Friday, November 30, 2012

सचिन तो बूढ़े हो गए, जवानों को क्या हुआ?


सचिन तेंडुलकर अच्छा खेलें तो खबर, बुरा खेलें तो खबर। शतक बनाए तो सनसनी, शतक से चूके तो सनसनी। पिछले दो साल से उन्होंने अच्छा नहीं खेला तो जााहिर है इसकी चर्चा सभी क्रिकेट प्रेमियों की जबान पर होगी, होनी भी चाहिए। हालांकि, इस बार सबसे बड़ी समस्या यह आ रही है कि उनकी विफलता की ओट में टीम इंडिया के कई अन्य सितारों की नाकामयाबी छिप रही है। सचिन के बारे में कहा जा रहा है कि वे 40 साल के होने वाले हैं क्रिकेट के लिहाज से बूढ़े हो गए। सही बात है। लेकिन हमारे युवाओं का क्या? वे क्यों नहीं परफॉर्म नहीं कर रहे? उनके प्रदर्शन पर टिप्पणियां क्यों नहीं हो रही?

सबसे पहले बात सबसे पहले बल्लेबाजी करने क्रीज पर आने वाले गौतम गंभीर की। सचिन ने अपना पिछला टेस्ट शतक दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ जनवरी 2011 में जमाया था। वहीं गंभीर ने टेस्ट क्रिकेट में आखिरी शतकीय पारी जनवरी 2010 में खेली थी। वो सचिन से भी एक साल पहले से आउट ऑफ ऑर्म चल रहे हैं। जाहिर है उनकी उम्र संन्यास की नहीं है लेकिन उन्हें ड्रॉप तो किया ही जा सकता है। यही हाल वीरेंद्र सहवाग का भी है। इंग्लैंड के खिलाफ पहले टेस्ट में उन्होंने जरूर अच्छी पारी खेली लेकिन इससे पहले वे भी पिछले दो साल से कुछ खास कमाल नहीं कर पाए थे। टेस्ट क्रिकेट में मध्यक्रम की सफलता काफी हद तक शीर्ष क्रम पर भी निर्भर होती है। सचिन की विफलता के रहस्य में कहीं न कहीं ओपनरों की नाकामयाबी भी शामिल है।

अब बात टीम के युवा सितारे विराट कोहली की। वनडे क्रिकेट में शानदार प्रदर्शन करने वाले कोहली ने ऑस्ट्रेलिया दौरे पर एडीलेड और पर्थ में दो अच्छी पारियां खेलने के अलावा टेस्ट क्रिकेट में कुछ खास नहीं किया है। बाकी बल्लेबाज फॉर्म में होते तो वे भी टेस्ट टीम में जगह के हकदार नहीं हो पाते। इसके बाद युवराज सिंह। मेरे विचार से टेस्ट टीम में युवी का चयन परफॉर्मेंस बेस्ड न होकर इमोशन बेस्ड था। युवराज को पहले भी टेस्ट टीम में जगह मिली लेकिन वे इसे पक्की करने में हमेशा नाकाम रहे। युवी के विकल्प हैं सुरेश रैना। लेकिन तय मानिए रैना के पास भी टेस्ट क्रिकेट के लायक जरूरी तकनीक नहीं है।

अब अपने कप्तान महेंद्र सिंह धौनी। पिछली 15 पारियों में सिर्फ तीन शतक। क्या इसी को लीडिंग फ्रॉम द फ्रंट कहेंगे। बल्लेबाजी ही नहीं कप्तानी में भी धौनी की धार लगातार कुंद होती जा रही है। अब वे प्रयोगवादी कप्तान की जगह जिद्दी कप्तान बनने लगे हैं। उनकी जिद, यह चाहे टीम चयन को लेकर हो यह पिच की पसंद को लेकर हो टीम को नुकसान पहुंचा रही है।

अब गेंदबाजों की बात। सबसे पहले धौनी के सबसे पसंदीदा स्पिनर रविचंद्रन अश्विन की चर्चा। उन्होंने 10 टेस्ट मैचों में 55 विकेट लिए हैं। लेकिन इनमें से 40 विकेट वेस्टइंडीज और न्यूजीलैंड के खिलाफ खेले कुल पांच टेस्ट में लिए। ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसी टीमों के खिलाफ खेले कुल पांच मैचों में महज 15 विकेट। यही हाल तेज गेंदबाज जहीर खान का है। वे लंबे समय से न तो पूरी तरह फिट हैं और न ही फॉर्म में हैं। कुल मिलाकर अभी बल्लेबाज में चेतेश्वर पुजारा और गेंदबाज में प्रज्ञान ओझा ही ऐसे हैं जो लय में हैं।

जाहिर जिस टीम के आठ-नौ खिलाड़ी ऑउट ऑफ फॉर्म हों उसकी किस्मत एक खिलाड़ी के संन्यास लेने से नहीं बदलने वाली। सचिन को संन्यास लेना चाहिए या नहीं यह अपनी जगह चर्चा का बेहद माकूल विषय है। लेकिन इसके साथ ही बाकी खिलाडिय़ों पर गौर फरमाना बहुत जरूरी है।

Monday, August 15, 2011

इस हार का दोष ढलती उम्र को मत दीजिए

भारतीय टीम ने इंग्लैंड दौरे पर अब तक वाकई शर्मनाक प्रदर्शन किया है। तीन टेस्ट और तीनों में एकतरफा हार। दो अभ्यास मैचों में भी टीम बैकफुट पर रही। आखिर क्या है इस हार का कारण। आईपीएल, थकान, अभ्यास की कमी या ढलती उम्र। मेरी नजर में कम से कम ढलती उम्र तो कोई कारण नहीं है।

ऐसा नहीं है कि इस दौरे पर सिर्फ वे खिलाड़ी फ्लॉप रहे हैं जिनकी उम्र 37 साल से ज्यादा है। 30 से कम के रैना, युवराज, मुकुंद, गंभीर, श्रीसंत, इशांत भी बेअसर रहे। सिर्फ एक खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन कर पाया और उसकी उम्र टीम में सबसे ज्यादा है। जी हां राहुल द्रविड़। उम्र अगर कारण होती तो द्रविड़ सबसे बड़े फ्लॉप साबित होते। वैसे भी आठ महीने पहले ही इन्हीं उम्रदराज खिलाड़ियों ने दक्षिण अफ्रीका में शानदार प्रदर्शन किया था।

तो हार का कारण क्या है? सबसे बड़ा कारण है वर्ल्ड कप की जीत। जी हां। याद कीजिए इंग्लैंड की 2005 एशेज जीत को। और यह भी याद कीजिए कि उसके बाद क्या हुआ था। इंग्लैंड 1986 के बाद एशेज नहीं जीत पाया था और जब 19 साल बाद कामयाबी हाथ लगी तो लगा सब कुछ पा लिया। कुछ पाने को और बचा ही नहीं। अगले कुछ महीने इंग्लैंड की टीम खूब हारी। ऐसा ही हुआ है भारत के साथ। 28 साल बाद विश्व कप जीता है। लगा कि जीतने के लिए कुछ बचा ही नहीं। बतौर टीम भारत ने सर्वोच्च लक्ष्य हासिल कर लिया। बहुत लंबा इंतजार समाप्त हो गया। इसके बाद कुछ अच्छा करने की प्रेरणा खत्म हो गई। गनीमत है कि वेस्टइंडीज की टीम काफी कमजोर है। अगर उसमें थोड़ा भी दम होता तो हकीकत वहीं नजर आ जाती।

वर्ल्ड कप जीत के बाद इंग्लैंड में हार का दूसरा सबसे बड़ा कारण है इंग्लैंड को कम आंकना। तभी तो इस सीरीज से पहले कई खिलाड़ी ब्रेक पर थे। सचिन विम्बलडन देख रहे थे तो धौनी भी छुट्टी पर थे। सहवाग और गंभीर चोटिल थे कुछ खास नहीं कर सकते थे। किसी की तैयारी मुकम्मल नहीं थी। आधी-अधूरी तैयारी के बल पर इस इंग्लैंड टीम से मुकाबला तो नहीं ही किया जा सकता था। साथ ही सीरीज शुरू होने से पहले अभ्यास मैच भी सिर्फ एक मिला।

जहां तक आईपीएल का सवाल है तो उसे उतना ही जरूरी मानिए जितना अखबार में विज्ञापन। पत्रकार इसे अब कटु सत्य मानकर काम करते हैं। वहीं क्रिकेटर आईपीएल को शहद जैसा सच मानकर खेलते हैं। आईपीएल को गाली देने से कुछ नहीं मिलने वाला। यह जारी रहने वाला है। चाहे कितनी भी सीरीज हारें।

Friday, June 25, 2010

चार साल में एक महीने के लिए छाने वाला जुनून

न्यू माइंडशेयर के सर्वे के मुताबिक में दुनिया भर के अधिकांश लोगों (सर्वे में भाग लेने वाले) ने ब्राजील को 19वें फीफा विश्व कप खिताब का सबसे प्रबल दावेदार बताया। यह सर्वे भारत में भी हुआ था और यहां भी 19 प्रतिशत लोगों की राय थी कि ब्राजील ही चैम्पियन बनेगा। इस नतीजे से तो लगता है कि हम भारतीय भी फुटबाल के बारे में वैसी ही सोच और जानकारी रखते हैं जैसे किसी अन्य देश के लोग। हालांकि भारतीयों की नजर में दूसरे सबसे प्रबल दावेदार का नाम जानने के बाद पता चलता है कि इस देश में फुटबाल की औकात क्या है। सर्वे में भाग लेने वाले 14 प्रतिशत हिन्द निवासियों के मुताबिक आस्ट्रेलिया विश्व कप जीतने का सबसे प्रबल दावेदार था।

आज की तारीख में आस्ट्रेलिया विश्व कप से बाहर हो चुका है और विश्व कप शुरू होने से पहले भी कोई भी आस्ट्रेलियाई 10 केन बीयर गटक लेने के बाद भी अपनी टीम को खिताब का दावेदार नहीं बताता। तो आस्ट्रेलिया भारतीयों की नजर में दावेदार कैसे हो गया? सीधा सा जवाब है क्रिकेट की वजह से। हम भारतीय क्रिकेट के दीवाने हैं और आस्ट्रेलिया क्रिकेट में बेहद मजबूत टीम है। पिछले तीन वनडे क्रिकेट विश्व कप और दो चैम्पियंस ट्रॉफी में हमने आस्ट्रेलिया को ही चैम्पियन बनते देखा तो सोचा आस्ट्रेलिया फुटबाल विश्व कप भी जीत जाएगा। मतलब साफ है फुटबाल के बारे में आम भारतीयों की जानकारी या तो न के बराबर है या काफी सीमित है। यहां फुटबाल की सुध सिर्फ फुटबाल विश्व कप के समय ली जाती है और बाकी चार साल इसे ताक पर रख दिया जाता है। इसलिए जानकारी का दायरा वर्ल्ड कप से वर्ल्ड कप चलता है। बीच में क्या हुआ कुछ पता नहीं।

इनमें उनकी गलती भी नहीं है। आखिर उन्हें पता चले भी कैसे। जानकारी के लिए वे जिन माध्यमों (समाचार पत्र और न्यूज चैलन) पर निर्भर हैं वे भी वर्ल्ड कप टू वर्ल्ड कप नजरिया रखते हैं। (एक बात स्पष्ट करता चलूं कि मैं यहां बात हिन्दी भाषी खेल प्रेमियों और हिन्दी अखबार या चैनल देखने वाले फुटबाल प्रेमियों की कर रहा हूं। अंग्रेजी में हालात तो फिर भी दुरुस्त हैं। पश्चिम बंगाल, केरल, गोवा और उत्तर-पूर्व में फुटबाल नंबर एक खेल है और यहां के भाषायी अखबार फुटबाल की खबरें नियमित तौर पर छापते हैं चार वर्ष के अंतराल पर नहीं।) अब ये हिन्दी अखबार (इनमें से एक में मैं भी कार्यरत हूं) विश्व कप को रोज एक पन्ना समर्पित कर रहे हैं और ये हिन्दी चैनल दिन भर में कई बार फुटबाल अपडेट भी दिखा रहे हैं। लेकिन सच बात यह है कि पाठक और दर्शक इनके साथ लय नहीं बिठा पा रहे। मैसी, रोनाल्डो, काका या रूनी से अति लोकप्रिय नाम तो उन्हें पता है लेकिन इनके अलावा अन्य नामों को पढ़ने या सुनने में भी उन्हें संघर्ष करना पड़ा रहा है। 11 जुलाई तक (फाइनल के दिन तक) या इससे एक-दो दिन और आगे तक ये चार साली फुटबाल जुनून जारी रहेगा और उसके बाद फिर इसे ब्राजील में होने वाले 2013 विश्व कप तक कब्र में दफन कर दिया जाएगा।

अगले साल एशियन कप फुटबाल टूर्नामेंट का आयोजन होना है और भारत ने लम्बे अर्से बाद इस टूर्नामेंट के लिए क्वालीफाई किया है। लेकिन मुझे शक है कि इस टूर्नामेंट में मौजूदा विश्व कप की तुलना में 10 प्रतिशत कवरेज भी मिले। इंग्लिश प्रीमियर लीग, स्पेनिश ला लीगा, इतालवी सीरी-ए, जर्मन बुंदसलीगा, यूएफा चैम्पियंस लीग, यूएफा कप के साथ-साथ भारत की आई लीग, संतोष ट्रॉफी जैसे टूर्नामेंट पहले की तरह आगे भी हर साल होंगे लेकिन हिन्दी समाचार माध्यमों में इनकी कवरेज नहीं होगी, होगी भी तो खाली जगह को पूरा करने के लिए। इसके बावजूद 2014 में ऐसे ही या इससे भी बड़े पैमाने पर हिन्दी अखबार और न्यूज चैनल 20वें फीफा विश्व कप की कवरेज लेकर आएंगे और यह उम्मीद करेंगे सुधी पाठक या दर्शक बीते सालों में अपने दम पर फुटबाल को लेकर अपडेट हो चुके होंगे और हमारी कवरेज का मजा लेंगे।

Friday, January 22, 2010

कुछ हद तक जायज है पाक का विरोध

आईपीएल-3 की नीलामी में किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी के नाम पर बोली न लगने के खिलाफ पाकिस्तान की ओर से उठ रहे विरोध के स्वर कुछ हद तक जायज लगते हैं।

अगर भारत और पाकिस्तान के संबंधों की जटिलताओं को दूर रख कर इस मामले पर गौर किया जाए तो मेरे विचार से पाकिस्तानी खिलाडिय़ों के साथ जैसा वर्ताव हुआ वह सही नहीं था। आईपीएल नियमों के मुताबिक कोई भी खिलाड़ी नीलामी सूची में तभी रखा जाएगा जबकि उसके पक्ष में कम से कम एक फ्रेंचाइजी मांग करे। हालांकि यह कहा जा सकता है कि 66 उपलब्ध खिलाडिय़ों में से सिर्फ 14 नीलाम हुए और पाकिस्तान के अलावा कुछ ऐसे भी देश थे जिनके खिलाडिय़ों पर बोली नहीं लगी। लेकिन सच्चाई यही है कि उन देशों के खिलाडिय़ों और पाकिस्तान के खिलाडिय़ों में बड़ा अंतर था। आस्ट्रेलिया की मौजूदा टीम के खिलाडिय़ों पर इसलिए बोली नहीं लगी क्योंकि वे आपीएल थ्री के शुरुआती तीन सप्ताह तक उपलब्ध नहीं रहते। हॉलैण्ड और बांग्लादेश के खिलाड़ी उतने स्तरीय थे नहीं। पाकिस्तानी खिलाडिय़ों के साथ इन दोनों में से कोई समस्या नहीं थी। उनके खिलाड़ी पूरे आईपीएल टूर्नामेंट के दौरान उपलब्ध रहते। जहां तक उनके स्तर का सवाल है तो वे टी 20 के विश्व चैम्पियन टीम का हिस्सा हैं। यही बात उनके स्तर के बारे में बताने के लिए काफी है।

अब तीसरा तर्क यह है कि फ्रेंचाइजियों ने पाक खिलाडिय़ों पर बोली इसलिए नहीं लगाई क्योंकि उन्हें डर था कि उन्हें अहम मौके पर वीजा की समस्या भी आ सकती थी। अगर फ्रेंचाइजियों की यह समस्या थी तो उन्हें आईपीएल के कर्ताधर्ताओं को यह बात पहले बतानी चाहिए कि वे अब पाक खिलाडिय़ों पर बोली लगाने को इच्छुक नहीं हैं। सभी टीमों की गतिविधियों से अच्छी तरह वाकिफ रहने वाले आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी के लिए क्या यह बात मुमकिन प्रतीत होती है कि उन्हें फ्रेंचाइजियों के इस रुख का आभास न रहा हो? मुझे तो नहीं लगता। अच्छा होता यदि आईपीएल पहले ही पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड को यह बता देता कि कोई फ्रेंचाइजी वहां के क्रिकेटरों में दिलचस्पी नहीं ले रहा है और पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को नीलामी की सूची से ही बाहर कर दिया जाता।

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