Tuesday, June 3, 2008

स्कूल के दिनों में तो खेलते थे लेकिन क्या स्कूल में भी खेलते थे?

अमूमन मैं किसी से पूछता हूं कि आपने फलां खेल आखिरी बार कब खेला तो जवाब मिलता है स्कूल के दिनों में। हमलोगों में ज्यादातर ने स्कूल के दिनों में खेल-कूद का खूब मजा उठाया है लेकिन स्कूल के बाहर। जब स्कूल में खेलने की बात आती है तो संख्या में भारी गिरावट आ जाती है।

वे लोग जो कहते हैं कि उन्होंने स्कूल में भी खेला है उनमें से ज्यादातर प्रार्थना (प्रेयर) से पहले होने वाले पीटी क्लास में थोड़ा बहुत हाथ पैर घुमाया है और हाफ टाइम (टिफीन) में लुका छुपी जैसे खेलों का लुत्फ उठाया है। हमारे स्कूल में एक छोटा सा मैदान हुआ करता था जहां हम 45 मिनट के टिफीन ब्रेक में पांच-पांच ओवर का क्रिकेट मैच खेलते थे। इसमें भी कुल जमा 22 छात्रों को ही मौका मिल पाता था।

हालांकि बड़े-बड़े निजी विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय सरीखे स्कूलों से पढ़े हमारे मित्र इस बात से इत्तेफाक नहीं रखेंगे। इन स्कूलों में टेबल टेनिस, बालीवाल, फुटबाल, क्रिकेट और भी तमाम खेलों की टीमें होती हैं जो साल में एक दो बार ऑल इंडिया लेवल पर होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग भी लेती है। लेकिन इन विद्यालयों में भी खेल का कैसा स्तर है या इनके कोच किस काबिल हैं ये बताने की जरूरत नहीं है। अगर इनकी व्यवस्था सफल होती तो आज विभिन्न खेलों में भारत को रिप्रजेंट करने वाले ज्यादातर खिलाड़ी इन्हीं स्कूलों के प्रोडक्ट होते लेकिन ऐसा नहीं है। चलिए मान भी लें कि ये स्कूल स्कूली स्तर पर खेल को प्रोत्साहन देते हैं तो सवाल यह है कि ऐसे स्कूलों की संख्या है ही कितनी।

पूरे भारत में हजारों ऐसे निजी और सरकारी विद्यालय हैं जहां खेल-कूद की कोई सुविधा नहीं है और इन्हीं हजारों विद्यालयों में भारत के 95 फीसदी छात्र पढ़ाई करते हैं। जब इन विद्यालयों में खेल-कूद से जुड़ी सुविधाओं की बात उठाई जाती है तो जवाब आता है कि पहले पढ़ाई ढंग से सुनिश्चित हो जाए खेल-कूद तो होता रहेगा। यही ढुलमुल रवैया भारत को कभी खेलों में आगे नहीं बढ़ने देगा। अगर ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में भारत पदकों के लिए तरसता रहता है तो इसके पीछे स्कूलों में खेल-कूद के लिए जरूरी साजोसमान व सुविधाएं न होना बड़ा कारण है।

कुछ लोगों का कहना है कि भारत अभी एक विकासशील राष्ट्र है और यहां स्कूल स्तर पर खेलों का विकास अभी मुमकिन नहीं है। यह तर्क सरसरी नजर में वाजिब जान पड़ता है लेकिन हकीकत इससे मेल नहीं खाती है। आज जितने भी विकसित राष्ट्र हैं वहां खेलों का विकास उसी चरण में हुआ जब वहां की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाएं विकास कर रही थी। चीन आज भी एक विकासशील राष्ट्र है और वहां स्कूलों में खेल के स्तर पर कितना ध्यान दिया जाता है यह बताने की जरूरत नहीं है।

हम सभी जानते हैं कि अमेरिका सुपर पावर है। लेकिन वह सिर्फ हथियारों, पैसे और राजनीतिक दबदबे के आधार पर ही सुपर पावर नहीं है बल्कि खेलों में भी एक-आध देश ही उसके स्तर के आसपास हैं। लेकिन आपको यह जानकर हैरत हो सकती है कि अमेरिका में जितना पैसा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों के स्तर पर खर्च किया जाता है उससे कहीं अधिक स्कूल और कॉलेज स्तर के खेलों पर किया जाता है। अमेरिका के नौ सबसे बड़े स्टेडियम किसी न किसी कॉलेज या स्कूल के स्टेडियम हैं। अगर कोई अमेरिकी अखबार नेशनल बास्केटबॉल लीग (एनबीए) को कवर करने के लिए चार रिपोर्टर रखता है तो स्कूल स्तर पर होने वाले बास्केटबाल लीग को कवर करने के लिए 16 रिर्पोटर रखता है। इतना ही नहीं स्कूली टूर्नामेंटों का लाइव टेलीकास्ट भी किया जाता है।

अगर आप भारत की तुलना अमेरिका जैसे संपन्न राष्ट्र से नहीं करना चाहते हैं तो जरा चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों के स्पो‌र्ट्स कल्चर को जानने की कोशिश करें। इन देशों के स्कूलों में भी खेल पर खासा ध्यान दिया जाता है और ये कोशिश की जाती है इनके बच्चे जितने अच्छे गणित में हों उतने ही अच्छे खेल-कूद में भी हों।

हमारी सरकार हमेशा यह बात कहती है कि स्कूल स्तर पर खेलों को बढ़ावा देना होगा लेकिन वह इसे अमल में लाने का इरादा नहीं रखती। स्कूली स्तर पर कुछ प्रतियोगिताएं जरूर आयोजित होती हैं लेकिन इसमें भाग लेने वाले ज्यादातर प्रतिभागी कोई ट्रेनिंग लेकर नहीं आते हैं। स्कूलों में खेल-कूद की सुविधाओं के विकास के लिए कुछ पैसे भी आवंटित किए जाते हैं लेकिन ये पैसे भी मैदान में पहुंचने के बजाय भोजन बनकर किसी के पेट में पहुंच जाते हैं।

1 comment:

Udan Tashtari said...

विचारणीय तथ्य है. हमारे मित्र अपनी जेब से पैसा लगाकर विश्वविद्यालय के मैच में खेलने बाहर जाते थे. खाना तक खुद खरीद कर खाना पड़ता था तो भला कब तक खेलेंगे.

बहुत कुछ करना बाकी है इस दिशा में.

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