Friday, June 27, 2008

एक देश जहां क्रिकेट खात्मे के कगार पर है

1983 विश्व कप शुरू होने से पहले जिन देशों से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद की जा रही थी उसमें आश्चर्यजनक रूप से एक नाम जिम्बाब्वे का भी था। जिम्बाब्वे ने वाकई उस विश्व कप में अच्छा खेल दिखाया। हालांकि यह टीम सेमीफाइनल में नहीं पहुंच सकी लेकिन उसने लीग मैचों में आस्ट्रेलिया को जरूर मात दे दी। इसका सीधा फायदा भारत को मिला और आगे जो हुआ वह भारतीय क्रिकेट के इतिहास में सबसे स्वर्णिम अध्याय के रूप में दर्ज हो चुका है।

इसी तरह 1999 में विश्व कप में इसी जिम्बाब्वे ने भारत को हराकर उसकी उम्मीदों पर तुषारापात किया था। 2003 विश्व कप में जिम्बाब्वे की टीम सुपर स्किस में पहुंची थी। 1993 में टेस्ट दर्जा पाने वाली जिम्बाब्वे ने क्रिकेट के इस पारंपरिक स्वरूप में भी अच्छी सफलता प्राप्त की। भारत के खिलाफ हुए अपने पहले टेस्ट को ड्रा करा जिम्बाब्वे उन चुनिंदा टीमों में शामिल हो गई जिसने अपना मैच गंवाया न हो। बाद में जिम्बाब्वे ने भारत और पाकिस्तान जैसी टेस्ट टीमों को मात भी दी। यह एक ऐसी उपलब्धि है जो बांग्लादेश इतने मैच खेलकर भी हासिल नहीं कर पाया है। इतना ही नहीं यहां का एक बल्लेबाज एंडी फ्लावर जिसके नाम से आप अच्छी तरह परिचित होंगे एक समय आईसीसी टेस्ट बल्लेबाजों की सूची में शीर्ष पर कायम था। इसके पूर्व कप्तान हीथ स्ट्रीक की गिनती दुनिया के चुनिंदा ऑलराउंडरों में होती थो पॉल स्ट्रांग को अब तक क्रिकेट खेल चुके 10 बेहतरीन लेग स्पिनरों में से एक माना जाता था। इसी जिम्बाब्वे ने डेविड हाटन और अली शाह जैसे उम्दा बल्लेबाज भी दिए।

लेकिन अफसोस कभी क्रिकेट जगत में मजबूत पहचान बनाने का माद्दा रखना रखने वाला जिम्बाब्वे क्रिकेट आज खात्मे की कगार पर है। राष्ट्रपति राबर्ट मुगाबे की नस्लभेदी नीतियों की वजह कई प्रतिभाशाली क्रिकेटर वहां से पलायन कर गए। टीम बेहद कमजोर हुई और आईसीसी ने उसे टेस्ट खेलने से प्रतिबंधित कर दिया। हालांकि जिम्बाब्वे आईसीसी का पूर्णकालिक सदस्य बना रहा और उसे आईसीसी टूर्नामेंटों के जरिए मोटी रकम का मिलना भी जारी रहा। वेस्टइंडीज में हुए पिछले विश्व कप में बेहद घटिया प्रदर्शन के बावजूद जिम्बाब्वे क्रिकेट बोर्ड को करीब 50 करोड़ रुपये का लाभ हुआ।

अब आईसीसी के सदस्य देशों के बीच यह बहस तेज हो गई है कि जिम्बाब्वे की पूर्णकालिक सदस्यता खत्म की जाए। कई सदस्य देशों का आरोप है कि जिम्बाब्वे आईसीसी से मिलने वाली रकम का सही इस्तेमाल नहीं कर रहा है और उसकी टीम इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने लायक नहीं रही। इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तो काफी समय से जिम्बाब्वे की राजनीतिक स्थिति बदतर होने के कारण उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कभी जिम्बाब्वे का कट्टर समर्थक माने जाने वाले दक्षिण अफ्रीका ने भी अपने इस पड़ोसी देश के साथ सभी प्रकार के क्रिकेट संबंध खत्म करने की बात कही है। इंग्लैंड ने भी 2009 में प्रस्तावित अपना जिम्बाब्वे दौरा रद कर दिया है।

हालांकि जिम्बाब्वे को अभी भी दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई से समर्थन मिलना जारी है। बीसीसीआई का कहना है कि क्रिकेट और राजनीति को आपस में नहीं मिलाना चाहिए। उम्मीद है कि अगले आईसीसी बैठक में भारत फिर जिम्बाब्वे का समर्थन करे। जिम्बाब्वे को समर्थन देने के पीछे बीसीसीआई की वोट बैंक पालिसी भी बहुत हद तक जिम्मेवार है। याद कीजिए 1996 का विश्व कप जो भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका में आयोजित हुआ था। इस विश्व की मेजबानी को लेकर इन एशियाई देशों को इंग्लैंड से कड़ी चुनौती मिल रही थी। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और वेस्टइंडीज भी इंग्लैंड का समर्थन कर रहे थे। लेकिन तब जिम्बाब्वे ने दक्षिण अफ्रीका के साथ एशियाई देशों को अपना समर्थन दिया और यह विश्व कप भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका में हो सका। इसी तरह 2011 विश्व कप की मेजबानी के लिए भी जिम्बाब्वे ने भारत का समर्थन किया।

लेकिन सवाल यह उठता है कि वोट बैंक पालिसी के कारण क्या बीसीसीआई को जिम्बाब्वे के बुरे हालातों को नजरअंदाज कर देना चाहिए। रंगभेद तो रंगभेद है चाहे गोरों के खिलाफ हो या कालों के खिलाफ उसका विरोध होना चाहिए। रंगभेद ही नहीं जिम्बाब्वे क्रिकेट में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला है। साथ ही वहां की टीम भारत की किसी रणजी टीम को भी हरा पाने का माद्दा नहीं रखती। अगर बीसीसीआई जिम्बाब्वे का समर्थन करती है तो इससे वहां की क्रिकेट बेहतर होने की बजाए और बदतर होगी। अगर किसी को गलती का अहसास न कराया जाए तो वह सुधरेगा कैसे। अब बीसीसीआई का फर्ज है कि वह जिम्बाब्वे क्रिकेट की बेहतरी में कदम उठाए और अगर आईसीसी में जिम्बाब्वे की पूर्णकालिक सदस्यता खत्म करने के लिए वोटिंग होती है तो इस वोटिंग के पक्ष में मतदान करे।

इससे क्या होगा? जिम्बाब्वे आईसीसी का पूर्णकालिक सदस्य होने की बजाय फिर से एक एसोसिएट देश रह जाएगा। उसे अपनी गलतियों का अहसास होगा और वह फिर से अपनी जड़े मजबूत करने की कोशिश करेगा। इन सब से आखिर में क्रिकेट का ही भला होगा और दर्शक एकतरफा मुकाबला देखने से बच जाएंगे।

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