बीजिंग ओलंपिक शुरू होने में महज तीन महीने ही बचे हैं और टेनिस खिलाड़ी महेश भूपति ने यह कह कर सभी को चौंका दिया है कि वह लिएंडर पेस के साथ जोड़ी बनाकर इसमें भाग नहीं लेना चाहते हैं।
ओलंपिक में भारत को पदकों के लिए किस कदर तरसना पड़ता है यह बताने की जरूरत नहीं है। 1980 के बाद हमने ओलंपिक स्वर्ण का स्वाद नहीं चखा है। 1984, 1988 और 1992 में तो हमें एक भी पदक नहीं मिला। 1996 के अटलांटा ओलंपिक में लिएंडर ने टेनिस में पुरुष एकल का कांस्य पदक जीतकर 16 साल का सूखा समाप्त किया। इसके बाद सिडनी में कर्नम मल्लेश्वरी ने कांस्य जीता तो 2004 में एथेंस में डबल ट्रैप शूटर राजवर्धन राठौड़ ने चांदी का तमगा जीतकर देश वासियों को खुश होने का मौका दिया।
इस बार भले ही पदकों के लिए कई दावे किए जा रहे हों लेकिन सच्चाई यही है कि बीजिंग में भी हम पदक के लिए कुछ ही नामों पर निर्भर होंगे। इन्हीं चंद नामों में लिएंडर पेस और महेश भूपति भी हैं। एथेंस में इन दोनों की जोड़ी ने सेमीफाइनल तक का सफर तय किया और यह भारत व इनका दुर्भाग्य रहा है कि वे बहुत करीबी अंतर से सेमीफाइनल व कांस्य पदक के लिए हुआ मुकाबला हार गए।
इस बार भूपति यह तर्क दे रहे हैं कि लंबे समय से संवाद न हो पाने और साझा तैयारियों के अभाव के कारण वह पेस के साथ जोड़ी नहीं बनाना चाहते हैं। क्या भूपति बताएंगे कि सिडनी और एथेंस ओलंपिक से पहले क्या उन्होंने पेस के साथ पूरी तैयारी की थी। निश्चित तौर पर उनका जवाब ना होगा। तो भूपति भाई पिछली बार आप बिना किसी खास तैयारी के साथ पेस के साथ मिलकर सेमीफाइनल में पहुंच गए तो इस बार उससे अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं कर सकते।
यह बात समझ में नहीं आती कि क्यों भूपति राष्ट्रीय हित के खातिर ही सही कुछ महीनों के लिए पेस के साथ अपने मतभेदों को क्यों नहीं भूल जाते हैं। यह वही लिएंडर पेस हैं जिन्होंने भूपति को भूपित बनने में मदद की है। भूपति को डेविस कप में अच्छे प्रदर्शन के बाद एटीपी सर्किट में अपना युगल जोड़ीदार बनने की पेशकश लिएंडर ने ही की थी। सभी जानते हैं कि लिएंडर सिंगल्स के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी थे लेकिन उन्होंने इसकी परवाह न करते हुए भूपति के साथ जोड़ी बनाई थी।
लगता है समय के साथ भूपति को पेस से जलन होने लगी। उनके मन में यह बात घर करने लगी कि सारी कामयाबियों का सेहरा पेस के सिर ही बंध जाता है। यह सही है कि पेस-भूपति की साझा कामयाबियों में ज्यादा श्रेय लिएंडर को मिला लेकिन भूपति ने शायद इसके पीछे मौजूद कारण को जानने की कोशिश नहीं की।
लिएंडर उन खिलाडि़यों में हैं जिन्होंने हमेशा तिरंगे की शान के लिए खेला है। एटीपी सर्किट में वह भले ही किसी औने-पौने खिलाड़ी से हार जाते हैं लेकिन डेविस कप, एशियन गेम्स और ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में वह खुद से कई गुना अच्छे खिलाडि़यों को धूल चटा देते हैं। पेस की इसी खूबी ने उन्हें देशवासियों का लाडला बना दिया। भूपति को शायद पेस की यही लोकप्रियता अखर रही है। वह सोचते होंगे कि अगर वह पेस के साथ ओलंपिक पदक जीत जाते हैं तो दुनिया कहेगी कि पेस ने अपने कैरियर में दो बार ओलंपिक पदक जीता है जबकि भूपति ने सिर्फ एक बार।
भूपति युवा खिलाड़ी रोहन बोपन्ना के साथ जोड़ी बनाना चाहते हैं। बोपन्ना ने भले पिछले एक-दो सालों में पाकिस्तान के ऐसाम उल हक कुरैशी के साथ मिलकर दो-चार एटीपी चैलेंजर्स में अच्छा प्रदर्शन किया हो लेकिन अभी वह इतने मंझे हुए खिलाड़ी नहीं बने हैं कि ओलंपिक पदक जीत लें। शायद भूपति इस बात के जुगाड़ में हैं कि किसी भी तरह से पेस को ओलंपिक में दूसरी कामयाबी से रोका जाए लेकिन भला हो भारतीय टेनिस संघ का कि उसने भूपति की मांग को सिरे से ठुकरा दिया है और उन्हें यह निर्देश दिया है उनकी जोड़ी सिर्फ और सिर्फ पेस के साथ ही बनेगी।
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