हार बर्दाश्त नहीं होती
शनिवार को बांग्लादेश में खेले गए किट प्लाई कप के फाइनल मुकाबले में टीम इंडिया पाकिस्तान से 25 रनों से हार गई। चुकी यह हार फाइनल मुकाबला में मिली इसलिए दुख भी ज्यादा हो रहा था लेकिन उससे भी बड़ा दुख था कि आखिर हमारी टीम पाकिस्तान से क्यों हारी।
लोग कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में भारत-पाकिस्तान के बीच कटुता कम हुई है और पाकिस्तान से हार कर भारतीयों के मन मस्तिष्क पर उतनी ठेस नहीं लगती जितना कि 80 या 90 के दशकों में लगा करती थी। लेकिन लाख समझाने के बावजूद मेरा मन आज भी वैसा ही है और आज भी पाकिस्तान से हारने पर मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरे हृदय में आज भी पाकिस्तान के लिए कोई प्रेम भाव नहीं है। मैं संप्रदायवादी नहीं हूं और न ही यह मेरे पाकिस्तान के प्रति नफरत का आधार है। मैं पाकिस्तान से इसलिए नफरत करता हूं कि उसने हमारे ऊपर चार युद्ध थोपे और उसकी वजह से हम गरीबी दूर करने की बजाय युद्ध के साजो-सामान खरीदने पर मजबूर हैं। तो भला ऐसे देश से प्रेम कैसा।
लोग मुझसे पूछते हैं कि उस नफरत को क्रिकेट में क्यों लाते हो यह तो महज खेल है। लोगों के लिए यह खेल हुआ करे लेकिन मेरे लिए यह पाकिस्तान से युद्ध के मैदान के बाद भिड़ंत का दूसरा सबसे बड़ा अखाड़ा है। मुझे पता है कि क्रिकेट में कभी जीत तो कभी हार लगी रहती है लेकिन पाकिस्तान से हार कर दिल और दिमाग में आग लग जाती है और कम से एक-दो दिन तक तो बिल्कुल नहीं बुझती है।
हो सकता है मेरी सोच गलत हो लेकिन मामला जब जज्बाती हो जाए तो सोच की फिक्र कहां रहती है। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय टीम की हार पर भी कहे वेल ट्राइड, वेल प्लेड।
लोग कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में भारत-पाकिस्तान के बीच कटुता कम हुई है और पाकिस्तान से हार कर भारतीयों के मन मस्तिष्क पर उतनी ठेस नहीं लगती जितना कि 80 या 90 के दशकों में लगा करती थी। लेकिन लाख समझाने के बावजूद मेरा मन आज भी वैसा ही है और आज भी पाकिस्तान से हारने पर मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरे हृदय में आज भी पाकिस्तान के लिए कोई प्रेम भाव नहीं है। मैं संप्रदायवादी नहीं हूं और न ही यह मेरे पाकिस्तान के प्रति नफरत का आधार है। मैं पाकिस्तान से इसलिए नफरत करता हूं कि उसने हमारे ऊपर चार युद्ध थोपे और उसकी वजह से हम गरीबी दूर करने की बजाय युद्ध के साजो-सामान खरीदने पर मजबूर हैं। तो भला ऐसे देश से प्रेम कैसा।
लोग मुझसे पूछते हैं कि उस नफरत को क्रिकेट में क्यों लाते हो यह तो महज खेल है। लोगों के लिए यह खेल हुआ करे लेकिन मेरे लिए यह पाकिस्तान से युद्ध के मैदान के बाद भिड़ंत का दूसरा सबसे बड़ा अखाड़ा है। मुझे पता है कि क्रिकेट में कभी जीत तो कभी हार लगी रहती है लेकिन पाकिस्तान से हार कर दिल और दिमाग में आग लग जाती है और कम से एक-दो दिन तक तो बिल्कुल नहीं बुझती है।
हो सकता है मेरी सोच गलत हो लेकिन मामला जब जज्बाती हो जाए तो सोच की फिक्र कहां रहती है। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय टीम की हार पर भी कहे वेल ट्राइड, वेल प्लेड।
Friday, June 13, 2008
सिर्फ पांच मैच और इनाम 420 करोड़
जी हां पांच मैच और इनाम 420 करोड़ रुपये। इतनी बड़ी इनामी राशि किसी फुटबाल, बास्केटबाल, डब्ल्यूडब्ल्यूई, बेसबाल या बाक्सिंग मैचों के लिए नहीं बल्कि यह ट्वंटी 20 क्रिकेट मैचों के लिए है। और इन मैचों में पैसों के लिहाज से विश्व क्रिकेट पर राज करने वाली बीसीसीआई की टीम भाग नहीं लेगी और न ही आईपीएल की कोई टीम।
ये मैच खेले जाएंगे वेस्टइंडीज के ऑल स्टार इलेवन और इंग्लैंड के बीच और इन मैचों पर इतना पैसा लुटाने वाला शख्स है टेक्सास का अरबपति विलियम स्टेनफोर्ड। वही स्टेनफोर्ड जो वेस्टइंडीज की घरेलू ट्वंटी 20 लीग को प्रायोजित करता है। उन्होंने पिछले साल ट्वंटी 20 विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम को वेस्टइंडीज ऑल स्टार इलेवन के साथ 80 करोड़ रुपये का एक मैच खेलने के लिए आमंत्रित किया था लेकिन बीसीसीआई ने उनकी इस पेशकश को नकार दिया था।
अब स्टेनफोर्ड ने इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड [ईसीबी] के साथ करार किया है जिसके तहत वेस्टइंडीज और इंग्लैंड की टीमें अगले पांच सालों में आपस में पांच ट्वंटी 20 मैच खेलेंगी। इन पांच मैचों के लिए 100 मिलियन डालर यानी 420 करोड़ रुपये दाव पर होंगे। यानी एक मैच की कीमत होगी 20 मिलियन डालर [84 करोड़ रुपये]। एक मैच में विजेता टीम के सभी खिलाडि़यों को 1-1 मिलियन डालर मिलेंगे [4 करोड़ 20 लाख रुपये प्रति खिलाड़ी]। अंतिम 11 में स्थान न बना पाने वाले खिलाड़ी एक मिलियन डाल में साझा करेंगे जबकि टीम मैनेजमेंट को भी एक मिलियन डालर मिलेंगे। बाकी सात मिलियन डालर में ईसीबी और वेस्टइंडीज क्रिकेट बार्ड आधा-आधा शेयर करेंगे।
इस तरह विजेता टीम के खिलाडि़यों को सिर्फ एक मैच से जो रकम मिलेगी वह इंडियन प्रीमियर लीग में भाग लेने वाले ज्यादातर खिलाडि़यों को एक सत्र के लिए मिलने वाली राशि से ज्यादा होगी।
स्टेनफोर्ड पहले ही कह चुके हैं कि ट्वंटी 20 क्रिकेट में इतना दम है कि वह दुनिया में फुटबाल के प्रति मौजूदा दीवानगी को भी पीछे छोड़ दे। कम से कम पैसों बारिश के हिसाब से देखा जाए तो उनका पूर्वानुमान कोई बहुत बड़ा दुस्साहस नहीं लगता। स्टेनफोर्ड एक कामयाब बिजनेसमैन हैं और अगर उन्हें क्रिकेट में इतनी संभावनाएं दिख रही हैं तो इसके पीछे जरूर कोई न कोई कारण होगा। खैर उनकी यह पहल कितनी कामयाब होती है यह तो आने वाला वक्त बताएगा। हालांकि स्टेनफोर्ड की कार्ययोजना में शायद भारत फिट नहीं बैठता नहीं तो आईपीएल टीमों के लिए हुई खुली बोली में शिरकत जरूर करते।
ये मैच खेले जाएंगे वेस्टइंडीज के ऑल स्टार इलेवन और इंग्लैंड के बीच और इन मैचों पर इतना पैसा लुटाने वाला शख्स है टेक्सास का अरबपति विलियम स्टेनफोर्ड। वही स्टेनफोर्ड जो वेस्टइंडीज की घरेलू ट्वंटी 20 लीग को प्रायोजित करता है। उन्होंने पिछले साल ट्वंटी 20 विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम को वेस्टइंडीज ऑल स्टार इलेवन के साथ 80 करोड़ रुपये का एक मैच खेलने के लिए आमंत्रित किया था लेकिन बीसीसीआई ने उनकी इस पेशकश को नकार दिया था।
अब स्टेनफोर्ड ने इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड [ईसीबी] के साथ करार किया है जिसके तहत वेस्टइंडीज और इंग्लैंड की टीमें अगले पांच सालों में आपस में पांच ट्वंटी 20 मैच खेलेंगी। इन पांच मैचों के लिए 100 मिलियन डालर यानी 420 करोड़ रुपये दाव पर होंगे। यानी एक मैच की कीमत होगी 20 मिलियन डालर [84 करोड़ रुपये]। एक मैच में विजेता टीम के सभी खिलाडि़यों को 1-1 मिलियन डालर मिलेंगे [4 करोड़ 20 लाख रुपये प्रति खिलाड़ी]। अंतिम 11 में स्थान न बना पाने वाले खिलाड़ी एक मिलियन डाल में साझा करेंगे जबकि टीम मैनेजमेंट को भी एक मिलियन डालर मिलेंगे। बाकी सात मिलियन डालर में ईसीबी और वेस्टइंडीज क्रिकेट बार्ड आधा-आधा शेयर करेंगे।
इस तरह विजेता टीम के खिलाडि़यों को सिर्फ एक मैच से जो रकम मिलेगी वह इंडियन प्रीमियर लीग में भाग लेने वाले ज्यादातर खिलाडि़यों को एक सत्र के लिए मिलने वाली राशि से ज्यादा होगी।
स्टेनफोर्ड पहले ही कह चुके हैं कि ट्वंटी 20 क्रिकेट में इतना दम है कि वह दुनिया में फुटबाल के प्रति मौजूदा दीवानगी को भी पीछे छोड़ दे। कम से कम पैसों बारिश के हिसाब से देखा जाए तो उनका पूर्वानुमान कोई बहुत बड़ा दुस्साहस नहीं लगता। स्टेनफोर्ड एक कामयाब बिजनेसमैन हैं और अगर उन्हें क्रिकेट में इतनी संभावनाएं दिख रही हैं तो इसके पीछे जरूर कोई न कोई कारण होगा। खैर उनकी यह पहल कितनी कामयाब होती है यह तो आने वाला वक्त बताएगा। हालांकि स्टेनफोर्ड की कार्ययोजना में शायद भारत फिट नहीं बैठता नहीं तो आईपीएल टीमों के लिए हुई खुली बोली में शिरकत जरूर करते।
Tuesday, June 10, 2008
क्रिकेट के आंकड़ों के लिए एक उम्दा वेबसाइट
हमें अगर क्रिकेट से जुड़ी कोई खास जानकारी चाहिए होती है तो हम अक्सर क्रिकइन्फो. काम का रुख करते हैं। इसके अलावा भी कई वेबसाइट हैं जहां क्रिकेट से जुड़ी खबरें और विश्लेषण मिल जाते हैं। लेकिन अगर आप क्रिकेट के आंकड़ों में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं तो एक वेबसाइट है जो आपका काम बेहद आसन बना देगी।
इस वेब साइट का यूआरएल है www.howstat.com इस साइट का नेविगेशन बेहद यूजर फ्रेंडली है जिससे आपको आंकड़ों की तलाश में ज्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। यहां आप हर देश के हर मैच का स्कोर कार्ड देख सकते हैं साथ ही किसी भी क्रिकेटर का मैच दर मैच प्रदर्शन जान सकेंगे। इसके अलावा और भी तमाम प्रकार के रिकार्ड दो-चार क्लिक के बाद आपके सामने होंगे।
इस वेब साइट का यूआरएल है www.howstat.com इस साइट का नेविगेशन बेहद यूजर फ्रेंडली है जिससे आपको आंकड़ों की तलाश में ज्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। यहां आप हर देश के हर मैच का स्कोर कार्ड देख सकते हैं साथ ही किसी भी क्रिकेटर का मैच दर मैच प्रदर्शन जान सकेंगे। इसके अलावा और भी तमाम प्रकार के रिकार्ड दो-चार क्लिक के बाद आपके सामने होंगे।
Monday, June 9, 2008
संयुक्त राष्ट्र से भी बड़ा मंच है ओलंपिक!
दुनिया का सबसे बड़ा खेल मेला है ओलंपिक। यहां अलग-अलग देशों के खिलाड़ी विभिन्न स्पर्धाओं में एक दूसरे की क्षमता को परखते हैं। लेकिन खेलों के अलावा अर्थ वित्त, राजनीति और विवाद जैसे मामलों में भी यह दुनिया के कई बड़े आयोजनों और संस्थानों की बराबरी करता है।
ओलंपिक की विशालता का अनुमान अग्रलिखित चार तथ्यों से लगाया जा सकता है।
पहला तथ्य:- बीजिंग ओलंपिक में 203 देश भाग लेंगे। आज की तारीख में सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय संगठन माने जाने वाले संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की कुल संख्या है 193 यानी ओलंपिक में भाग लेने वाले देशों की संख्या से दस कम।
दूसरा तथ्य: सिडनी में हुए ओलंपिक को कवर करने के लिए पूरी दुनिया से 16000 ब्रॉडकास्टर और पत्रकार गए।
तीसरा तथ्य:- 2012 में लंदन में होने वाले ओलंपिक का बजट करीब 64000 करोड़ रुपये है जो इसमें भाग लेने वाले कई प्रतिभागी देशों की जीडीपी से ज्यादा है।
चौथा तथ्य:-एथेंस में हुए पिछले ओलंपिक खेल को करीब चार अरब लोगों ने अपने-अपने टेलिविजन पर देखा। यह पूरी दुनिया की आबादी का करीब आधा हिस्सा है।
ओलंपिक की विशालता से जुड़े और भी कई तथ्य हैं जिसकी चर्चा में बाद में करूंगा।
Friday, June 6, 2008
खेलों में भारत के बाद किसका समर्थन करते हैं आप?
इंग्लैंड की टीम यूरो कप फुटबाल प्रतियोगिता के लिए क्वालीफाई नहीं कर सकी है इसलिए अब वहां के प्रशंसक स्पेन और हालैंड जैसी टीमों को अपना समर्थन दे रहे हैं। वहीं पारंपरिक प्रतिद्वंदिता के आधार पर वे यह भी चाहते हैं कि कोई देश इस खिताब को जीते लेकिन जर्मनी कभी न जीते।
कुछ इसी तरह की परिस्थितियां कभी-कभी भारत में भी उत्पन्न हो जाती है जब किसी ऐसे क्रिकेट टूर्नामेंट में जिसमें भारत न खेल रहा हो या शुरुआती चरण में हार कर बाहर हो गया हो तो हम भी विकल्प के तौर पर किसी दूसरे देश को अपना समर्थन देते हैं। पिछले विश्व कप ही उदाहरण ले लीजिए। भारत की टीम पहले ही राउंड में बांग्लादेश और श्रीलंका से हार कर बाहर हो गई। भारतीय टीम के कट्टर समर्थकों ने तो इसके बाद विश्व कप देखा ही नहीं लेकिन भारत में मौजूद अन्य क्रिकेट प्रेमियों ने अपनी-अपनी टीमें चुन ली।
उस दौड़ान कई लोगों से बातचीत के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि भारत के बाहर हो जाने पर ज्यादातर भारतीयों ने अपना समर्थन दक्षिण अफ्रीका को दिया। इसके बाद वेस्टइंडीज का नंबर था फिर इंग्लैंड और न्यूजीलैंड का। नापसंदीदा टीमों की सूची में सबसे पहला नाम आस्ट्रेलिया (नंबर वन होने के कारण) का था। पाकिस्तान भी भारत की तरह पहले राउंड में बार हो गया था। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो शायद परंपरागत प्रतिद्वंदी होने के कारण पाकिस्तानी टीम इस मामले में आस्ट्रेलिया को पीछे छोड़ देती। चूकीं श्रीलंका से हार कर भारत बाहर हुआ था इसलिए उनके प्रति हमारे यहां गुस्से का भाव रहा था।
वैसे भारत के बाहर की क्रिकेट टीमों को लेकर भारतीय क्रिकेट प्रेमियों की पसंद समय के साथ-साथ बदली है। अब पाकिस्तानी टीम के प्रति हमारे यहां नफरत का वह भाव नहीं है जो 80 और 90 के दशक में था। उस समय पाकिस्तान के बाद जिस टीम को भारतीय कभी जीतते हुए नहीं देखना चाहते थे वह थी वेस्टइंडीज की टीम। इसके पीछे खास वजह यह थी कि वेस्टइंडीज उस समय की नंबर एक टीम थी और आम तौर पर भारतीय किसी एक टीम को लगातार जीतते हुए नहीं देखना चाहते। समय के साथ वेस्टइंडीज की जगह आस्ट्रेलिया ने ले ली। लेकिन भारत में नकारात्मक लोकप्रियता के मामले में आस्ट्रेलिया ने उस समय की वेस्टइंडीज की टीम को पीछे छोड़ दिया है।
पिछले कई सालों में मैंने यह जानने की काफी कोशिश की कि आखिर भारतीय किस आधार पर अपनी पसंदीदा नंबर दो टीम का चुनाव करते हैं। जहां तक मैं समझ पाया आमतौर हम यह चुनाव भावनात्मक आधार पर करते हैं। हमारे इस चुनाव के पीछे पसंद की जगह नापसंद वाला फैक्टर ज्यादा काम करता है। अमूमन हम उन टीमों को सपोर्ट करते हैं जो पाकिस्तान और विश्व की नंबर एक टीम को हराने का माद्दा रखती हो। हालांकि स्थिति तब रोचक हो जाती है जब पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच मैच खेला जाता है। इस मैच में कट्टर पाकिस्तान विरोधी आस्ट्रेलिया को सपोर्ट करते हैं जबकि नंबर वन के विरोधी पाकिस्तान को।
क्रिकेट के अलावा और भी कुछ खेल हैं जहां नंबर वन का विरोध करने की हमारी प्रवृत्ति अपना असर दिखाती है। ओलंपिक में हम चाहते हैं कि रूस या चीन मेडल टैली में अमेरिका को पीछे छोड़ दें। फिर उसी चीन को हम एशियाई खेलों में जीतते हुए नहीं देखना चाहते हैं क्योंकि चीन वहां नंबर वन है।
हालांकि एक ऐसा खेल हैं यह नंबर वन विरोधी सिद्धांत समाप्त हो जाता है। वह खेल है फुटबाल। ब्राजील और अर्र्जेटीना विश्व फुटबाल में महाशक्तियां है लेकिन अधिकांश भारतीय विश्व कप फुटबाल में इन्हीं टीमों का समर्थन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम भारतीय अंग्रेजों की गुलामी झेलने के कारण कभी उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने वाले यूरोपीय राष्ट्रों को उतना पसंद नहीं करते और ब्राजील और अर्र्जेटीना की फुटबाल टीमें हमारे लिए उन योद्धाओं के समान है जो इन यूरोपीय ताकतों को पीटते हैं।
यह तो भारतीय खेल प्रेमियों के दूसरे पसंद पर मेरी राय थी? आप क्या कहते हैं?
कुछ इसी तरह की परिस्थितियां कभी-कभी भारत में भी उत्पन्न हो जाती है जब किसी ऐसे क्रिकेट टूर्नामेंट में जिसमें भारत न खेल रहा हो या शुरुआती चरण में हार कर बाहर हो गया हो तो हम भी विकल्प के तौर पर किसी दूसरे देश को अपना समर्थन देते हैं। पिछले विश्व कप ही उदाहरण ले लीजिए। भारत की टीम पहले ही राउंड में बांग्लादेश और श्रीलंका से हार कर बाहर हो गई। भारतीय टीम के कट्टर समर्थकों ने तो इसके बाद विश्व कप देखा ही नहीं लेकिन भारत में मौजूद अन्य क्रिकेट प्रेमियों ने अपनी-अपनी टीमें चुन ली।
उस दौड़ान कई लोगों से बातचीत के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि भारत के बाहर हो जाने पर ज्यादातर भारतीयों ने अपना समर्थन दक्षिण अफ्रीका को दिया। इसके बाद वेस्टइंडीज का नंबर था फिर इंग्लैंड और न्यूजीलैंड का। नापसंदीदा टीमों की सूची में सबसे पहला नाम आस्ट्रेलिया (नंबर वन होने के कारण) का था। पाकिस्तान भी भारत की तरह पहले राउंड में बार हो गया था। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो शायद परंपरागत प्रतिद्वंदी होने के कारण पाकिस्तानी टीम इस मामले में आस्ट्रेलिया को पीछे छोड़ देती। चूकीं श्रीलंका से हार कर भारत बाहर हुआ था इसलिए उनके प्रति हमारे यहां गुस्से का भाव रहा था।
वैसे भारत के बाहर की क्रिकेट टीमों को लेकर भारतीय क्रिकेट प्रेमियों की पसंद समय के साथ-साथ बदली है। अब पाकिस्तानी टीम के प्रति हमारे यहां नफरत का वह भाव नहीं है जो 80 और 90 के दशक में था। उस समय पाकिस्तान के बाद जिस टीम को भारतीय कभी जीतते हुए नहीं देखना चाहते थे वह थी वेस्टइंडीज की टीम। इसके पीछे खास वजह यह थी कि वेस्टइंडीज उस समय की नंबर एक टीम थी और आम तौर पर भारतीय किसी एक टीम को लगातार जीतते हुए नहीं देखना चाहते। समय के साथ वेस्टइंडीज की जगह आस्ट्रेलिया ने ले ली। लेकिन भारत में नकारात्मक लोकप्रियता के मामले में आस्ट्रेलिया ने उस समय की वेस्टइंडीज की टीम को पीछे छोड़ दिया है।
पिछले कई सालों में मैंने यह जानने की काफी कोशिश की कि आखिर भारतीय किस आधार पर अपनी पसंदीदा नंबर दो टीम का चुनाव करते हैं। जहां तक मैं समझ पाया आमतौर हम यह चुनाव भावनात्मक आधार पर करते हैं। हमारे इस चुनाव के पीछे पसंद की जगह नापसंद वाला फैक्टर ज्यादा काम करता है। अमूमन हम उन टीमों को सपोर्ट करते हैं जो पाकिस्तान और विश्व की नंबर एक टीम को हराने का माद्दा रखती हो। हालांकि स्थिति तब रोचक हो जाती है जब पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच मैच खेला जाता है। इस मैच में कट्टर पाकिस्तान विरोधी आस्ट्रेलिया को सपोर्ट करते हैं जबकि नंबर वन के विरोधी पाकिस्तान को।
क्रिकेट के अलावा और भी कुछ खेल हैं जहां नंबर वन का विरोध करने की हमारी प्रवृत्ति अपना असर दिखाती है। ओलंपिक में हम चाहते हैं कि रूस या चीन मेडल टैली में अमेरिका को पीछे छोड़ दें। फिर उसी चीन को हम एशियाई खेलों में जीतते हुए नहीं देखना चाहते हैं क्योंकि चीन वहां नंबर वन है।
हालांकि एक ऐसा खेल हैं यह नंबर वन विरोधी सिद्धांत समाप्त हो जाता है। वह खेल है फुटबाल। ब्राजील और अर्र्जेटीना विश्व फुटबाल में महाशक्तियां है लेकिन अधिकांश भारतीय विश्व कप फुटबाल में इन्हीं टीमों का समर्थन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम भारतीय अंग्रेजों की गुलामी झेलने के कारण कभी उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने वाले यूरोपीय राष्ट्रों को उतना पसंद नहीं करते और ब्राजील और अर्र्जेटीना की फुटबाल टीमें हमारे लिए उन योद्धाओं के समान है जो इन यूरोपीय ताकतों को पीटते हैं।
यह तो भारतीय खेल प्रेमियों के दूसरे पसंद पर मेरी राय थी? आप क्या कहते हैं?
Wednesday, June 4, 2008
वन-डे को बनाना होगा ट्वंटी 20 का डबल डोज
आईपीएल के धूम धड़ाके खत्म हुए। भारतीय टीम बांग्लादेश रवाना हो रही है जहां उसे मेजबान टीम के अलावा पाकिस्तान की भागीदारी वाली वनडे त्रिकोणीय सीरीज में भाग लेना है। इसके बाद एशिया कप होना है जहां पाकिस्तान और श्रीलंका के साथ-साथ बांग्लादेश और हांगकांग जैसी टीमें भी होगी।
आईपीएल में सचिन बनाम वार्न, जयसूर्या बनाम मैक्ग्रा, स्मिथ बनाम एंटिनी, यूसुफ पठान बनाम इरफान पठान जैसे बराबरी के मुकाबले देखने के बाद क्या दर्शकों को भारत बनाम हांगकांग जैसे बेमेल मुकाबले को देखने में मजा आएगा। वो भी 50-50 ओवरों तक। जरा याद कीजिए ट्वंटी 20 विश्व कप के बाद हुई भारत-आस्ट्रेलिया वनडे सीरीज। इस सीरीज में हरभजन-सायमंड्स-श्रीसंथ ड्रामे के अलावा और कोई रोमांच दर्शकों को नहीं मिला। ऐसा नहीं है कि इस सीरीज में क्वालिटी क्रिकेट नहीं खेली गई। यह सीरीज इसलिए फीकी साबित हुई क्योंकि यह ट्वंटी 20 विश्व कप के ठीक बाद खेला गया और इस सीरीज के सातों मुकाबले ट्वंटी 20 के रफ्तार और रोमांच के मुकाबले बौने साबित हुए। आस्ट्रेलिया में हुई त्रिकोणीय सीरीज इसलिए सफल रही क्योंकि वह टेस्ट सीरीज के बाद खेली गई। पूरी बात का मजमून यही है कि जैसे-जैसे ट्वंटी 20 मुकाबलों की संख्या बढे़गी वनडे अपना रोमांच खोता जाएगा। हालांकि टेस्ट क्रिकेट पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ने वाला क्योंकि उसे चाहने वाले दर्शकों का वर्ग एकदम भिन्न है।
70 के दशक में हुए विवादित कैरी पैकर सीरीज ने वनडे क्रिकेट को नया जीवन दिया था। इस सीरीज में खिलाड़ी सफेद कपड़ों में नजर आने वाले देवदूतों की जगह रंगीन कपड़ों में लिपटे ग्लैडिएटर नजर आए। लाल रंग की गेंद की जगह सफेद रंग की गेंद ने ली और डे-नाइट मैचों ने आफिस में काम करने वालों को भी मैच देखने के लिए उचित समय मुहैया कराया। लेकिन उस सीरीज के बाद से अब तक वनडे क्रिकेट में खास बदलाव नहीं आया है। पावर-प्ले और फ्री हिट को छोड़ दें तो वनडे क्रिकेट वहीं का वही है। वैसे भी जिस धारणा के आधार पर वनडे क्रिकेट की शुरुआत हुई थी उसी धारणा को अपना सबसे बड़ा अस्त्र बनाकर ट्वंटी 20 ने उस पर धावा बोला है।
वनडे क्रिकेट इसलिए शुरू किया गया था ताकि जो दर्शक वर्ग टेस्ट मैचों में लगने वाले समय और इसके धीमेपन को पसंद को नहीं पसंद करता है वह भी इसके बहाने मैदान पर मैच देखने आएं और टेलिविजन पर भी इस खेल के प्रशंसक बने। पिछले 30 साल से वनडे इन लक्ष्यों को हासिल भी कर रहा था लेकिन अब ट्वंटी 20 के प्रादुर्भाव से इसके अस्तित्व के ऊपर बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
तो क्या आने वाले सालों में वनडे क्रिकेट खत्म हो जाएगा। अगर इसे बचाने के प्रयास अभी से न किए गए तो जरूर खत्म हो जाएगा। इसके लिए जो सुझाव आजकल क्रिकेट पंडितों के बीच चर्चा में है वह है कि वनडे को ट्वंटी 20 का डबल डोज बना दिया जाए। यानी एक वनडे मैच को दो ट्वंटी 20 मैच में तब्दील कर दिया जाए मैच का नतीजा दोनों टीमों की दोनों पारियों के आधार पर किया जाए। इस तरह का प्रयोग 90 के दशक में किया गया था लेकिन तब वह सफल नहीं रहा था लेकिन अब लोग ट्वंटी का स्वाद चख चुके हैं तो इसके सफल होने की गुंजाइश बढ़ जाती है।
यह तो तय है कि आने वाले दिनों में ट्वंटी 20 अपना पैर और पसारेगा। जो आईपीएल इस बार डेढ़ महीने चला आगे चलकर तीन या चार महीनों का हो जाएगा या फिर इसका आयोजन साल में दो बार होगा। आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और पाकिस्तान भी आईपीएल का अनुसरण करने की ताक में है। इस स्थिति को ध्यान में रखकर क्रिकेट के कर्ताधर्ताओं के वनडे के भविष्य पर खासा ध्यान देना होगा।
Tuesday, June 3, 2008
स्कूल के दिनों में तो खेलते थे लेकिन क्या स्कूल में भी खेलते थे?
अमूमन मैं किसी से पूछता हूं कि आपने फलां खेल आखिरी बार कब खेला तो जवाब मिलता है स्कूल के दिनों में। हमलोगों में ज्यादातर ने स्कूल के दिनों में खेल-कूद का खूब मजा उठाया है लेकिन स्कूल के बाहर। जब स्कूल में खेलने की बात आती है तो संख्या में भारी गिरावट आ जाती है।
वे लोग जो कहते हैं कि उन्होंने स्कूल में भी खेला है उनमें से ज्यादातर प्रार्थना (प्रेयर) से पहले होने वाले पीटी क्लास में थोड़ा बहुत हाथ पैर घुमाया है और हाफ टाइम (टिफीन) में लुका छुपी जैसे खेलों का लुत्फ उठाया है। हमारे स्कूल में एक छोटा सा मैदान हुआ करता था जहां हम 45 मिनट के टिफीन ब्रेक में पांच-पांच ओवर का क्रिकेट मैच खेलते थे। इसमें भी कुल जमा 22 छात्रों को ही मौका मिल पाता था।
हालांकि बड़े-बड़े निजी विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय सरीखे स्कूलों से पढ़े हमारे मित्र इस बात से इत्तेफाक नहीं रखेंगे। इन स्कूलों में टेबल टेनिस, बालीवाल, फुटबाल, क्रिकेट और भी तमाम खेलों की टीमें होती हैं जो साल में एक दो बार ऑल इंडिया लेवल पर होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग भी लेती है। लेकिन इन विद्यालयों में भी खेल का कैसा स्तर है या इनके कोच किस काबिल हैं ये बताने की जरूरत नहीं है। अगर इनकी व्यवस्था सफल होती तो आज विभिन्न खेलों में भारत को रिप्रजेंट करने वाले ज्यादातर खिलाड़ी इन्हीं स्कूलों के प्रोडक्ट होते लेकिन ऐसा नहीं है। चलिए मान भी लें कि ये स्कूल स्कूली स्तर पर खेल को प्रोत्साहन देते हैं तो सवाल यह है कि ऐसे स्कूलों की संख्या है ही कितनी।
पूरे भारत में हजारों ऐसे निजी और सरकारी विद्यालय हैं जहां खेल-कूद की कोई सुविधा नहीं है और इन्हीं हजारों विद्यालयों में भारत के 95 फीसदी छात्र पढ़ाई करते हैं। जब इन विद्यालयों में खेल-कूद से जुड़ी सुविधाओं की बात उठाई जाती है तो जवाब आता है कि पहले पढ़ाई ढंग से सुनिश्चित हो जाए खेल-कूद तो होता रहेगा। यही ढुलमुल रवैया भारत को कभी खेलों में आगे नहीं बढ़ने देगा। अगर ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में भारत पदकों के लिए तरसता रहता है तो इसके पीछे स्कूलों में खेल-कूद के लिए जरूरी साजोसमान व सुविधाएं न होना बड़ा कारण है।
कुछ लोगों का कहना है कि भारत अभी एक विकासशील राष्ट्र है और यहां स्कूल स्तर पर खेलों का विकास अभी मुमकिन नहीं है। यह तर्क सरसरी नजर में वाजिब जान पड़ता है लेकिन हकीकत इससे मेल नहीं खाती है। आज जितने भी विकसित राष्ट्र हैं वहां खेलों का विकास उसी चरण में हुआ जब वहां की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाएं विकास कर रही थी। चीन आज भी एक विकासशील राष्ट्र है और वहां स्कूलों में खेल के स्तर पर कितना ध्यान दिया जाता है यह बताने की जरूरत नहीं है।
हम सभी जानते हैं कि अमेरिका सुपर पावर है। लेकिन वह सिर्फ हथियारों, पैसे और राजनीतिक दबदबे के आधार पर ही सुपर पावर नहीं है बल्कि खेलों में भी एक-आध देश ही उसके स्तर के आसपास हैं। लेकिन आपको यह जानकर हैरत हो सकती है कि अमेरिका में जितना पैसा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों के स्तर पर खर्च किया जाता है उससे कहीं अधिक स्कूल और कॉलेज स्तर के खेलों पर किया जाता है। अमेरिका के नौ सबसे बड़े स्टेडियम किसी न किसी कॉलेज या स्कूल के स्टेडियम हैं। अगर कोई अमेरिकी अखबार नेशनल बास्केटबॉल लीग (एनबीए) को कवर करने के लिए चार रिपोर्टर रखता है तो स्कूल स्तर पर होने वाले बास्केटबाल लीग को कवर करने के लिए 16 रिर्पोटर रखता है। इतना ही नहीं स्कूली टूर्नामेंटों का लाइव टेलीकास्ट भी किया जाता है।
अगर आप भारत की तुलना अमेरिका जैसे संपन्न राष्ट्र से नहीं करना चाहते हैं तो जरा चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों के स्पोर्ट्स कल्चर को जानने की कोशिश करें। इन देशों के स्कूलों में भी खेल पर खासा ध्यान दिया जाता है और ये कोशिश की जाती है इनके बच्चे जितने अच्छे गणित में हों उतने ही अच्छे खेल-कूद में भी हों।
हमारी सरकार हमेशा यह बात कहती है कि स्कूल स्तर पर खेलों को बढ़ावा देना होगा लेकिन वह इसे अमल में लाने का इरादा नहीं रखती। स्कूली स्तर पर कुछ प्रतियोगिताएं जरूर आयोजित होती हैं लेकिन इसमें भाग लेने वाले ज्यादातर प्रतिभागी कोई ट्रेनिंग लेकर नहीं आते हैं। स्कूलों में खेल-कूद की सुविधाओं के विकास के लिए कुछ पैसे भी आवंटित किए जाते हैं लेकिन ये पैसे भी मैदान में पहुंचने के बजाय भोजन बनकर किसी के पेट में पहुंच जाते हैं।
वे लोग जो कहते हैं कि उन्होंने स्कूल में भी खेला है उनमें से ज्यादातर प्रार्थना (प्रेयर) से पहले होने वाले पीटी क्लास में थोड़ा बहुत हाथ पैर घुमाया है और हाफ टाइम (टिफीन) में लुका छुपी जैसे खेलों का लुत्फ उठाया है। हमारे स्कूल में एक छोटा सा मैदान हुआ करता था जहां हम 45 मिनट के टिफीन ब्रेक में पांच-पांच ओवर का क्रिकेट मैच खेलते थे। इसमें भी कुल जमा 22 छात्रों को ही मौका मिल पाता था।
हालांकि बड़े-बड़े निजी विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय सरीखे स्कूलों से पढ़े हमारे मित्र इस बात से इत्तेफाक नहीं रखेंगे। इन स्कूलों में टेबल टेनिस, बालीवाल, फुटबाल, क्रिकेट और भी तमाम खेलों की टीमें होती हैं जो साल में एक दो बार ऑल इंडिया लेवल पर होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग भी लेती है। लेकिन इन विद्यालयों में भी खेल का कैसा स्तर है या इनके कोच किस काबिल हैं ये बताने की जरूरत नहीं है। अगर इनकी व्यवस्था सफल होती तो आज विभिन्न खेलों में भारत को रिप्रजेंट करने वाले ज्यादातर खिलाड़ी इन्हीं स्कूलों के प्रोडक्ट होते लेकिन ऐसा नहीं है। चलिए मान भी लें कि ये स्कूल स्कूली स्तर पर खेल को प्रोत्साहन देते हैं तो सवाल यह है कि ऐसे स्कूलों की संख्या है ही कितनी।
पूरे भारत में हजारों ऐसे निजी और सरकारी विद्यालय हैं जहां खेल-कूद की कोई सुविधा नहीं है और इन्हीं हजारों विद्यालयों में भारत के 95 फीसदी छात्र पढ़ाई करते हैं। जब इन विद्यालयों में खेल-कूद से जुड़ी सुविधाओं की बात उठाई जाती है तो जवाब आता है कि पहले पढ़ाई ढंग से सुनिश्चित हो जाए खेल-कूद तो होता रहेगा। यही ढुलमुल रवैया भारत को कभी खेलों में आगे नहीं बढ़ने देगा। अगर ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में भारत पदकों के लिए तरसता रहता है तो इसके पीछे स्कूलों में खेल-कूद के लिए जरूरी साजोसमान व सुविधाएं न होना बड़ा कारण है।
कुछ लोगों का कहना है कि भारत अभी एक विकासशील राष्ट्र है और यहां स्कूल स्तर पर खेलों का विकास अभी मुमकिन नहीं है। यह तर्क सरसरी नजर में वाजिब जान पड़ता है लेकिन हकीकत इससे मेल नहीं खाती है। आज जितने भी विकसित राष्ट्र हैं वहां खेलों का विकास उसी चरण में हुआ जब वहां की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाएं विकास कर रही थी। चीन आज भी एक विकासशील राष्ट्र है और वहां स्कूलों में खेल के स्तर पर कितना ध्यान दिया जाता है यह बताने की जरूरत नहीं है।
हम सभी जानते हैं कि अमेरिका सुपर पावर है। लेकिन वह सिर्फ हथियारों, पैसे और राजनीतिक दबदबे के आधार पर ही सुपर पावर नहीं है बल्कि खेलों में भी एक-आध देश ही उसके स्तर के आसपास हैं। लेकिन आपको यह जानकर हैरत हो सकती है कि अमेरिका में जितना पैसा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों के स्तर पर खर्च किया जाता है उससे कहीं अधिक स्कूल और कॉलेज स्तर के खेलों पर किया जाता है। अमेरिका के नौ सबसे बड़े स्टेडियम किसी न किसी कॉलेज या स्कूल के स्टेडियम हैं। अगर कोई अमेरिकी अखबार नेशनल बास्केटबॉल लीग (एनबीए) को कवर करने के लिए चार रिपोर्टर रखता है तो स्कूल स्तर पर होने वाले बास्केटबाल लीग को कवर करने के लिए 16 रिर्पोटर रखता है। इतना ही नहीं स्कूली टूर्नामेंटों का लाइव टेलीकास्ट भी किया जाता है।
अगर आप भारत की तुलना अमेरिका जैसे संपन्न राष्ट्र से नहीं करना चाहते हैं तो जरा चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों के स्पोर्ट्स कल्चर को जानने की कोशिश करें। इन देशों के स्कूलों में भी खेल पर खासा ध्यान दिया जाता है और ये कोशिश की जाती है इनके बच्चे जितने अच्छे गणित में हों उतने ही अच्छे खेल-कूद में भी हों।
हमारी सरकार हमेशा यह बात कहती है कि स्कूल स्तर पर खेलों को बढ़ावा देना होगा लेकिन वह इसे अमल में लाने का इरादा नहीं रखती। स्कूली स्तर पर कुछ प्रतियोगिताएं जरूर आयोजित होती हैं लेकिन इसमें भाग लेने वाले ज्यादातर प्रतिभागी कोई ट्रेनिंग लेकर नहीं आते हैं। स्कूलों में खेल-कूद की सुविधाओं के विकास के लिए कुछ पैसे भी आवंटित किए जाते हैं लेकिन ये पैसे भी मैदान में पहुंचने के बजाय भोजन बनकर किसी के पेट में पहुंच जाते हैं।
Monday, June 2, 2008
आईपीएल के बाद कुछ फुटबाल-शुटबाल हो जाए
नई दिल्ली। करीब डेढ़ महीने तक इंडियन प्रीमियर लीग के धूम धड़ाके का मजा लेने के बाद अगर आप खुद को खाली-खाली सा महसूस कर रहे हैं तो निराश होने की जरूरत नहीं है। 7 जून से 29 जून तक आस्ट्रिया और स्विट्जरलैंड में यूरोप की शीर्ष 16 टीमें फुटबाल के अर्धकुंभ यूरो कप में जोर आजमाइश के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। यूं तो यहां आपको चौके, छक्के और विकेट का रोमांच नहीं मिलेगा लेकिन इस बात की गारंटी दी जा सकती है कि यहां भी खेल प्रेमियों के लिए मनोरंजन की कोई कमी नहीं होगी।
दो देशों की संयुक्त मेजबानी में होने वाले इस टूर्नामेंट में आठ स्टेडियमों में कुल 31 मैच खेले जाएंगे और 29 जून को आस्ट्रिया की राजधानी वियाना के अर्नस्ट हप्पेल स्टेडियम में खेले जाने वाले फाइनल मुकाबले के बाद यूरो 2008 का विजेता सामने आएगा। रोमांच और उलटफेर के हिसाब से आंके तो यूरो कप किसी भी मायने में फीफा विश्व कप से उन्नीस नहीं ठहरता। पुर्तगाल में हुए पिछला यूरो कप इस बात का साक्षी है जहां अंडर डॉग माना जाने वाला ग्रीस तमाम कयासों से विपरीत कई दिग्गज टीमों को धूल चटाते हुए यूरोप का सिरमौर बना था।
हालांकि इस बार यूरो कप में इंग्लैंड के न भाग लेने से कुछ सूनापन जरूर रहेगा। जर्मनी में हुए पिछले विश्व कप के बाद कई बदलावों से गुजर रही इंग्लैंड की टीम इस प्रतिष्ठित टूर्नामेंट के लिए क्वालीफाई नहीं कर सकी। किसी बड़े फुटबाल टूर्नामेंट में इंग्लैंड का न खेलना कुछ वैसा ही है जैसा किसी बड़े क्रिकेट टूर्नामेंट में भारत का न खेलना। खैर, इसके बावजूद मौजूदा विश्व चैंपियन इटली, उप विजेता फ्रांस, मौजूदा यूरो चौंपियन ग्रीस, पुर्तगाल, क्रोएशिया और चेक रिपब्लिक जैसी टीमें अपने शानदार खेल से लोगों का मनोरंजन करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी।
यूरो कप 2008 के लिए क्वालीफाई करने वाली टीमें में आस्ट्रिया, स्विटजरलैंड (मेजबान टीम होने के नाते), पोलैंड, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, ग्रीस, तुर्की, चेक रिपब्लिक, जर्मनी, क्रोएशिया, रूस, स्पेन, स्वीडन, रोमानिया और हालैंड हैं। इन टीमों को चार ग्रुप में बांटा गया है। ग्रुप ए में स्विट्जरलैंड, चेक रिपब्लिक, पुर्तगाल, और तुर्की है, ग्रुप बी में आस्ट्रिया, क्रोएशिया, जर्मनी व पोलैंड हैं, ग्रुप सी में हालैंड, इटली, फ्रांस और रोमानिया की टीमें हैं जबकि ग्रुप डी में ग्रीस, स्वीडन, स्पेन और रूस को रखा गया है।
शुरुआती मुकाबले राउंड रोबिन लीग के तहत खेले जाएंगे और हर ग्रुप से शीर्ष दो टीमें क्वार्टर फाइनल में पहुंचेंगी। टीमों की क्षमता के हिसाब से ग्रुप सी को ग्रुप को डेथ कहा जा सकता है जहां पहले दो स्थानों के लिए फ्रांस, इटली और हालैंड में मुख्य मुकाबला होगा। क्वालीफाइंग मैचों में रोमानिया के प्रदर्शन के ध्यान में रखते हुए उसकी संभावनाओं को भी खारिज नहीं किया जा सकता है।
यूं तो सभी 16 टीमें खिताब जीतने की क्षमता रखती है लेकिन हालिया फार्म के आधार पर इटली, फ्रांस, पुर्तगाल, क्रोएशिया, हालैंड और ग्रीस को मुख्य दावेदार माना जा रहा है। लेकिन क्रिकेट की ही तरह फुटबाल भी घोर अनिश्चितताओं का खेल है और कौन सी टीम बाजी मार जाए कहना मुश्किल है और अनिश्चितता का यही पुट इस खेल को इतना लोकप्रिय बनाता है। तो फिर आप भी तैयार हो जाइए यूरो 2008 का मजा लेने के लिए आखिर इसके मैच भी आईपीएल मैचों की तरह तीन घंटे के भीतर समाप्त हो जाएंगे फर्क सिर्फ इतना होगा कि चौके-छक्के की जगह गोल मिलेंगे और नो बॉल, वाइड बॉल की जगह रेड कार्ड, यलो कार्ड और फ्री किक के नजारे सामने आएंगे।
Friday, May 30, 2008
क्रिकेट के फुटबालीकरण के लिए तैयार हैं आप
आप इसे अच्छी खबर माने या बुरी खबर लेकिन अब क्रिकेट को फुटबाल के अंतरराष्ट्रीय सांचे में ढालने की पुरजोर तैयारी हो रही है। इसकी शुरुआत आईपीएल से हुई है और अब ज्यादातर देशों के क्रिकेट बोर्ड अपने यहां अपनी तरह का आईपीएल लाने की जुगत में हैं।
यूं तो इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और पाकिस्तान में घरेलू ट्वंटी 20 टूर्नामेंट का आयोजन पहले से हो रहा है लेकिन ये देश आईपीएल की तर्ज पर ज्यादा लोकप्रिय और कमाऊ ट्वंटी 20 लीग शुरू करना चाहते हैं। मुमकिन है कि इन देशों के बोर्ड भी बीसीसीआई की तर्ज पर फ्रेंचाइजी सिस्टम को तरजीह दें और बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय खिलाडि़यों की खरीद बिक्री करे। इन देशों के लिए आईपीएल की नकल करने के पीछे दो मुख्य कारण हैं। पहला ये कि इन जगहों पर क्रिकेट का पारंपरिक स्वरूप (टेस्ट व वनडे क्रिकेट) तेजी से लोकप्रियता खोता जा रहा है और दूसरा कारण यह है कि भारत और पाकिस्तान को छोड़कर ज्यादातर देशों में फुटबाल की लोकप्रियता क्रिकेट को नुकसान पहुंचा रही है।
लोकप्रियता के हिसाब से इंग्लैंड में तो फुटबाल पहले ही नंबर वन खेल है। पिछले फुटबाल विश्व कप में आस्ट्रेलिया के क्वालीफाई करने की वजह से इस कंगारू देश में फुटबाल तेजी से पैर पसार रहा है। अगला फुटबाल विश्व कप दक्षिण अफ्रीका में होने जा रहा है और यह वहां भी अपने लिए नए प्रशंसक बना रहा है। वैसे रग्बी दक्षिण का सबसे लोकप्रिय खेल है और उसके बाद क्रिकेट का नंबर आता है लेकिन वहां फुटबाल की बढ़ती लोकप्रियता का यह आलम है इससे रग्बी को भी खतरा महसूस होने लगा है।
बीसीसीआई भी इन देशों को आईपीएल की तरह का टूर्नामेंट लाने में पूरी मदद करने को तैयार है। आईपीएल के गठन में मुख्य भूमिका निभाने वाले पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन (पीसीए) के अध्यक्ष आईएस बिंद्रा कहते हैं यह क्रिकेट का वृहद स्वरूप होगा। तब सभी देशों में इंग्लिश प्रीमियर लीग फुटबाल की तर्ज पर ट्ंवटी 20 क्रिकेट लीग होगा और हम यूएफा चैंपियंस लीग की तरह क्रिकेट का चैंपियंस लीग शुरू कर सकेंगे।
बिंद्रा की ये बातें साफ इशारा करती हैं कि किस कदर क्रिकेट को फुटबाल के सांचे में ढालने की कोशिश की जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो इसकी मार निश्चित रूप से सबसे ज्यादा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट पर पड़ेगी। अगर हम ध्यान दें तो आज अंतरराष्ट्रीय फुटबाल खिलाड़ी अपना ज्यादातर वक्त अपने देश की टीम के बजाय अपने क्लब को देता है। इस साल यूरोपीयन फुटबाल में तहलका मचाने वाले क्रिस्टियानो रोनाल्डो का उदाहरण हमारे सामने है। ज्यादातर फुटबाल प्रशंसक उन्हें मैनचेस्टर यूनाईटेड के स्ट्राइकर के तौर जानता है न कि पुर्तगाल के मिडफील्डर के रूप में।
खैर फुटबाल की अंतरराष्ट्रीय संस्था फीफा ने इस व्यवस्था जानबूझकर अपनाया है क्योंकि फुटबाल में भाग लेने वाले प्रतिस्पर्धी देशों की संख्या काफी अधिक है और ऐसे में हर देशों के बीच दो पक्षीय मुकाबले का नियमित आयोजन करवा पाना मुमकिन नहीं है। साथ ही फीफा फुटबाल विश्व कप का चार्म बचाए रखने के लिए दो देशों के बीच ज्यादा आपसी मुकाबले होने भी नहीं देना चाहता है। इसी प्रयास के तह फीफा ओलंपिक की फुटबाल में स्पर्धा भाग लेने के लिए खिलाडि़यों की उम्र सीमा 23 वर्ष निर्धारित कर रखी है ताकि यह विश्व कप फुटबाल की बराबरी न कर सके।
अब यह गौर करने वाली बात है कि जब क्रिकेट के पास फुटबाल जैसे हालात नहीं हैं तो क्यों क्रिकेट के कर्ताधर्ता फुटबाल का अंधा अनुसरण करने की कोशिश में लगे हैं। क्या इससे वाकई क्रिकेट को फायदा होगा। क्रिकेट को हो न हो सभी देशों के क्रिकेट बोर्ड को जरूर होगा। ट्वंटी 20 लीग बुरा नहीं है लेकिन इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाए कि इसका विकास टेस्ट व वनडे क्रिकेट की कीमत पर न हो।
यूं तो इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और पाकिस्तान में घरेलू ट्वंटी 20 टूर्नामेंट का आयोजन पहले से हो रहा है लेकिन ये देश आईपीएल की तर्ज पर ज्यादा लोकप्रिय और कमाऊ ट्वंटी 20 लीग शुरू करना चाहते हैं। मुमकिन है कि इन देशों के बोर्ड भी बीसीसीआई की तर्ज पर फ्रेंचाइजी सिस्टम को तरजीह दें और बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय खिलाडि़यों की खरीद बिक्री करे। इन देशों के लिए आईपीएल की नकल करने के पीछे दो मुख्य कारण हैं। पहला ये कि इन जगहों पर क्रिकेट का पारंपरिक स्वरूप (टेस्ट व वनडे क्रिकेट) तेजी से लोकप्रियता खोता जा रहा है और दूसरा कारण यह है कि भारत और पाकिस्तान को छोड़कर ज्यादातर देशों में फुटबाल की लोकप्रियता क्रिकेट को नुकसान पहुंचा रही है।
लोकप्रियता के हिसाब से इंग्लैंड में तो फुटबाल पहले ही नंबर वन खेल है। पिछले फुटबाल विश्व कप में आस्ट्रेलिया के क्वालीफाई करने की वजह से इस कंगारू देश में फुटबाल तेजी से पैर पसार रहा है। अगला फुटबाल विश्व कप दक्षिण अफ्रीका में होने जा रहा है और यह वहां भी अपने लिए नए प्रशंसक बना रहा है। वैसे रग्बी दक्षिण का सबसे लोकप्रिय खेल है और उसके बाद क्रिकेट का नंबर आता है लेकिन वहां फुटबाल की बढ़ती लोकप्रियता का यह आलम है इससे रग्बी को भी खतरा महसूस होने लगा है।
बीसीसीआई भी इन देशों को आईपीएल की तरह का टूर्नामेंट लाने में पूरी मदद करने को तैयार है। आईपीएल के गठन में मुख्य भूमिका निभाने वाले पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन (पीसीए) के अध्यक्ष आईएस बिंद्रा कहते हैं यह क्रिकेट का वृहद स्वरूप होगा। तब सभी देशों में इंग्लिश प्रीमियर लीग फुटबाल की तर्ज पर ट्ंवटी 20 क्रिकेट लीग होगा और हम यूएफा चैंपियंस लीग की तरह क्रिकेट का चैंपियंस लीग शुरू कर सकेंगे।
बिंद्रा की ये बातें साफ इशारा करती हैं कि किस कदर क्रिकेट को फुटबाल के सांचे में ढालने की कोशिश की जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो इसकी मार निश्चित रूप से सबसे ज्यादा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट पर पड़ेगी। अगर हम ध्यान दें तो आज अंतरराष्ट्रीय फुटबाल खिलाड़ी अपना ज्यादातर वक्त अपने देश की टीम के बजाय अपने क्लब को देता है। इस साल यूरोपीयन फुटबाल में तहलका मचाने वाले क्रिस्टियानो रोनाल्डो का उदाहरण हमारे सामने है। ज्यादातर फुटबाल प्रशंसक उन्हें मैनचेस्टर यूनाईटेड के स्ट्राइकर के तौर जानता है न कि पुर्तगाल के मिडफील्डर के रूप में।
खैर फुटबाल की अंतरराष्ट्रीय संस्था फीफा ने इस व्यवस्था जानबूझकर अपनाया है क्योंकि फुटबाल में भाग लेने वाले प्रतिस्पर्धी देशों की संख्या काफी अधिक है और ऐसे में हर देशों के बीच दो पक्षीय मुकाबले का नियमित आयोजन करवा पाना मुमकिन नहीं है। साथ ही फीफा फुटबाल विश्व कप का चार्म बचाए रखने के लिए दो देशों के बीच ज्यादा आपसी मुकाबले होने भी नहीं देना चाहता है। इसी प्रयास के तह फीफा ओलंपिक की फुटबाल में स्पर्धा भाग लेने के लिए खिलाडि़यों की उम्र सीमा 23 वर्ष निर्धारित कर रखी है ताकि यह विश्व कप फुटबाल की बराबरी न कर सके।
अब यह गौर करने वाली बात है कि जब क्रिकेट के पास फुटबाल जैसे हालात नहीं हैं तो क्यों क्रिकेट के कर्ताधर्ता फुटबाल का अंधा अनुसरण करने की कोशिश में लगे हैं। क्या इससे वाकई क्रिकेट को फायदा होगा। क्रिकेट को हो न हो सभी देशों के क्रिकेट बोर्ड को जरूर होगा। ट्वंटी 20 लीग बुरा नहीं है लेकिन इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाए कि इसका विकास टेस्ट व वनडे क्रिकेट की कीमत पर न हो।
Tuesday, May 27, 2008
क्या भारतीय त्रिमूर्ति को आईपीएल से फायदा हुआ?
इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) का पहला सत्र अब समाप्त होने के कगार पर है। यह टूर्नामेंट क्रिकेट जगत में एक अभूतपूर्व क्रांति की तरह घटित हुआ। इसने साबित कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय मैचों के इतर होने वाले मुकाबले को भी दर्शक मिल सकते हैं और अच्छे क्रिकेटर सिर्फ वही नहीं होते जिनको राष्ट्रीय टीम में खेलने का मौका मिलता है। विभिन्न देशों के कई युवा व बुजुर्ग खिलाडि़यों ने शानदार खेल दिखाया लेकिन क्या इससे भारतीय त्रिमूर्ति सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़ और सौरव गांगुली को कोई फायदा पहुंचा।
इन तीनों क्रिकेटरों ने पिछले वर्ष दक्षिण अफ्रीका में हुए ट्वंटी 20 विश्व कप में खेलने से यह कहकर इनकार कर दिया था कि क्रिकेट का यह प्रारूप युवाओं के ज्यादा अनुकूल है। अब सवाल यह उठता कि जब ये तीनों 15 दिनों तक चलने वाले उस टूर्नामेंट में खेलने का साहस नहीं जुटा पाए थे तो क्या सोचकर उन्होंने 59 दिनों तक चलने वाले आईपीएल में खेलने का फैसला किया। आईपीएल में इनके प्रदर्शन से यह बात तो साबित हो ही गई ट्वंटी 20 विश्व कप में न खेलने का इनका फैसला एकदम सही था। जरा सोचिए कि अगर उस विश्व कप में गौतम गंभीर की जगह सौरव गांगुली, रोबिन उथप्पा की जगह राहुल द्रविड़ और रोहित शर्मा की जगह सचिन तेंदुलकर खेलते तो क्या भारत विजेता बनता। तब क्या भारत को महेंद्र सिंह धोनी जैसा कप्तान मिलता। शायद नहीं।
सचिन तेंदुलकर चोट के कारण मुंबई इंडियंस के शुरुआती सात मैचों में नहीं खेल पाए थे। उन्होंने जो छह मैच खेले उसमें एक अर्धशतक के साथ कुल जमा 148 रन बना पाए। यही नहीं इन मैचों में खेलने की वजह से उनकी चोट फिर से उभर गई है और वह बांग्लादेश में होने वाली त्रिकोणीय सीरीज में नहीं खेलेंगे। अब बात राहुल द्रविड़ की करें तो टीम इंडिया की इस दीवार ने 13 मैचों में 30 की औसत से और 127.65 के स्ट्राइक रेट के साथ 360 रन बनाए हैं। वहीं प्रिंस ऑफ कोलकाता ने इतने ही मैचों में 29.08 की औसत और 113.68 के स्ट्राइक रेट के साथ 349 रन बटोरे। एक नजर में तो गांगुली और द्रविड़ का प्रदर्शन अच्छा प्रतीत होता है लेकिन इन दोनों बल्लेबाजों ने इसमें से करीब 100-125 रन तब बनाए जब उनकी टीमों का आईपीएल से पत्ता कट चुका था।
गांगुली कहते हैं कि आईपीएल के प्रदर्शन पर चयनकर्ताओं को गौर करना चाहिए। चयनकर्ता जरूर इन प्रदर्शनों पर गौर करेंगे लेकिन इसमें भी उनके सामने गांगुली और द्रविड़ से पहले गौतम गंभीर (13 मैच, 523 रन, 43.58 औसत ), रोहित शर्मा (13 मैच 404 रन 36.72 औसत) और वीरेंद्र सहवाग (13 मैच 403 रन 36.63 औसत) के नाम आएंगे। महेंद्र सिंह धोनी, शिखर धवन, रोबिन उथप्पा, यूसुफ पठान, सुरेश रैना, स्वप्निल असनोदकर, अभिषेक नायर भी गांगुली और द्रविड़ से ज्यादा पीछे नहीं हैं और इन सभी बल्लेबाजों ने इन दोनों धुरंधरों की तुलना में बेहतर स्ट्राइक रेट के साथ रन बटोरे हैं। यह कहने की बिल्कुल जरूरत नहीं है कि क्षेत्ररक्षण के मामले में गांगुली-द्रविड़-सचिन बेहतर हैं या ये युवा क्रिकेटर।
सचिन भले ही टेस्ट मैचों में शेन वार्न को आगे निकलकर छक्के जड़ते थे लेकिन आईपीएल में उसी वार्न के आगे वह बंधे हुए नजर आए। गांगुली और द्रविड़ ने एक दो पारियां तेज जरूर खेली लेकिन उनकी यह तेजी ट्वंटी 20 के माफिक नहीं लगती। कुल मिलाकर सार यही निकलता है यह भारतीय त्रिमूर्ति भले ही टेस्ट और वनडे के शानदार खिलाड़ी रहे हों लेकिन ट्वंटी 20 उनके लायक नहीं है और टूर्नामेंट खत्म होने के बाद उन्हें यह जरूर सोचना चाहिए कि क्या आईपीएल में खेलकर उन्हें कोई फायदा हुआ (मैं आर्थिक लाभ की बात नहीं कर रहा हूं)।
हमारे तेज गेंदबाज औसत बनकर क्यों रह जाते हैं
जवागल श्रीनाथ, वेंकटेश प्रसाद, अमय कुरविला, जहीर खान, आशीष नेहरा, इरफान पठान, एल बालाजी, रुद्र प्रताप सिंह, ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने कपिल देव के संन्यास लेने के बाद कभी न कभी भारतीय तेज गेंदबाजी की कमान संभाली है।
इनमें से लगभग सभी ने अपने अंतरराष्ट्रीय कैरियर की अच्छी शुरुआत की और कुछ मैचों में अपने दम पर भारत को जीत भी दिलाई लेकिन सवाल यह है क्या हमारे ये तेज गेंदबाजों विश्व के अपने समकालीन महान तेज गेंदबाजों की श्रेणी में आते हैं। जब श्रीनाथ और प्रसाद का दौर था तब ग्लेन मैक्ग्रा, वसीम अकरम, एलन डोनाल्ड, शॉन पोलाक, वकार यूनुस और चामिंडा वास जैसे गेंदबाजों ने अपनी चमक बिखेरी। इनके आगे श्रीनाथ और वेंकटेश औसत ही नजर आए।
श्रीनाथ और वेंकटेश के बाद जहीर युग की शुरुआत हुई लेकिन वह भी ऊपर लिखे कुछ नामों की ख्याति के आगे दब से गए। फिर आशीष नेहरा, एल बालाजी, इरफान पठान और रुद्र प्रताप सिंह जैसे गेंदबाजों ने कमान संभाली है लेकिन लगता है कि आस्ट्रेलिया के ब्रेट ली और स्टुअर्ट क्लार्क, दक्षिण अफ्रीका के डेल स्टेन और इंग्लैंड के रेयान साइडबाटम इनके युग के सर्वश्रेष्ठ तेज गेंदबाज कहलाएंगे।
ऐसी क्या वजह है कि भारतीय तेज गेंदबाज अच्छी शुरुआत को कायम नहीं रख पाते हैं। जहां विश्व के अन्य तेज गेंदबाज औसत शुरुआत के बाद अपनी क्षमता में लगातार इजाफा करते रहते हैं वहीं हमारा कोई तेज गेंदबाज समय के साथ स्विंग खो देता है तो कोई रफ्तार। कुछ ऐसे भी हैं जिनमें न तो स्विंग बचती है और न ही रफ्तार। उदाहरण के तौर पर ब्रेट ली और जहीर खान के कैरियर की प्रगति का अवलोकन करें तो स्थिति साफ हो जाती है। दोनों ही तेज गेंदबाजों ने वर्ष 2000 में अपने-अपने कैरियर की शुरुआत की थी। ली के पास सिर्फ तेजी थी जबकि जहीर के पास अच्छी तेजी के साथ-साथ, दोनों ओर स्विंग कराने की क्षमता और एक अच्छा यार्कर भी था। अब देखिए ब्रेट ली के पास क्या-क्या है और जहीर के पास क्या बचा है। तूफानी रफ्तार के साथ इन स्विंग, आउट स्विंग, स्लोवर, कटर और योर्कर जैसे हथियारों के साथ ली फिलहाल दुनिया के श्रेष्ठ गेंदबाज हैं तो जहीर एक औसत गेंदबाज से ज्यादा कुछ नहीं।
बालाजी और नेहरा तो अपना फिटनेस ही कायम नहीं रख सके तो इरफान पठान की स्विंग और रफ्तार कहां गायब हुई यह उन्हें भी नहीं मालूम। पठान आज भी विकेट ले रहे हैं लेकिन उस तेजी के साथ नहीं जिसके लिए वह जाने जाते थे। अपनी बनाना इन स्विंग के लिए मशहूर पठान आज वनडे और ट्वंटी 20 में जरूर सफल हो रहे हैं लेकिन टेस्ट टीम में जगह बनाने के लिए उन्हें अपनी बल्लेबाजी का सहारा लेना पड़ता है। एक अन्य तेज गेंदबाज रुद्र प्रताप सिंह ने हालांकि अब तक खुद में सुधार ही किया है लेकिन डेल स्टेन और रेयान साइडबाटम तेजी से उन्हें पीछे छोड़ रहे हैं।
हालांकि भारतीय तेज गेंदबाजी एक नाम जरूर ऐसा सामने आया है जिसमें अपने समकालीन गेंदबाजों को पीछे छोड़ने की क्षमता है। वह तेज गेंदबाज हैं दिल्ली के ईशांत शर्मा। यह 19 साल का गेंदबाज बांग्लादेश में अपने कैरियर की शुरुआत से लेकर अब तक लंबा सफर तय चुका है। आस्ट्रेलिया में अपनी धारदार गेंदबाजी से उन्होंने सभी को प्रभावित किया है लेकिन अगर उन्हें औसत की राह छोड़कर महानता का रास्ता अख्तियार करना है तो खुद को हमेशा अपडेट करते रहना होगा और भारत के पिछले कई तेज गेंदबाजों की तुलना में आत्ममुग्धता से बचना होगा।
Thursday, May 22, 2008
थप्पड़ ने दिया सडेन डेथ
ऐसा नहीं है कि खेल के मैदान में थप्पड़ सिर्फ आईपीएल में चले और थप्पड़ जड़ने वाला शख्स हमेशा हरभजन सिंह ही हो। बुधवार रात को एक थप्पड़ फुटबाल के मैदान में भी चला और वह भी किसी मामूली मैच में नहीं बल्कि मास्को में हुए यूएफा चैंपियंस लीग के फाइनल में चला।
मुकाबला इंग्लैंड के दो मशहूर क्लबों मैनचेस्टर यूनाईटेड और चेल्सी के बीच था। मैच निर्धारित समय में 1-1 की बराबरी पर रहा था और खेल 30 मिनट के अतिरिक्त समय में चल रहा था। जब यह तय लगने लगा था कि फैसले के लिए पेनाल्टी शूट आउट का सहारा लेना ही पड़ेगा तभी चेल्सी के स्टार मिडफील्डर और पेनाल्टी स्पेशलिस्ट डाइडिएर ड्रोगबा ने थ्रो इन मसले पर हुए मामूली विवाद पर यूनाइटेड के खिलाड़ी मार्क विदिच को थप्पड़ जड़ दिया। उन्हें रेड कार्ड दिखाया गया और वह मैच से बाहर हो गए।
पेनाल्टी शूट आउट में चेल्सी को ड्रोगबा को भारी कमी खली और वह सडेन डेथ तक खिंचे इस मैच में 5-6 से पराजित हो गया और कभी राजनीतिक कारणों से लाल रहने वाला मास्को बुधवार की इस रात को मैनचेस्टर यूनाईटेड के लाल रंग में सराबोर हो गया। यूनाईटेड के सभी खिलाड़ी जश्न में डूब गए तो चेल्सी के मुर्झाए चेहरे यही सोच रहे होंगे ड्रोगबा तूने क्या किया क्योंकि ड्रोगबा की अनुपस्थिति में चेल्सी के कप्तान जॉन टैरी को पेनाल्टी लेने के लिए आना पड़ा और वह अपना शॉट गोल पोस्ट के बाहर खेल बैठे। अगर वह यह गोल कर जाते तो यह मैच चेल्सी की झोली में चला जाता लेकिन वह चूक गए और यूनाईटेड को बराबरी मिल गई। इसके बाद यूनाईडेट के गोलकीपर वान डेर सार ने सडेन डेथ में एक और पेनाल्टी रोक कर अपनी टीम को ऐतिहासिक जीत दिला दी।
ड्रोगबा की गलती कुछ-कुछ जर्मनी में हुए पिछले विश्व कप फुटबाल फाइनल की याद दिला गई। तब फ्रांस और इटली के बीच हुए मुकाबले में फ्रांस के धुरंधर जिनेदिन जिदान के इटली के मार्को मेतराजी के सीने पर हेडर दे मारा जिससे उन्हें रेड कार्ड देखना पड़ा और वह मैच से बाहर हो गए। इसका खामियाजा फ्रांस को पेनाल्टी शूट आउट में भुगतना पड़ा और इटली विश्व चैंपियन बना गया।
यह आलेख मैंने अपने संस्थान की वेबसाइट जागरण. काम के लिए लिखा है जिसे अपने ब्लॉग पर भी चस्पा कर दिया है। इसे जागरण.काम पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
मुकाबला इंग्लैंड के दो मशहूर क्लबों मैनचेस्टर यूनाईटेड और चेल्सी के बीच था। मैच निर्धारित समय में 1-1 की बराबरी पर रहा था और खेल 30 मिनट के अतिरिक्त समय में चल रहा था। जब यह तय लगने लगा था कि फैसले के लिए पेनाल्टी शूट आउट का सहारा लेना ही पड़ेगा तभी चेल्सी के स्टार मिडफील्डर और पेनाल्टी स्पेशलिस्ट डाइडिएर ड्रोगबा ने थ्रो इन मसले पर हुए मामूली विवाद पर यूनाइटेड के खिलाड़ी मार्क विदिच को थप्पड़ जड़ दिया। उन्हें रेड कार्ड दिखाया गया और वह मैच से बाहर हो गए।
पेनाल्टी शूट आउट में चेल्सी को ड्रोगबा को भारी कमी खली और वह सडेन डेथ तक खिंचे इस मैच में 5-6 से पराजित हो गया और कभी राजनीतिक कारणों से लाल रहने वाला मास्को बुधवार की इस रात को मैनचेस्टर यूनाईटेड के लाल रंग में सराबोर हो गया। यूनाईटेड के सभी खिलाड़ी जश्न में डूब गए तो चेल्सी के मुर्झाए चेहरे यही सोच रहे होंगे ड्रोगबा तूने क्या किया क्योंकि ड्रोगबा की अनुपस्थिति में चेल्सी के कप्तान जॉन टैरी को पेनाल्टी लेने के लिए आना पड़ा और वह अपना शॉट गोल पोस्ट के बाहर खेल बैठे। अगर वह यह गोल कर जाते तो यह मैच चेल्सी की झोली में चला जाता लेकिन वह चूक गए और यूनाईटेड को बराबरी मिल गई। इसके बाद यूनाईडेट के गोलकीपर वान डेर सार ने सडेन डेथ में एक और पेनाल्टी रोक कर अपनी टीम को ऐतिहासिक जीत दिला दी।
ड्रोगबा की गलती कुछ-कुछ जर्मनी में हुए पिछले विश्व कप फुटबाल फाइनल की याद दिला गई। तब फ्रांस और इटली के बीच हुए मुकाबले में फ्रांस के धुरंधर जिनेदिन जिदान के इटली के मार्को मेतराजी के सीने पर हेडर दे मारा जिससे उन्हें रेड कार्ड देखना पड़ा और वह मैच से बाहर हो गए। इसका खामियाजा फ्रांस को पेनाल्टी शूट आउट में भुगतना पड़ा और इटली विश्व चैंपियन बना गया।
यह आलेख मैंने अपने संस्थान की वेबसाइट जागरण. काम के लिए लिखा है जिसे अपने ब्लॉग पर भी चस्पा कर दिया है। इसे जागरण.काम पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
Wednesday, May 21, 2008
शायद पेस से जलते हैं भूपति
बीजिंग ओलंपिक शुरू होने में महज तीन महीने ही बचे हैं और टेनिस खिलाड़ी महेश भूपति ने यह कह कर सभी को चौंका दिया है कि वह लिएंडर पेस के साथ जोड़ी बनाकर इसमें भाग नहीं लेना चाहते हैं।
ओलंपिक में भारत को पदकों के लिए किस कदर तरसना पड़ता है यह बताने की जरूरत नहीं है। 1980 के बाद हमने ओलंपिक स्वर्ण का स्वाद नहीं चखा है। 1984, 1988 और 1992 में तो हमें एक भी पदक नहीं मिला। 1996 के अटलांटा ओलंपिक में लिएंडर ने टेनिस में पुरुष एकल का कांस्य पदक जीतकर 16 साल का सूखा समाप्त किया। इसके बाद सिडनी में कर्नम मल्लेश्वरी ने कांस्य जीता तो 2004 में एथेंस में डबल ट्रैप शूटर राजवर्धन राठौड़ ने चांदी का तमगा जीतकर देश वासियों को खुश होने का मौका दिया।
इस बार भले ही पदकों के लिए कई दावे किए जा रहे हों लेकिन सच्चाई यही है कि बीजिंग में भी हम पदक के लिए कुछ ही नामों पर निर्भर होंगे। इन्हीं चंद नामों में लिएंडर पेस और महेश भूपति भी हैं। एथेंस में इन दोनों की जोड़ी ने सेमीफाइनल तक का सफर तय किया और यह भारत व इनका दुर्भाग्य रहा है कि वे बहुत करीबी अंतर से सेमीफाइनल व कांस्य पदक के लिए हुआ मुकाबला हार गए।
इस बार भूपति यह तर्क दे रहे हैं कि लंबे समय से संवाद न हो पाने और साझा तैयारियों के अभाव के कारण वह पेस के साथ जोड़ी नहीं बनाना चाहते हैं। क्या भूपति बताएंगे कि सिडनी और एथेंस ओलंपिक से पहले क्या उन्होंने पेस के साथ पूरी तैयारी की थी। निश्चित तौर पर उनका जवाब ना होगा। तो भूपति भाई पिछली बार आप बिना किसी खास तैयारी के साथ पेस के साथ मिलकर सेमीफाइनल में पहुंच गए तो इस बार उससे अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं कर सकते।
यह बात समझ में नहीं आती कि क्यों भूपति राष्ट्रीय हित के खातिर ही सही कुछ महीनों के लिए पेस के साथ अपने मतभेदों को क्यों नहीं भूल जाते हैं। यह वही लिएंडर पेस हैं जिन्होंने भूपति को भूपित बनने में मदद की है। भूपति को डेविस कप में अच्छे प्रदर्शन के बाद एटीपी सर्किट में अपना युगल जोड़ीदार बनने की पेशकश लिएंडर ने ही की थी। सभी जानते हैं कि लिएंडर सिंगल्स के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी थे लेकिन उन्होंने इसकी परवाह न करते हुए भूपति के साथ जोड़ी बनाई थी।
लगता है समय के साथ भूपति को पेस से जलन होने लगी। उनके मन में यह बात घर करने लगी कि सारी कामयाबियों का सेहरा पेस के सिर ही बंध जाता है। यह सही है कि पेस-भूपति की साझा कामयाबियों में ज्यादा श्रेय लिएंडर को मिला लेकिन भूपति ने शायद इसके पीछे मौजूद कारण को जानने की कोशिश नहीं की।
लिएंडर उन खिलाडि़यों में हैं जिन्होंने हमेशा तिरंगे की शान के लिए खेला है। एटीपी सर्किट में वह भले ही किसी औने-पौने खिलाड़ी से हार जाते हैं लेकिन डेविस कप, एशियन गेम्स और ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में वह खुद से कई गुना अच्छे खिलाडि़यों को धूल चटा देते हैं। पेस की इसी खूबी ने उन्हें देशवासियों का लाडला बना दिया। भूपति को शायद पेस की यही लोकप्रियता अखर रही है। वह सोचते होंगे कि अगर वह पेस के साथ ओलंपिक पदक जीत जाते हैं तो दुनिया कहेगी कि पेस ने अपने कैरियर में दो बार ओलंपिक पदक जीता है जबकि भूपति ने सिर्फ एक बार।
भूपति युवा खिलाड़ी रोहन बोपन्ना के साथ जोड़ी बनाना चाहते हैं। बोपन्ना ने भले पिछले एक-दो सालों में पाकिस्तान के ऐसाम उल हक कुरैशी के साथ मिलकर दो-चार एटीपी चैलेंजर्स में अच्छा प्रदर्शन किया हो लेकिन अभी वह इतने मंझे हुए खिलाड़ी नहीं बने हैं कि ओलंपिक पदक जीत लें। शायद भूपति इस बात के जुगाड़ में हैं कि किसी भी तरह से पेस को ओलंपिक में दूसरी कामयाबी से रोका जाए लेकिन भला हो भारतीय टेनिस संघ का कि उसने भूपति की मांग को सिरे से ठुकरा दिया है और उन्हें यह निर्देश दिया है उनकी जोड़ी सिर्फ और सिर्फ पेस के साथ ही बनेगी।
ओलंपिक में भारत को पदकों के लिए किस कदर तरसना पड़ता है यह बताने की जरूरत नहीं है। 1980 के बाद हमने ओलंपिक स्वर्ण का स्वाद नहीं चखा है। 1984, 1988 और 1992 में तो हमें एक भी पदक नहीं मिला। 1996 के अटलांटा ओलंपिक में लिएंडर ने टेनिस में पुरुष एकल का कांस्य पदक जीतकर 16 साल का सूखा समाप्त किया। इसके बाद सिडनी में कर्नम मल्लेश्वरी ने कांस्य जीता तो 2004 में एथेंस में डबल ट्रैप शूटर राजवर्धन राठौड़ ने चांदी का तमगा जीतकर देश वासियों को खुश होने का मौका दिया।
इस बार भले ही पदकों के लिए कई दावे किए जा रहे हों लेकिन सच्चाई यही है कि बीजिंग में भी हम पदक के लिए कुछ ही नामों पर निर्भर होंगे। इन्हीं चंद नामों में लिएंडर पेस और महेश भूपति भी हैं। एथेंस में इन दोनों की जोड़ी ने सेमीफाइनल तक का सफर तय किया और यह भारत व इनका दुर्भाग्य रहा है कि वे बहुत करीबी अंतर से सेमीफाइनल व कांस्य पदक के लिए हुआ मुकाबला हार गए।
इस बार भूपति यह तर्क दे रहे हैं कि लंबे समय से संवाद न हो पाने और साझा तैयारियों के अभाव के कारण वह पेस के साथ जोड़ी नहीं बनाना चाहते हैं। क्या भूपति बताएंगे कि सिडनी और एथेंस ओलंपिक से पहले क्या उन्होंने पेस के साथ पूरी तैयारी की थी। निश्चित तौर पर उनका जवाब ना होगा। तो भूपति भाई पिछली बार आप बिना किसी खास तैयारी के साथ पेस के साथ मिलकर सेमीफाइनल में पहुंच गए तो इस बार उससे अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं कर सकते।
यह बात समझ में नहीं आती कि क्यों भूपति राष्ट्रीय हित के खातिर ही सही कुछ महीनों के लिए पेस के साथ अपने मतभेदों को क्यों नहीं भूल जाते हैं। यह वही लिएंडर पेस हैं जिन्होंने भूपति को भूपित बनने में मदद की है। भूपति को डेविस कप में अच्छे प्रदर्शन के बाद एटीपी सर्किट में अपना युगल जोड़ीदार बनने की पेशकश लिएंडर ने ही की थी। सभी जानते हैं कि लिएंडर सिंगल्स के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी थे लेकिन उन्होंने इसकी परवाह न करते हुए भूपति के साथ जोड़ी बनाई थी।
लगता है समय के साथ भूपति को पेस से जलन होने लगी। उनके मन में यह बात घर करने लगी कि सारी कामयाबियों का सेहरा पेस के सिर ही बंध जाता है। यह सही है कि पेस-भूपति की साझा कामयाबियों में ज्यादा श्रेय लिएंडर को मिला लेकिन भूपति ने शायद इसके पीछे मौजूद कारण को जानने की कोशिश नहीं की।
लिएंडर उन खिलाडि़यों में हैं जिन्होंने हमेशा तिरंगे की शान के लिए खेला है। एटीपी सर्किट में वह भले ही किसी औने-पौने खिलाड़ी से हार जाते हैं लेकिन डेविस कप, एशियन गेम्स और ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में वह खुद से कई गुना अच्छे खिलाडि़यों को धूल चटा देते हैं। पेस की इसी खूबी ने उन्हें देशवासियों का लाडला बना दिया। भूपति को शायद पेस की यही लोकप्रियता अखर रही है। वह सोचते होंगे कि अगर वह पेस के साथ ओलंपिक पदक जीत जाते हैं तो दुनिया कहेगी कि पेस ने अपने कैरियर में दो बार ओलंपिक पदक जीता है जबकि भूपति ने सिर्फ एक बार।
भूपति युवा खिलाड़ी रोहन बोपन्ना के साथ जोड़ी बनाना चाहते हैं। बोपन्ना ने भले पिछले एक-दो सालों में पाकिस्तान के ऐसाम उल हक कुरैशी के साथ मिलकर दो-चार एटीपी चैलेंजर्स में अच्छा प्रदर्शन किया हो लेकिन अभी वह इतने मंझे हुए खिलाड़ी नहीं बने हैं कि ओलंपिक पदक जीत लें। शायद भूपति इस बात के जुगाड़ में हैं कि किसी भी तरह से पेस को ओलंपिक में दूसरी कामयाबी से रोका जाए लेकिन भला हो भारतीय टेनिस संघ का कि उसने भूपति की मांग को सिरे से ठुकरा दिया है और उन्हें यह निर्देश दिया है उनकी जोड़ी सिर्फ और सिर्फ पेस के साथ ही बनेगी।
Monday, May 19, 2008
क्रिकेट में रबर, आपने आखिरी बार कब सुना?
कुछ दिनों पहले की बात है, मैं अपने एक बेहद नजदीकी मित्र से क्रिकेट के ऊपर परिचर्चा कर रहा था। इसी दौरान मैंने कहा कि भारत ने तमाम देशों में टेस्ट रबर तो जीत लिए हैं लेकिन आस्ट्रेलिया में उसे यह कामयाबी नहीं मिली है। मेरा मित्र क्रिकेट में रबर शब्द सुनकर चौंक गया। हालांकि मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि मेरे उस मित्र के पास क्रिकेट से जुड़ी जानकारियों का कतई अभाव नहीं है लेकिन उसने इससे पहले क्रिकेट में रबर शब्द नहीं सुना था।
मैंने कुछ और क्रिकेट प्रेमी मित्रों से इस बारे में ताकीद की लेकिन ज्यादातर इस शब्द से अनभिज्ञ थे। इससे पहले कि इस शब्द के बारे में लोगों की अनभिज्ञता की बात करूं पहले यह बताता चलूं कि क्रिकेट में रबर क्या है (हो सकता है आपको इसका अर्थ पता हो लेकिन मैं यहां इसका अर्थ उनलोगों के लिए लिख रहा हूं जो अभी भी इससे नावाकिफ हैं)।
रबर का आशय किसी द्विपक्षीय टेस्ट सीरीज के नतीजे से है। अगर भारत-इंग्लैंड के बीच तीन टेस्ट मैचों की सीरीज हुई और इसे भारत ने जीता तो कहा जाएगा कि यह टेस्ट रबर भारत का हुआ। अगली बार जब भारत और इंग्लैंड किसी टेस्ट सीरीज में खेलने उतरेगी तो इंग्लैंड को रबर अपने कब्जे में लेने के लिए सीरीज को जीतना ही होगा। यह इसे भारत ने जीता या यह सीरीज ड्रा रही तो रबर भारत के पास ही रहेगा। यही बात आस्ट्रेलिया-इंग्लैंड के बीच होने वाली एशेज सीरीज, आस्ट्रेलिया-वेस्टइंडीज के बीच होने वाले फ्रैंक वारेल सीरीज और भारत-आस्ट्रेलिया के बीच होने वाले बार्डर-गावस्कर सीरीज में भी लागू होती है।
मिशाल के तौर पर अपने पिछले आस्ट्रेलिया दौरे पर भारत ने 1-2 से टेस्ट सीरीज गंवाई थी। अगर यह सीरीज 2-2 से बराबर रहती तो भी बार्डर-गावस्कर ट्रॉफी आस्ट्रेलिया के पास ही रहती क्योंकि उसने 2004-05 में भारत में हुई सीरीज में 2-1 से जीत दर्ज की थी।
रबर से ही जुड़ा एक और शब्द है जो टेस्ट सीरीज से ताल्लुक रखता है। वह शब्द है डेड रबर। डेड रबर का आशय उस मैच से होता है जिसके नतीजे का टेस्ट सीरीज के नतीजे पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। मसलन आस्ट्रेलिया के खिलाफ किसी तीन टेस्ट मैचों की सीरीज में भारत पहले दो टेस्ट जीत लेता है तो तीसरा टेस्ट डेड रबर कहलाएगा। मतलब यह कि इस मैच के नतीजे का टेस्ट सीरीज के नतीजे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।
अब इस बात की ओर लौटें कि क्यों रबर जैसे शब्द आज के आधुनिक दौर की क्रिकेट में अपना महत्व खोते जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा दोष आजकल होने वाली क्रिकेट पत्रकारिता खासकर हिंदी पत्रकारिता को जाता है। अंग्रेजी अखबारों में तो आप यदा-कदा इन शब्दों को पढ़ भी लें लेकिन हिंदी में ये खोजने से भी नहीं मिलेंगे (मुमकिन है कि प्रभास जोशी जी के कॉलम में मिल जाए)। इन शब्दों के विलुप्त होने का दूसरा बड़ा कारण वनडे व ट्वंटी 20 क्रिकेट की बहुतायत है जिस कारण टेस्ट क्रिकेट की खूबियों और उससे जुड़े शब्द लोगों के कानों से नहीं गुजरते।
Sunday, May 18, 2008
एक कुत्ते की बदौलत बचा मैनचेस्टर यूनाईटेड
यह शीर्षक अपने आप में कुछ अजीब जरूर लग रहा होगा लेकिन यह सौ फीसदी सच है। आज की तारीख में मैनचेस्टर यूनाईटेड दुनिया का सबसे धनी खेल क्लब (करीब 80 अरब रुपये की कंपनी) है और इसके प्रशंसकों की तादाद करीब 33 करोड़ है जो ब्रिटेन की कुल आबादी का करीब सात गुना है। ऐसे में यह तथ्य तो चौंकाने वाला होगा ही कि इस क्लब को खड़ा करने में एक कुत्ते ने अहम भूमिका निभाई।
वैसे तो इस क्लब की स्थापना 1878 में न्यूटन हीथ एल एंड वाईआर फुलबाल क्लब के नाम पर हुई। 1883 में इसका नाम सिर्फ न्यूटन हीथ फुटबाल क्लब कर दिया गया। लेकिन वर्ष 1902 के आसपास यह क्लब दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया। उस समय इसके ऊपर 2500 पाउंड का कर्ज था। इससे उबरने के लिए क्लब को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था और सभी मान रहे थे कि इस क्लब के अब गिने चुने दिन ही बचे हैं। क्लब के तत्कालीन कप्तान हैरी स्टेफोर्ड ने सेंट बर्नाड नस्ल के अपने प्यारे कुत्ते को नीलाम करने की कोशिश की ताकि क्लब के लिए कुछ पैसे जुटाए जाए। वहां के एक शराब व्यवसायी जॉन हेनरी डेविस ने कुत्ते को खरीदने की इच्छा जताई लेकिन स्टेफोर्ड ने इसके बदले उनसे क्लब में पैसे निवेश करने की शर्त रखी जिसे डेविस ने मान ली।
डेविस को क्लब का चेयरमैन बनाया गया। उन्होंने अपनी पहली बोर्ड मीटिंग में यह प्रस्ताव रखा कि क्लब को नया रूप देने के लिए इसका नाम बदला जाए। पहले मैनचेस्टर सेंट्रल और मैनचेस्टर सेल्टिक जैसे नामों पर विचार किया गया। तभी इतालवी मूल के एक युवा लूईस रोक्का ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न इसका नाम मैनचेस्टर यूनाईटेड रखा जाए। यह प्रस्ताव सभी को भाया और तब से यह क्लब मैनचेस्टर यूनाईटेड हो गया। डेविस ने फिर क्लब की जर्सी का रंग बदला। पहले इसकी जर्स का रंग हरा और सुनहरा था जिसे बदलकर लाल और सफेद कर दिया गया जो आज भी कायम है।
उसके बाद मैनचेस्टर यूनाईटेड ने सफलता की जो इबारत लिखी वह आज सबके सामने है।
उन्होंने इस बार भी इंग्लिश प्रीमियर लीग का खिताब जीता है। अपने इतिहास में यूनाईटेड यह कारनामा 17 बार कर चुका है (लीवरपूल ने 18 बार यह खिताब अपने नाम किया है)। 1968 में मैनचेस्टर यूनाईटेड यूरोपियन कप जीतने वाला इंग्लैंड का पहला क्लब बना। क्लब स्तर की दुनिया की सबसे पुरानी फुटबाल प्रतियोगिता एफ ए कप के विजेता के तौर पर यूनाईटेड ने रिकार्ड 11 बार अपना नाम दर्ज कराया है। 1990 के दशक में यह दुनिया का सबसे धनी फुटबाल क्लब बना और आज की तारीख में वह किसी भी खेल में दुनिया का सबसे धनी क्लब है।
1992 में इंग्लिश प्रीमियर लीग शुरू होने के बाद से यूनाईटेड का प्रदर्शन और भी प्रभावशाली रहा। इसके मैनेजर सर एलेक्स फगुर्सन दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित और कामयाब मैनेजर में गिने जाते हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल में इस क्लब को 10 बार इंग्लिश प्रीमियर लीग का चैंपियन बनाया।
हालांकि इस क्लब को कामयाबी के साथ-साथ एक बेहद दुखद हादसे से भी रूबरू होना पड़ा। 6 फरवरी 1958 को यूरोपियन कप के एक मैच में भाग लेने के लिए खिलाडि़यों को ले जा रहा हवाई जहाज म्यूनिख में दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें यूनाईटेड के आठ खिलाडि़यों ज्योफ बेंट, रोजर बायर्ने, एडी कोलमैन, डंकन एडवर्ड्स, मार्क जोंस, डेविड पेग, टॉमी टेलर और लियाम बिली व्हेलान को अपनी जान गंवानी पड़ी। इंधन लेने के बाद विमान के टेक ऑफ में परेशानी आने लगी थी। पायलटों ने दो बार टेक ऑफ का असफल प्रयास किया और जब उन्होंने तीसरा प्रयास किया तब यह दर्दनाक दुर्घटना घटी।
इस दुर्घटना ने यूनाईटेड को झकझोरा जरूर लेकिन उसके जज्बे को तोड़ नहीं सका। उसी सत्र में यूनाईटेड की टीम एफ ए कप के फाइनल में पहुंची। बुरे दौर में हौसला न हारने का यही जज्बा शायद वह सबसे बड़ा कारण है जिसने यूनाईटेड को अब तक इतनी अपार कामयाबियां दिलाई है और यही वजह है कि इसके पूरे विश्व में मौजूद 33 करोड़ प्रशंसकों में एक मैं भी हूं।
नोट: आलेख में दिए गए तथ्य विकीपीडिया डॉट ओआरजी और मैनचेस्टर यूनाईटेड की आधिकारिक वेबसाइट से लिए गए हैं।
Thursday, May 8, 2008
आईपीएल प्रीमियर तो है लेकिन लीग नहीं
इसमें कोई शक नहीं है कि इंडियन प्रीमियर लीग क्रिकेट जगत में एक अभूतपूर्व क्रांति की तरह है। इसने दुनिया भर के उम्दा क्रिकेटरों को ज्यादा कमाई का मौका उपलब्ध कराया। इसने इस खेल के प्रशंसकों को भी किसी टीम को अपना समर्थन देने के लिए ऐसा आधार मुहैया कराया जिसमें देश की प्रतिष्ठा दांव पर न लगी हो। इससे जीत पर मजा तो आता है लेकिन हार का वैसा गम नहीं होता जैसा कि किसी अंतरराष्ट्रीय मैच में अपने देश की हार पर होता है। इस टूर्नामेंट ने अभी अपना आधा सफर ही पूरा किया है लेकिन इतने कम समय में ही इसने भारतीय चयनकर्ताओं को भविष्य के लिए आधा दर्जन से ज्यादा उम्दा विकल्प उपलब्ध करवा दिए।
लेकिन ऊपर लिखी तमाम खूबियों के अलावा आईपीएल की कुछ खामियां भी हैं जिसे दूर कर पाना बेहद मुश्किल हो सकता है। ये खामियां ऐसी हैं जो इसके स्पोर्ट्स लीग होने पर ही सवाल उठाती है। इन्हीं में से एक खामी है रेलीगेशन सिस्टम का का न होना। रेलीगेशन सिस्टम किसी भी स्पोर्ट्स लीग की जान होती है। इसके तहत मुख्य लीग में फिसड्डी साबित हुई टीमों को अगले सत्र में दूसरे डिविजन में रेलीगेट कर दिया जाता है और दूसरे डिविजन में शीर्ष पर रही टीम मुख्य टूर्नामेंट में उसका स्थान ले लेती है। यह सिस्टम यूरोप की तमाम फुटबाल लीग, अमेरिकन फुटबाल, बास्केटबाल लीग [एनबीए] यहां तक हमारे देश में खेली जाने वाली रणजी ट्राफी क्रिकेट में भी लागू है।
इसका फायदा यह होता है कि कोई टीम अच्छा प्रदर्शन सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहती है कि वह टूर्नामेंट जीते बल्कि उसे इस बात का भी डर होता है कि कहीं वह दूसरे डिविजन में न खिसक जाए। लेकिन आईपीएल में ऐसा नहीं होगा। मान लीजिए कि अब तक अच्छा प्रदर्शन न कर पाने वाली बेंगलूर रॉयल चैलेंजर्स या हैदराबाद डक्कन चार्जर्स अगले दो-तीन मैच और हारकर सेमीफाइनल में पहुंचने की होड़ से बाहर हो जाती है तो अंतिम के चार-पांच मैचों में कौन सी बात उन्हें अच्छा प्रदर्शन करने पर मजबूर करेगी। अगर रेलीगेशन सिस्टम होता तो इसकी नौबत आने की कोई आशंका नहीं होती और कोई भी टीम सेमीफाइनल की होड़ से बाहर होने के बावजूद अगले साल मुख्य टूर्नामेंट में बचे रहने के लिए अच्छा खेल दिखाती या दिखाने की कोशिश करती।
अब आईपीएल में सकेंड डिविजन है ही नहीं तो रेलीगेशन सिस्टम का सवाल ही नहीं उठता है। अगर कुछ नई टीमों को जोड़कर सकेंड डिविजन बनाने की कोशिश भी की जाए तो मौजूदा फ्रेंचाइजी इसे सफल नहीं होने देंगे क्योंकि उन्होंने भारी कीमत चुकाकर 10-10 सालों के लिए टीम खरीदी है। वह किसी भी सूरत में ऐसी स्थिति नहीं चाहेंगे जिससे उनकी टीम पर मुख्य टूर्नामेंट से बाहर होने का खतरा मंडराए।
रेलीगेशन की तरह ही आईपीएल में एक और बड़ी खामी है। वह है इसके प्रारूप में सेमीफाइनल और फाइनल मैच का प्रावधान। यह ऐसा प्रावधान है जो टीमों को शीर्ष स्थान के लिए नहीं बल्कि किसी तरह अंतिम चार में जगह बनाने के लिए प्रेरित करेगी। दुनियां की किसी भी नामी स्पोर्ट्स लीग का अवलोकन करें तो आप पाएंगे कि वहां सेमीफाइनल और फाइनल का प्रावधान नहीं है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि टीमें लीग मैचों को ही पूरी गंभीरता से ले और हर लीग मैच इस भाव के साथ खेला जाए मानो यही सेमीफाइनल और फाइनल है।
वहां टीमों को यह पता होता है कि अगर टूर्नामेंट जीतना है तो हर हाल में शीर्ष पर आना होगा अंतिम चार में आने से कोई फायदा नहीं। हर तीन या चार साल पर होने वाले मैचों में सेमीफाइनल और फाइनल होना तर्कसंगत है लेकिन हर साल होने वाले आयोजन में इसका प्रावधान लीग मैचों की अहमियत को कम कर सकता है।
इसी तरह आईपीएल में एक ही शहर की दो टीमों के बीच होने वाली भिड़ंत का मजा भी नहीं है। अंतरराष्ट्रीय कैलेंडर व्यस्त होने की वजह से आईपीएल में टीमों की संख्या सिर्फ आठ रखी गई है ताकि कम समय में टूर्नामेंट निबटाया जाए। इससे भारत के ही कई अहम शहरों को इसमें भाग लेने का मौका नहीं मिल पाया तो एक ही शहर की दो टीमों की बात करना ही बेमानी है।
खैर शुरुआत में तो हर आयोजन अधूरा सा दिखता है और समय के साथ इसमें सुधार होता है। हम यही उम्मीद कर हैं कि आईपीएल भी धीरे-धीरे खुद को सुधारेगा और स्पोर्ट्स लीग की जो अंतरराष्ट्रीय मान्यता है उस पर खरा उतरेगा।
Friday, May 2, 2008
आईपीएल की देन
इंडियन प्रीमियर लीग शुरू होने के साथ ही सुर्खियाँ बटोरने लगा है. कभी चीयर गर्ल्स तो कभी हरभजन-श्रीसंथ विवाद चर्चा का विषय बना. इस बीच इस टूर्नामेंट ने कुछ सकारात्मक संकेत भी दिए जिनमे कई नए युवा खिलाड़ियों का गुमनामी के अंधेरे से बाहर निकल कर छा जाना भी शामिल है. आइये जानते हैं कौन हैं ये युवा और क्या है इनकी खासियत.
अभिषेक नायर: मुम्बई इंडियंस के इस हरफनमौला खिलाड़ी ने आखिरी के ओवरों में जिस तरह की बल्लेबाजी की है उससे दक्षिण अफ्रीका के लांस क्लूजनर की याद ताजा हो गई. बैक फ़ुट हो या फ्रंट फ़ुट नायर दोनों ही जगहों से गेंद को सीमा रेखा के पार पहुचाने की कुव्वत रखते हैं. अगली बार जब चयनकर्ता भारत की वन डे या ट्वेन्टी २० टीम चुनने बैठेंगे तो उनके लिए नायर को नजरंदाज कर पाना मुश्किल हो जाएगा.
मनप्रीत गोनी: यह पंजाबी पुत्तर अपनी धारदार गेंदबाजी से चेन्नई सुपर किंग्स के आक्रमण का मुख्य हथियार बन गया है. लाइन लेंथ अच्छी होने के साथ साथ गोनी की रफ्तार भी बल्लेबाजों को चौकाने की क्षमता रखती है.
अशोक दिंदा: जिस गेंदबाज की तारीफ रिक्की पोंटिंग करे तो उसमें कुछ को खास बात होगी. शोएब अख्तर की गैरमौजूदगी दिंदा ने कोलकाता की टीम को आक्रमण में तेजी की कमी नही होने दी. अपनी गेंदों में गजब की उछाल पैदा करने वाले दिंदा अच्छे अच्छे बल्लेबाजों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं.
रविंदर जडेजा: यूं तो इनकी उम्र अभी सिर्फ़ १९ साल है लेकिन अपनी दमदार बल्लेबाजी की बदौलत जडेजा मज़बूत दावेदारी पेश करते नजर आ रहे हैं. मलेशिया में हुए अंडर १९ विश्व कप में भी जडेजा ने अपने खेल से सबका मन मोहा था.
इनके अलावा और भी कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने आईपीएल में अच्छा प्रदर्शन किया है और युवाओ को तरजीह देने वाली राष्ट्रीय चयन समिति के सामने कई और विकल्प उपलब्ध कराये हैं. इनमे यूसुफ पठान, सोलुन्खे, शिखर धवन, पी अमरनाथ जैसे नाम शामिल हैं. अभी तो आईपीएल शुरू ही हुआ है. उम्मीद है कि आने वाले मैचों में कई नए सितारे उभरेंगे और टीम इंडिया के अंदर आने के लिए जोरदार दस्तक देंगे.
अभिषेक नायर: मुम्बई इंडियंस के इस हरफनमौला खिलाड़ी ने आखिरी के ओवरों में जिस तरह की बल्लेबाजी की है उससे दक्षिण अफ्रीका के लांस क्लूजनर की याद ताजा हो गई. बैक फ़ुट हो या फ्रंट फ़ुट नायर दोनों ही जगहों से गेंद को सीमा रेखा के पार पहुचाने की कुव्वत रखते हैं. अगली बार जब चयनकर्ता भारत की वन डे या ट्वेन्टी २० टीम चुनने बैठेंगे तो उनके लिए नायर को नजरंदाज कर पाना मुश्किल हो जाएगा.
मनप्रीत गोनी: यह पंजाबी पुत्तर अपनी धारदार गेंदबाजी से चेन्नई सुपर किंग्स के आक्रमण का मुख्य हथियार बन गया है. लाइन लेंथ अच्छी होने के साथ साथ गोनी की रफ्तार भी बल्लेबाजों को चौकाने की क्षमता रखती है.
अशोक दिंदा: जिस गेंदबाज की तारीफ रिक्की पोंटिंग करे तो उसमें कुछ को खास बात होगी. शोएब अख्तर की गैरमौजूदगी दिंदा ने कोलकाता की टीम को आक्रमण में तेजी की कमी नही होने दी. अपनी गेंदों में गजब की उछाल पैदा करने वाले दिंदा अच्छे अच्छे बल्लेबाजों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं.
रविंदर जडेजा: यूं तो इनकी उम्र अभी सिर्फ़ १९ साल है लेकिन अपनी दमदार बल्लेबाजी की बदौलत जडेजा मज़बूत दावेदारी पेश करते नजर आ रहे हैं. मलेशिया में हुए अंडर १९ विश्व कप में भी जडेजा ने अपने खेल से सबका मन मोहा था.
इनके अलावा और भी कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने आईपीएल में अच्छा प्रदर्शन किया है और युवाओ को तरजीह देने वाली राष्ट्रीय चयन समिति के सामने कई और विकल्प उपलब्ध कराये हैं. इनमे यूसुफ पठान, सोलुन्खे, शिखर धवन, पी अमरनाथ जैसे नाम शामिल हैं. अभी तो आईपीएल शुरू ही हुआ है. उम्मीद है कि आने वाले मैचों में कई नए सितारे उभरेंगे और टीम इंडिया के अंदर आने के लिए जोरदार दस्तक देंगे.
Thursday, May 1, 2008
खेल किसी एक व्यक्ति का मोहताज नही होता
करीब आठ महीने पहले जब रूसी अरबपति रोमन अब्रामोविच ने अपने फुटबाल क्लब चेल्सी के मैनेजर जोस मौरिन्हो को बर्खास्त करने का फैसला लिया था तब पूरी दुनिया के फुटबाल प्रेमियों और विशेषज्ञों ने यही अनुमान लगाया था कि इंग्लैंड के इस क्लब के अच्छे दिन गुजर गए. किसी को नए मैनेजर अव्रम ग्रांट पर भरोसा नही था. मौरिन्हो के जाने के बाद जिस तरह चेल्सी के खेल में गिरावट आई उससे इस बात को और भी बल मिला.
इंग्लिश प्रीमियर लीग के इस सत्र में पहले आर्सेनल और बाद में मेनचेस्टर यूनाईटेड ने अपनी पकड़ मजबूत की. लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में चेल्सी ने चुपके-चुपके अपनी साख हासिल कर ली. इंग्लिश प्रीमियर लीग में अब सिर्फ़ दो दौड़ के मैच बचे हैं और चेल्सी ने मेनचेस्टर यूनाईटेड के बराबर ८१ अंक हासिल कर लिए हैं. हालांकि गोल औसत पर वह अभी भी मेनचेस्टर यूनाईटेड से पीछे है लेकिन इसके बावजूद उसके पास इस प्रतियोगिता के जीतने के काफ़ी अच्छे अवसर हैं.
खैर इंग्लिश प्रीमियर लीग जीत लेने मात्र से अव्रम ग्रांट कोई तीर नही मार लेंगे क्योंकि मौरिन्हो ने अपने कार्यकाल में इस क्लब को लगातार दो बार यह खिताब जितवाया था वह भी करीब ५० साल का सूखा समाप्त करते हुए. लेकिन अव्रम ग्रांट अपनी टीम को यूएफा चैंपियंस लीग के फाइनल में पंहुचा कर जो कारनामा किया वह मौरिन्हो भी नही कर पाए थे. २१ मई को मास्को में चैंपियंस लीग के फाइनल में चेल्सी का मुकाबला मेनचेस्टर से ही होगा और उसकी पूरी कोशिश होगी कि वह इंग्लिश प्रीमियर लीग के साथ-साथ चैंपियंस लीग भी जीत कर दुनिया को यह बता दे कोई संस्था किसी एक व्यक्ति (मौरिन्हो) कि मोहताज नही होती खास कर खेल में तो बिल्कुल नही.
मेरी ओर से अव्रम ग्रांट और चेल्सी को ढेर बधाईयाँ, हालांकि कि मैं मेनचेस्टर यूनाईटेड का प्रशंसक हूँ और इन्ही लाल दानवों को जीतते हुए देखना चाहता हूँ.
Thursday, April 24, 2008
कप्तानी सबके बस की बात नहीं
इंडियन प्रीमियर लीग ने अपनी शुरुआत के बाद महज छह दिनों में ही कई महत्वपूर्ण संकेत दे दिए। पहला तो यह कि क्रिकेट का यह सबसे छोटा और मनोरंजक संस्करण टेस्ट व वनडे की ही तरह अपने लिए लंबी उम्र लेकर आया है। दूसरा और महत्वपूर्ण संकेत यह है अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट न होने के बावजूद यहां दो टीमों के खिलाड़ियों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा और दर्शकों के रोमांच में कोई कमी नहीं आई है। इस प्रतियोगिता में खेलने वाला हर खिलाड़ी अपनी टीम की जीत के लिए पूरा प्रयास करता हुआ नजर आ रहा है। माइक हसी और मैथ्यू हेडन जैसे बल्लेबाज ब्रेट ली और जेम्स होप्स ( जो राष्ट्रीय टीम में उनके साथी हैं) की गेंदों को सीमारेखा के पार पहुंचाने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं तो हरभजन सिंह राहुल द्रविड़ को आउट कर कुछ उतने ही खुश दिख रहे हैं जितना कि वह एंड्रयू सायमंड्स और रिकी पोंटिंग को आउट कर खुश होते थे।
इस टूर्नामेंट ने जो तीसरा संकेत दिया उस और ध्यान देना सबसे जरूरी और रोचक है। इसने इतना तो साबित कर ही दिया कि क्रके्ट किसी भी रूप में क्यों न खेला जाए कुछ बातें कभी नहीं बदलती। सहवाग टेस्ट खेलें, वनडे खेलें या ट्वंटी २० उनका आक्रामक रवैया हमेशा बरकरार रहता है। श्रीसंथ को आप दुनिया के किसी भी मैदान में पटक दें उनकी हरकतें कैमरे को अपनी ओर खींचनें में कामयाब हो ही जाती है। यही बात आईपीएल की आठ टीमों के कप्तानों पर भी लागू होती हैं। यूं तो आईपीएल के इस सत्र में कई मैच खेले जाने बाकी हैं लेकिन अब तक हुए आठ मैचों के आधार पर ही आप यह सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन अच्छा कप्तान है, कौन औसत और कौन फिसड्डी। कहने के लिए तो डेक्कन चार्जर्स की टीम में सबसे ज्यादा विध्वंसक खिलाड़ी शामिल हैं लेकिन घटिया रणनीति ने दोनों मैचों में उनकी लुटिया डुबो दी। वेणुगोपाल राव जो ऊंचे शॉट लगाने की बजाय अपनी पारी को धीरे-धीरे मजबूती प्रदान करते हैं उन्हें वीवीएस लक्ष्मण ने सलामी बल्लेबाज के तौर पर भेजा और जब गिलक्रस्ट आउट हो गए तो खुद वेणुगोपाल के साथ मिलकर टुक-टुक करने क्रीज पर आ गए। कुल जमा १२० गेंदों की पारी में दो बल्लेबाज मिलकर २०-२५ गेंद जाया कर दें तो आप वैसे ही मुकाबले से बाहर हो जाते हैं। लक्ष्मण ने यह गलती तब की जब उनके पास शाहिद अफरीदी जैसा आक्रामक बल्लेबाज मौजूद था।
लक्ष्मण की तरह ही किंग्स इलेवन पंजाब के कप्तान युवराज सिंह भी रणनीति बनाने में जूझते नजर आ रहे हैं। जब विपक्षी बल्लेबाज उनके गेंदबाजों की धज्जियां उड़ाने लगता है तो पंजाब के इस पुत्तर के होश फाख्ता हो जाते हैं। उन्हें यह नहीं सूझता कि किस फील्डर को कहां रखें और किस गेंदबाज को आक्रमण पर लाएं। मुंबई इंडियंस के कार्यवाहक कप्तान हरभजन सिंह भी इस जिम्मेदारी के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं।
वहीं शुरुआती मैचों में सफल कप्तानों की ओर नजर डालें तो सौरव गांगुली और महेंद्र सिंह धोनी ने दिखा दिया क्यों उनकी गिनती भारत के सबसे बेहतरीन कप्तानों में होती है। इन दोनों के अलावा वीरेंद्र सहवाग ने भी अपनी नेतृत्व क्षमता से सबको कायल किया है। इसकी झलक उन्होंने खिलाड़ियों की नीलामी में ही दिखा दी थी। हालांकि उस वक्त वे आस्ट्रेलिया में थे लेकिन उन्होंने वहां से ही अपने फ्रेंचाइजी जीएमआर को अपनी पसंद बता दी थी। नीलामी में जहां सभी टीमों ने एक से एक धाकड़ बल्लेबाजों को अपना हिस्सा बनाने के लिए पैसे खर्चे तो दिल्ली डेयरडेविल्स ने कसी हुई लाइन लेंथ से गेंदबाजी करने वाले दिग्गजों को अपनी टीम में शामिल किया। सहवाग की सफलता इस बात की ओर भी इशारा करती है कि धोनी को भारतीय टीम की कप्तानी के मामले में जिस व्यक्ति से सबसे बड़ा खतरा है वह युवराज नहीं बल्कि नजफगढ़ का सुल्तान सहवाग है।
इस आलेख में दो अन्य कप्तानों का जिक्र करना भी बेहद जरूरी है। ये नाम हैं राहुल द्रविड़ औऱ शेन वार्न। बेंगलोर रॉयल चैलेंजर्स के कप्तान के तौर पर भी द्रविड़ वैसे ही नजर आ रहे हैं जैसा वे भारतीय टीम की कमान संभालते वक्त नजर आते थे, यानी एक औसत कप्तान। जहां तक शेन वार्न का सवाल है तो दो मैचों में एक में जीत और एक में हार के स्कोर लाइन के साथ उन्होंने यह जरूर साबित किया कि भले ही वह बतौर कप्तान सहवाग से कमतर हों लेकिन युवराज से कहीं अच्छे हैं।
इस टूर्नामेंट ने जो तीसरा संकेत दिया उस और ध्यान देना सबसे जरूरी और रोचक है। इसने इतना तो साबित कर ही दिया कि क्रके्ट किसी भी रूप में क्यों न खेला जाए कुछ बातें कभी नहीं बदलती। सहवाग टेस्ट खेलें, वनडे खेलें या ट्वंटी २० उनका आक्रामक रवैया हमेशा बरकरार रहता है। श्रीसंथ को आप दुनिया के किसी भी मैदान में पटक दें उनकी हरकतें कैमरे को अपनी ओर खींचनें में कामयाब हो ही जाती है। यही बात आईपीएल की आठ टीमों के कप्तानों पर भी लागू होती हैं। यूं तो आईपीएल के इस सत्र में कई मैच खेले जाने बाकी हैं लेकिन अब तक हुए आठ मैचों के आधार पर ही आप यह सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन अच्छा कप्तान है, कौन औसत और कौन फिसड्डी। कहने के लिए तो डेक्कन चार्जर्स की टीम में सबसे ज्यादा विध्वंसक खिलाड़ी शामिल हैं लेकिन घटिया रणनीति ने दोनों मैचों में उनकी लुटिया डुबो दी। वेणुगोपाल राव जो ऊंचे शॉट लगाने की बजाय अपनी पारी को धीरे-धीरे मजबूती प्रदान करते हैं उन्हें वीवीएस लक्ष्मण ने सलामी बल्लेबाज के तौर पर भेजा और जब गिलक्रस्ट आउट हो गए तो खुद वेणुगोपाल के साथ मिलकर टुक-टुक करने क्रीज पर आ गए। कुल जमा १२० गेंदों की पारी में दो बल्लेबाज मिलकर २०-२५ गेंद जाया कर दें तो आप वैसे ही मुकाबले से बाहर हो जाते हैं। लक्ष्मण ने यह गलती तब की जब उनके पास शाहिद अफरीदी जैसा आक्रामक बल्लेबाज मौजूद था।
लक्ष्मण की तरह ही किंग्स इलेवन पंजाब के कप्तान युवराज सिंह भी रणनीति बनाने में जूझते नजर आ रहे हैं। जब विपक्षी बल्लेबाज उनके गेंदबाजों की धज्जियां उड़ाने लगता है तो पंजाब के इस पुत्तर के होश फाख्ता हो जाते हैं। उन्हें यह नहीं सूझता कि किस फील्डर को कहां रखें और किस गेंदबाज को आक्रमण पर लाएं। मुंबई इंडियंस के कार्यवाहक कप्तान हरभजन सिंह भी इस जिम्मेदारी के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं।
वहीं शुरुआती मैचों में सफल कप्तानों की ओर नजर डालें तो सौरव गांगुली और महेंद्र सिंह धोनी ने दिखा दिया क्यों उनकी गिनती भारत के सबसे बेहतरीन कप्तानों में होती है। इन दोनों के अलावा वीरेंद्र सहवाग ने भी अपनी नेतृत्व क्षमता से सबको कायल किया है। इसकी झलक उन्होंने खिलाड़ियों की नीलामी में ही दिखा दी थी। हालांकि उस वक्त वे आस्ट्रेलिया में थे लेकिन उन्होंने वहां से ही अपने फ्रेंचाइजी जीएमआर को अपनी पसंद बता दी थी। नीलामी में जहां सभी टीमों ने एक से एक धाकड़ बल्लेबाजों को अपना हिस्सा बनाने के लिए पैसे खर्चे तो दिल्ली डेयरडेविल्स ने कसी हुई लाइन लेंथ से गेंदबाजी करने वाले दिग्गजों को अपनी टीम में शामिल किया। सहवाग की सफलता इस बात की ओर भी इशारा करती है कि धोनी को भारतीय टीम की कप्तानी के मामले में जिस व्यक्ति से सबसे बड़ा खतरा है वह युवराज नहीं बल्कि नजफगढ़ का सुल्तान सहवाग है।
इस आलेख में दो अन्य कप्तानों का जिक्र करना भी बेहद जरूरी है। ये नाम हैं राहुल द्रविड़ औऱ शेन वार्न। बेंगलोर रॉयल चैलेंजर्स के कप्तान के तौर पर भी द्रविड़ वैसे ही नजर आ रहे हैं जैसा वे भारतीय टीम की कमान संभालते वक्त नजर आते थे, यानी एक औसत कप्तान। जहां तक शेन वार्न का सवाल है तो दो मैचों में एक में जीत और एक में हार के स्कोर लाइन के साथ उन्होंने यह जरूर साबित किया कि भले ही वह बतौर कप्तान सहवाग से कमतर हों लेकिन युवराज से कहीं अच्छे हैं।
Tuesday, April 22, 2008
क्या प्रियंका के गांधीवाद से पिघलेगा लिट्टे?
गिरीश निकम की कलम से
कुछ सप्ताह पहले राहुल गांधी कर्नाटक में थे जहां कुछ पत्रकारों के साथ उनकी एक अनौपचारिक बैठक हुई। इनमें से एक पत्रकार ने प्रियंका गांधी के राजनीति में प्रवेश पर उनकी राय जाननी चाही। उनका यह सवाल निश्चत रूप में गांधी परिवार के बारे में हो रही मीडिया रिर्पोटिंग से प्रभावित था साथ ही यह सवाल परोक्ष रूप से राहुल और प्रियंका के बीच मौजूद कथित प्रतिद्वंदिता के बारे में भी था। राहुल (जिन्होंने ऑफ द रिकार्ड हुए इस बैठक में खुल कर बात की और कई दिल भी जीते) ने उन्हें बताया कि कैसे ज्यादातर लोगों ने इस मामले में बिल्कुल गलत समझ विकसित कर ली है। उन्होंने कहा, 'आपलोगों को इस बात का बिल्कुल आभास नहीं है कि हमलोग (प्रियंका, वो और उनकी मां) अपनी जिंदगी में किन हालातों से गुजरे हैं।' वह निश्चत तौर पर अपनी दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की नृशंस हत्या की बात कर रहे थे। उन्होंने कहा, 'हमलोग एक दूसरे के बहुत करीब रहे हैं औऱ ऐसे में प्रतिद्वंदिता का तो सवाल ही नहीं उठता।'
अपने पिता की हत्या के बाद वे किस सदमें से गुजरे, किस तरह उनकी मां ने स्थिति को संभाला औऱ कैसे इसके बाद वह, उनकी बहन और उनकी मां एक-दूसरे के काफी करीब आ गए, राहुल इसी बारे में कहना चाह रहे थे। मीडिया ने गांधी परिवार के इस पहलू को कमोबेश किनारे रखते हुए उनकी राजनीति औऱ सत्ता की खोज पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया है। इसलिए अगर राहुल द्वारा अपने परिवार की मनःस्थित के बारे में कही गई बातों को ध्यान में रखते हुए कोई प्रियंका गांधी की पिछले महीने की गई वेल्लोर जेल यात्रा को देखेगा तो वह आसानी से अंदाजा लगा पाएगा कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है। वास्तव में जब राहुल पत्रकारों से बात कर रहे थे तब प्रियंका अपने पिता के हत्यारों के समूह की सदस्य नलिनी से मिलकर आ चुकी थीं। इसलिए जब वह पत्रकारों के सामने बोल रहे थे तब यह बात उनके दिमाग में कहीं न कहीं जरूर रही होगी क्योंकि तब तक प्रियंका नलिनी से मुलाकात के अपने अमुभव उनके साथ बांट चुकी थी।
इस बात का श्रेय गांधी परिवार को जाता है कि उसने इस मुलाकात के जरिए कोई प्रचार हासिल करने की कोशिश नहीं की। यह बात लोगों के सामने तब आई जब नलिनी के वकील ने अदालत से दया की उम्मीद में इसका खुलासा किया।
अब यह गौर करने की बात है कि वह क्या वजह थी जिसने प्रियंका को 38 साल की नलिनी से मुलाकात के लिए प्रेरित किया। इस मुलाकात के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। खुद प्रियंका ने भी बयान जारी कर कहा कि वह पिता की हत्या के बाद मानिसक शांति पाने के प्रयास में निलिनी से मिली। राहुल ने अपनी बहन के इस अभूतपूर्व कदम का विरोध नहीं किया लेकिन यह साफ किया कि इस मामले में उनकी सोच अलग है। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि वह इस तरह की मुलाकात की कोई योजना नहीं बना रहे हैं। हालांकि राहुल और प्रियंका दोनों ने कहा कि वे घृणा, क्रोध और हिंसा को अपनी जिंदगी पर हावी नहीं होने देना चाहते हैं। प्रियंका ने इसमें यह भी जोड़ा कि यह पूरी तरह व्यक्तिगत मुलाकात थी जिसकी पहल उन्होंने खुद की थी। उन्होंने कहा कि पिता की हत्या के बाद शांति प्राप्त करने का उनका तरीका है और इसे सही अर्थों में समझा जाए। सोनिया ने इस मसले पर अब तक चुप्पी साध रखी है हालांकि उन्होंने अपने दुःस्वप्न को अपनी बेटी प्रियंका की तुलना में बहुत पहले ही तब दफना दिया था जब उन्होंने नलिनी की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील करवाया था।
ऐसे में जबकि इस विपदाग्रस्त परिवार के तीनों सदस्यों ने इस मसले पर असाधारण मानवता का परिचय दिया है यह दुखद है कि मीडिया का एक तबका इसकी सराहना करने के बजाय इस खबर के मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया से पिछड़ने के कारण खार खा कर इस मुलाकात की वैधता में कोर-कसर निकालने की कोशिश कर रहा है। दुर्भाग्य से गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी की इस धरती पर घृणा और हिंसा ने गहरी पैठ जमा ली है। ऐसे समय में जब कोई व्यक्तिगत विपदा से उबरने के लिए और अपनी नफरत की भावनाओं को खत्म करने के लिए हत्यारे से मिलकर पूरा जतन करने की कोशिश करता है तो उसके इस प्रयास को नकारात्मक और संशय की दृष्टि से देखा जाता है।
इस मुलाकात पर आई कुछ प्रतिक्रियाएं तो काफी निराशाजनक थी जिसमें भारतीय जनता पार्टी की ओर से आई प्रतिक्रिया सबसे चौंकानेवाली थी। भाजपा के पार्टी प्रवक्ता ने बयान दिया कि 'प्रियंका नलिनी से क्यों मिली यह समझ से बाहर है' । निश्चित रूप से ऐसी पार्टी जो अपनी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ द्वारा प्रचारित नफरत के खाद-बीज पर पली-बढ़ी हो वह ऐसे किसी प्रयास को नहीं समझ सकती जो नफरत, घृणा और हिंसा को समाप्त करने के लिए किए जाते हों।
यह समझना जरूरी है कि नलिनी से मिलने का फैसला कर प्रियंका कोई राजनीतिक लाभ कमाने की कोशिश नहीं कर रही थी। यह एक बेटी द्वारा पिता की हत्या के बाद शांति प्राप्त करने का तरीका था। हालांकि उन्होंने अनजाने में ही सही एक शसक्त राजनीतिक बयान दे दिया कि उनका परिवार और वह खुद किसी को अपने पिता की हत्या पर राजनीतिक रोटिंया नहीं सेंकने देंगी। हालांकि यह अजीब बात है कि कभी निष्कपट रहीं सोनिया गांधी ने अर्जुन सिंह और उनके सहयोगियों को इंद्र कुमार गुजराल की संयुक्त मोर्चा सरकार को केवल इस तर्क के आधार पर गिराने दिया कि डीएमके के नेता राजीव गांधी हत्याकांड में संदिग्ध थे। बहरहाल बाद में विवेकपूर्ण सोनिया ने अपनी भूल सुधारी और डीएमके के साथ गठबंधन किया। अब ऐसा प्रतीत होता है कि सोनिया ने डीएमके प्रमुख और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि के साथ अच्छा तालमेल स्थापित कर लिया है।
नलिनी मामले में तो सोनिया और उनकी दोनों संतानों ने विशाल हृदय का परिचय जरूर दिया लेकिन राजीव हत्याकांड के बाद उनसे एक बड़ी भूल भी हुई। राजीव के साथ 1991 के मई की रात जान गंवाने वाले 15 लोगों के परिवार वालों की मदद के लिए गांधी परिवार हाथ बढ़ाने में विफल रहा। हालिया प्रकाशित रिपोर्टों के अनुसार गांधी परिवार के किसी भी सदस्य ने न तो उनकी मदद करने की और न ही उन तक पहुंचने की कोशिश की। उनमें से कुछ तो कांग्रेस के साधारण कार्यकर्ता थे जिनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार की हालत बेहद खराब हो गई लेकिन इसके बावजूद किसी ने उनकी सुध नहीं ली। यह आश्चर्य की बात है सोनिया और उनकी दोनों संतानों ने इस पहलु को अनदेखा कर दिया। उम्मीद है कि अब वे अपनी गलती को सुधारने की कोशिश करेंगे। हालांकि राजीव की हत्या के बाद गांधी परिवार का खुद शोकाकुल होना इस अनदेखी के पीछे बड़ा कारण हो सकता है।
इस भूल के बावजूद अब प्रियंका ने और पहले सोनिया ने दुनिया को दिखा दिया कि नफरत और अस्वस्थ मानसिकता को खुद के अंदर पनपाना घृणित कार्यों को रोकने के लिए उचित समाधान नहीं हो सकता, चाहे मसला व्यकितगत हो या राजनैतिक। उम्मीद है कि राजीव हत्याकांड की साजिश रचने और इसे कार्यान्वित करने वाला लिट्टे प्रियंका के कदम से पिघलेगा और इसमें अपनी भूमिका को स्वीकारते हुए माफी मांगेगा। यह इस दुखदाई मुद्दे का उचित समापन होगा और हम एक राष्ट्र के तौर पर गांधीगण एक परिवार के तौर पर अपने जख्मों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ पाएंगे। इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें
कुछ सप्ताह पहले राहुल गांधी कर्नाटक में थे जहां कुछ पत्रकारों के साथ उनकी एक अनौपचारिक बैठक हुई। इनमें से एक पत्रकार ने प्रियंका गांधी के राजनीति में प्रवेश पर उनकी राय जाननी चाही। उनका यह सवाल निश्चत रूप में गांधी परिवार के बारे में हो रही मीडिया रिर्पोटिंग से प्रभावित था साथ ही यह सवाल परोक्ष रूप से राहुल और प्रियंका के बीच मौजूद कथित प्रतिद्वंदिता के बारे में भी था। राहुल (जिन्होंने ऑफ द रिकार्ड हुए इस बैठक में खुल कर बात की और कई दिल भी जीते) ने उन्हें बताया कि कैसे ज्यादातर लोगों ने इस मामले में बिल्कुल गलत समझ विकसित कर ली है। उन्होंने कहा, 'आपलोगों को इस बात का बिल्कुल आभास नहीं है कि हमलोग (प्रियंका, वो और उनकी मां) अपनी जिंदगी में किन हालातों से गुजरे हैं।' वह निश्चत तौर पर अपनी दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की नृशंस हत्या की बात कर रहे थे। उन्होंने कहा, 'हमलोग एक दूसरे के बहुत करीब रहे हैं औऱ ऐसे में प्रतिद्वंदिता का तो सवाल ही नहीं उठता।'
अपने पिता की हत्या के बाद वे किस सदमें से गुजरे, किस तरह उनकी मां ने स्थिति को संभाला औऱ कैसे इसके बाद वह, उनकी बहन और उनकी मां एक-दूसरे के काफी करीब आ गए, राहुल इसी बारे में कहना चाह रहे थे। मीडिया ने गांधी परिवार के इस पहलू को कमोबेश किनारे रखते हुए उनकी राजनीति औऱ सत्ता की खोज पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया है। इसलिए अगर राहुल द्वारा अपने परिवार की मनःस्थित के बारे में कही गई बातों को ध्यान में रखते हुए कोई प्रियंका गांधी की पिछले महीने की गई वेल्लोर जेल यात्रा को देखेगा तो वह आसानी से अंदाजा लगा पाएगा कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है। वास्तव में जब राहुल पत्रकारों से बात कर रहे थे तब प्रियंका अपने पिता के हत्यारों के समूह की सदस्य नलिनी से मिलकर आ चुकी थीं। इसलिए जब वह पत्रकारों के सामने बोल रहे थे तब यह बात उनके दिमाग में कहीं न कहीं जरूर रही होगी क्योंकि तब तक प्रियंका नलिनी से मुलाकात के अपने अमुभव उनके साथ बांट चुकी थी।
इस बात का श्रेय गांधी परिवार को जाता है कि उसने इस मुलाकात के जरिए कोई प्रचार हासिल करने की कोशिश नहीं की। यह बात लोगों के सामने तब आई जब नलिनी के वकील ने अदालत से दया की उम्मीद में इसका खुलासा किया।
अब यह गौर करने की बात है कि वह क्या वजह थी जिसने प्रियंका को 38 साल की नलिनी से मुलाकात के लिए प्रेरित किया। इस मुलाकात के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। खुद प्रियंका ने भी बयान जारी कर कहा कि वह पिता की हत्या के बाद मानिसक शांति पाने के प्रयास में निलिनी से मिली। राहुल ने अपनी बहन के इस अभूतपूर्व कदम का विरोध नहीं किया लेकिन यह साफ किया कि इस मामले में उनकी सोच अलग है। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि वह इस तरह की मुलाकात की कोई योजना नहीं बना रहे हैं। हालांकि राहुल और प्रियंका दोनों ने कहा कि वे घृणा, क्रोध और हिंसा को अपनी जिंदगी पर हावी नहीं होने देना चाहते हैं। प्रियंका ने इसमें यह भी जोड़ा कि यह पूरी तरह व्यक्तिगत मुलाकात थी जिसकी पहल उन्होंने खुद की थी। उन्होंने कहा कि पिता की हत्या के बाद शांति प्राप्त करने का उनका तरीका है और इसे सही अर्थों में समझा जाए। सोनिया ने इस मसले पर अब तक चुप्पी साध रखी है हालांकि उन्होंने अपने दुःस्वप्न को अपनी बेटी प्रियंका की तुलना में बहुत पहले ही तब दफना दिया था जब उन्होंने नलिनी की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील करवाया था।
ऐसे में जबकि इस विपदाग्रस्त परिवार के तीनों सदस्यों ने इस मसले पर असाधारण मानवता का परिचय दिया है यह दुखद है कि मीडिया का एक तबका इसकी सराहना करने के बजाय इस खबर के मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया से पिछड़ने के कारण खार खा कर इस मुलाकात की वैधता में कोर-कसर निकालने की कोशिश कर रहा है। दुर्भाग्य से गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी की इस धरती पर घृणा और हिंसा ने गहरी पैठ जमा ली है। ऐसे समय में जब कोई व्यक्तिगत विपदा से उबरने के लिए और अपनी नफरत की भावनाओं को खत्म करने के लिए हत्यारे से मिलकर पूरा जतन करने की कोशिश करता है तो उसके इस प्रयास को नकारात्मक और संशय की दृष्टि से देखा जाता है।
इस मुलाकात पर आई कुछ प्रतिक्रियाएं तो काफी निराशाजनक थी जिसमें भारतीय जनता पार्टी की ओर से आई प्रतिक्रिया सबसे चौंकानेवाली थी। भाजपा के पार्टी प्रवक्ता ने बयान दिया कि 'प्रियंका नलिनी से क्यों मिली यह समझ से बाहर है' । निश्चित रूप से ऐसी पार्टी जो अपनी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ द्वारा प्रचारित नफरत के खाद-बीज पर पली-बढ़ी हो वह ऐसे किसी प्रयास को नहीं समझ सकती जो नफरत, घृणा और हिंसा को समाप्त करने के लिए किए जाते हों।
यह समझना जरूरी है कि नलिनी से मिलने का फैसला कर प्रियंका कोई राजनीतिक लाभ कमाने की कोशिश नहीं कर रही थी। यह एक बेटी द्वारा पिता की हत्या के बाद शांति प्राप्त करने का तरीका था। हालांकि उन्होंने अनजाने में ही सही एक शसक्त राजनीतिक बयान दे दिया कि उनका परिवार और वह खुद किसी को अपने पिता की हत्या पर राजनीतिक रोटिंया नहीं सेंकने देंगी। हालांकि यह अजीब बात है कि कभी निष्कपट रहीं सोनिया गांधी ने अर्जुन सिंह और उनके सहयोगियों को इंद्र कुमार गुजराल की संयुक्त मोर्चा सरकार को केवल इस तर्क के आधार पर गिराने दिया कि डीएमके के नेता राजीव गांधी हत्याकांड में संदिग्ध थे। बहरहाल बाद में विवेकपूर्ण सोनिया ने अपनी भूल सुधारी और डीएमके के साथ गठबंधन किया। अब ऐसा प्रतीत होता है कि सोनिया ने डीएमके प्रमुख और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि के साथ अच्छा तालमेल स्थापित कर लिया है।
नलिनी मामले में तो सोनिया और उनकी दोनों संतानों ने विशाल हृदय का परिचय जरूर दिया लेकिन राजीव हत्याकांड के बाद उनसे एक बड़ी भूल भी हुई। राजीव के साथ 1991 के मई की रात जान गंवाने वाले 15 लोगों के परिवार वालों की मदद के लिए गांधी परिवार हाथ बढ़ाने में विफल रहा। हालिया प्रकाशित रिपोर्टों के अनुसार गांधी परिवार के किसी भी सदस्य ने न तो उनकी मदद करने की और न ही उन तक पहुंचने की कोशिश की। उनमें से कुछ तो कांग्रेस के साधारण कार्यकर्ता थे जिनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार की हालत बेहद खराब हो गई लेकिन इसके बावजूद किसी ने उनकी सुध नहीं ली। यह आश्चर्य की बात है सोनिया और उनकी दोनों संतानों ने इस पहलु को अनदेखा कर दिया। उम्मीद है कि अब वे अपनी गलती को सुधारने की कोशिश करेंगे। हालांकि राजीव की हत्या के बाद गांधी परिवार का खुद शोकाकुल होना इस अनदेखी के पीछे बड़ा कारण हो सकता है।
इस भूल के बावजूद अब प्रियंका ने और पहले सोनिया ने दुनिया को दिखा दिया कि नफरत और अस्वस्थ मानसिकता को खुद के अंदर पनपाना घृणित कार्यों को रोकने के लिए उचित समाधान नहीं हो सकता, चाहे मसला व्यकितगत हो या राजनैतिक। उम्मीद है कि राजीव हत्याकांड की साजिश रचने और इसे कार्यान्वित करने वाला लिट्टे प्रियंका के कदम से पिघलेगा और इसमें अपनी भूमिका को स्वीकारते हुए माफी मांगेगा। यह इस दुखदाई मुद्दे का उचित समापन होगा और हम एक राष्ट्र के तौर पर गांधीगण एक परिवार के तौर पर अपने जख्मों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ पाएंगे। इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें
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