1983 विश्व कप शुरू होने से पहले जिन देशों से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद की जा रही थी उसमें आश्चर्यजनक रूप से एक नाम जिम्बाब्वे का भी था। जिम्बाब्वे ने वाकई उस विश्व कप में अच्छा खेल दिखाया। हालांकि यह टीम सेमीफाइनल में नहीं पहुंच सकी लेकिन उसने लीग मैचों में आस्ट्रेलिया को जरूर मात दे दी। इसका सीधा फायदा भारत को मिला और आगे जो हुआ वह भारतीय क्रिकेट के इतिहास में सबसे स्वर्णिम अध्याय के रूप में दर्ज हो चुका है।
इसी तरह 1999 में विश्व कप में इसी जिम्बाब्वे ने भारत को हराकर उसकी उम्मीदों पर तुषारापात किया था। 2003 विश्व कप में जिम्बाब्वे की टीम सुपर स्किस में पहुंची थी। 1993 में टेस्ट दर्जा पाने वाली जिम्बाब्वे ने क्रिकेट के इस पारंपरिक स्वरूप में भी अच्छी सफलता प्राप्त की। भारत के खिलाफ हुए अपने पहले टेस्ट को ड्रा करा जिम्बाब्वे उन चुनिंदा टीमों में शामिल हो गई जिसने अपना मैच गंवाया न हो। बाद में जिम्बाब्वे ने भारत और पाकिस्तान जैसी टेस्ट टीमों को मात भी दी। यह एक ऐसी उपलब्धि है जो बांग्लादेश इतने मैच खेलकर भी हासिल नहीं कर पाया है। इतना ही नहीं यहां का एक बल्लेबाज एंडी फ्लावर जिसके नाम से आप अच्छी तरह परिचित होंगे एक समय आईसीसी टेस्ट बल्लेबाजों की सूची में शीर्ष पर कायम था। इसके पूर्व कप्तान हीथ स्ट्रीक की गिनती दुनिया के चुनिंदा ऑलराउंडरों में होती थो पॉल स्ट्रांग को अब तक क्रिकेट खेल चुके 10 बेहतरीन लेग स्पिनरों में से एक माना जाता था। इसी जिम्बाब्वे ने डेविड हाटन और अली शाह जैसे उम्दा बल्लेबाज भी दिए।
लेकिन अफसोस कभी क्रिकेट जगत में मजबूत पहचान बनाने का माद्दा रखना रखने वाला जिम्बाब्वे क्रिकेट आज खात्मे की कगार पर है। राष्ट्रपति राबर्ट मुगाबे की नस्लभेदी नीतियों की वजह कई प्रतिभाशाली क्रिकेटर वहां से पलायन कर गए। टीम बेहद कमजोर हुई और आईसीसी ने उसे टेस्ट खेलने से प्रतिबंधित कर दिया। हालांकि जिम्बाब्वे आईसीसी का पूर्णकालिक सदस्य बना रहा और उसे आईसीसी टूर्नामेंटों के जरिए मोटी रकम का मिलना भी जारी रहा। वेस्टइंडीज में हुए पिछले विश्व कप में बेहद घटिया प्रदर्शन के बावजूद जिम्बाब्वे क्रिकेट बोर्ड को करीब 50 करोड़ रुपये का लाभ हुआ।
अब आईसीसी के सदस्य देशों के बीच यह बहस तेज हो गई है कि जिम्बाब्वे की पूर्णकालिक सदस्यता खत्म की जाए। कई सदस्य देशों का आरोप है कि जिम्बाब्वे आईसीसी से मिलने वाली रकम का सही इस्तेमाल नहीं कर रहा है और उसकी टीम इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने लायक नहीं रही। इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तो काफी समय से जिम्बाब्वे की राजनीतिक स्थिति बदतर होने के कारण उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कभी जिम्बाब्वे का कट्टर समर्थक माने जाने वाले दक्षिण अफ्रीका ने भी अपने इस पड़ोसी देश के साथ सभी प्रकार के क्रिकेट संबंध खत्म करने की बात कही है। इंग्लैंड ने भी 2009 में प्रस्तावित अपना जिम्बाब्वे दौरा रद कर दिया है।
हालांकि जिम्बाब्वे को अभी भी दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई से समर्थन मिलना जारी है। बीसीसीआई का कहना है कि क्रिकेट और राजनीति को आपस में नहीं मिलाना चाहिए। उम्मीद है कि अगले आईसीसी बैठक में भारत फिर जिम्बाब्वे का समर्थन करे। जिम्बाब्वे को समर्थन देने के पीछे बीसीसीआई की वोट बैंक पालिसी भी बहुत हद तक जिम्मेवार है। याद कीजिए 1996 का विश्व कप जो भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका में आयोजित हुआ था। इस विश्व की मेजबानी को लेकर इन एशियाई देशों को इंग्लैंड से कड़ी चुनौती मिल रही थी। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और वेस्टइंडीज भी इंग्लैंड का समर्थन कर रहे थे। लेकिन तब जिम्बाब्वे ने दक्षिण अफ्रीका के साथ एशियाई देशों को अपना समर्थन दिया और यह विश्व कप भारत-पाकिस्तान-श्रीलंका में हो सका। इसी तरह 2011 विश्व कप की मेजबानी के लिए भी जिम्बाब्वे ने भारत का समर्थन किया।
लेकिन सवाल यह उठता है कि वोट बैंक पालिसी के कारण क्या बीसीसीआई को जिम्बाब्वे के बुरे हालातों को नजरअंदाज कर देना चाहिए। रंगभेद तो रंगभेद है चाहे गोरों के खिलाफ हो या कालों के खिलाफ उसका विरोध होना चाहिए। रंगभेद ही नहीं जिम्बाब्वे क्रिकेट में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला है। साथ ही वहां की टीम भारत की किसी रणजी टीम को भी हरा पाने का माद्दा नहीं रखती। अगर बीसीसीआई जिम्बाब्वे का समर्थन करती है तो इससे वहां की क्रिकेट बेहतर होने की बजाए और बदतर होगी। अगर किसी को गलती का अहसास न कराया जाए तो वह सुधरेगा कैसे। अब बीसीसीआई का फर्ज है कि वह जिम्बाब्वे क्रिकेट की बेहतरी में कदम उठाए और अगर आईसीसी में जिम्बाब्वे की पूर्णकालिक सदस्यता खत्म करने के लिए वोटिंग होती है तो इस वोटिंग के पक्ष में मतदान करे।
इससे क्या होगा? जिम्बाब्वे आईसीसी का पूर्णकालिक सदस्य होने की बजाय फिर से एक एसोसिएट देश रह जाएगा। उसे अपनी गलतियों का अहसास होगा और वह फिर से अपनी जड़े मजबूत करने की कोशिश करेगा। इन सब से आखिर में क्रिकेट का ही भला होगा और दर्शक एकतरफा मुकाबला देखने से बच जाएंगे।
Friday, June 27, 2008
Thursday, June 26, 2008
कहां गई कोलिंगवुड की खेल भावना
बुधवार, 25 जून को इंग्लैंड और न्यूजीलैंड के बीच बेहद रोमांचक एक दिवसीय मैच खेला गया। आखिरी ओवर की आखिरी गेंद पर समाप्त हुए मैच में न्यूजीलैंड ने एक विकेट से जीत दर्ज की लेकिन न्यूजीलैंड की पारी के दौरान 44वें ओवर में एक घटना ऐसी घटी जिसने इंग्लैंड के खिलाडि़यों की खेल भावना पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया।
उस वक्त न्यूजीलैंड को 39 गेंदों पर 36 रनों की दरकार थी और उसके तीन विकेट शेष थे। स्ट्राइक पर थे काइल मिल्स और नॉन स्ट्राइक पर खड़े थे ग्रांट इलियट। मिल्स ने एक रन लेने के लिए इलियट को आवाज लगई। इलियट आगे बढ़े लेकिन उनकी राह में गेंदबाज साइड बाटम आ गए। दोनों के बीच रग्बी स्टाइल में टक्कर हुई और चोट खाए इलियट बीच पिच पर गिर गए। फील्डर इयान बेल ने गेंद थ्रो की और यह जानने के बावजूद कि इलयिट उनके गेंदबाज साइडबाटम से टकराने की वजह से क्रीज पर गिरे हैं केविन पीटरसन ने उन्हें रन आउट कर दिया। अंपायर मार्क बेंसन ने स्थिति की नजाकत को भांपते हुए इंग्लिश कप्तान पॉल कोलिंगवुड को अपील वापस ले लेने की सलाह दी लेकिन जीत दर्ज करने के नशे में चूर कोलिंगवुड ने अंपयार की यह सलाह नहीं मानी। हालांकि मिल्स ने कोलिंगवुड का सपना पूरा नहीं होने दिया और अपनी टीम को एक विकेट से जीत दिला दी।
इस घटना ने यह तो साबित कर ही दिया है अक्सर खेल भावना पर लंबी-लंबी स्पीच देने वाले इंग्लैंड के खिलाड़ी समय आने पर खुद इससे कन्नी काट जाते हैं। वह अक्सर एशियाई खिलाडि़यों पर इल्जाम लगाते हैं कि वे खेल भावना का ख्याल नहीं रखते। इंग्लैंड वाले अपने खेलने के तरीके और अपने दर्शकों के सभ्य व्यवहार पर हमेशा गर्व करते हैं। लेकिन यहां तो न ही उनके कप्तान ने सभ्यता दिखाई और न ही उनके दर्शकों ने। लाचार हालात में रन आउट होकर इलियट पवेलियन लौट रहे थे और इंग्लिश दर्शक खुशी में झूम रहे थे।
ये वही कोलिंगवुड हैं जिन्होंने पिछले वर्ष हुई भारत-इंग्लैंड सीरीज के दौरान भारतीय खिलाडि़यों पर खेल भावना के साथ न खेलने का आरोप लगाया था। सात वनडे मैचों की उस सीरीज के पांचवें मैच में कोलिंगवुड खुद रन आउट हुए थे। भारतीयों ने अपील की लेकिन अंपयार थर्ड अंपायर से मदद लेने के लिए तैयार नहीं दिख रहे थे। तभी जाइंट स्क्रीन पर रिप्ले उभरी जिसमें साफ था कि कोलिंगवुड रन आउट हैं। तब भारतीयों द्वारा एक बार फिर अपील करने के बाद अंपायर ने कोलिंगवुड को आउट दिया। उस घटना ने कोलिंगवुड खासे नाराज थे। उनका कहना था कि भारतीयों ने अंपायर पर दबाव बनाया और फील्ड अंपायर को रिप्ले देखकर आउट नहीं देना चाहिए था।
Sunday, June 22, 2008
एक शख्स जो चूहे को शेर बना देता है
तमाम कयासों को झुठलाते हुए रूस यूरो कप फुटबाल के सेमीफाइनल में पहुंच चुका है। क्वार्टर फाइनल में उसने हालैंड जैसी कद्दावर टीम को मात दी जिसे तमाम फुटबाल विश्लेषक इस खिताब के जीतने का सबसे बड़ा दावेदार मान रहे थे।
बेशक रूसी खिलाड़ी शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन अगर इस टीम की कामयाबी के पीछे की सबसे बड़ी वजह की बात की जाए तो वह है कोच गस हिडिंक। वैसे तो इस टूर्नामेंट में खेल रही सभी टीमों के पास एक से एक कोच हैं लेकिन उनमें से कोई भी गस हिडिंक के मुकाबले का नहीं है।
हालैंड के रहने वाले हिडिंग चाहें तो किसी भी बड़ी टीम के साथ जुड़ सकते हैं लेकिन वह ऐसा नहीं करते। उन्हें चुनौती पसंद है और वह हमेशा किसी कमजोर मानी जाने वाली टीम से जुड़ते हैं और उसके खिलाडि़यों में ऐसा आत्मविश्वास भरते हैं कि वे दुनिया की नामचीन टीमों को भी धूल चटाने का माद्दा रखने वाले बन जाते हैं।
याद कीजिए 2002 का विश्व कप जब दक्षिण कोरिया की बेहद कमजोर मानी जाने वाली टीम ने सेमीफाइनल तक का सफर तय किया था। सेमीफाइनल में कोरिया को जर्मनी से हार का मुंह देखना पड़ा था लेकिन इस जीत के लिए जर्मनी को नाकों चने चबाने पड़ थे। उस वक्त कोरियाई टीम के कोच थे गस हिडिंक। टूर्नामेंट शुरू होने से पहले कोरियाई टीम तब तक खेले सभी विश्व कप मैचों में से एक में भी जीत दर्ज नहीं कर सकी थी। सभी विश्लेषक मान रहे थे कि कोरिया लीग राउंड से ही बाहर हो जाएगी लेकिन हिडिंक की सेना से ऐसा कमाल किया कि फुटबाल जगत हतप्रभ हो गया था। हिडिंक के योगदान से कोरियाई इतने प्रभावित हुए कि उन्हें कोरियाई नागरिकता देने की मांग उठने लगी थी।
इसके बाद हिडिंक ने आस्ट्रेलिया का दामन थामा। उस आस्ट्रेलिया का जिसने पिछले 32 साल से विश्व कप के लिए क्वालीफाई नहीं किया था। हिडिंक ने न सिर्फ आस्ट्रेलिया को जर्मनी में हुए 2006 विश्व कप के लिए क्वालीफाई करवाया बल्कि उसे क्वार्टर फाइनल तक भी पहुंचाया। क्वार्टर फाइनल में आस्ट्रेलिया उस विश्व चैंपियन टीम इटली से पराजित हुई। मैच के दरम्यान आस्ट्रेलिया का ही पलड़ा भारी लग रहा था लेकिन एक बेहद विवादास्पद पेनाल्टी की वजह से इटली फाइनल में पहुंचने में सफल रहा जहां उसने एक और विवादास्पद मैच में फ्रांस को हराकर खिताब पर कब्जा किया।
कुछ इसी तरह का कमाल हिडिंक ने रूस की टीम के साथ भी किया है। हालैंड की टीम ने जिस तरह तीन लीग मैचों में 9 गोल किए थे और सिर्फ एक खाए थे उससे तो यही लग रहा था उसे असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर होगा। लेकिन हिडिंक की अगुवाई में रूस ने यह कमाल कर दिया है। सेमीफाइनल में उसका मुकाबला इटली और स्पेन की बीच होने वाले मैच के विजेता से होगा। रूस यूरो कप जीते या न जीते लेकिन उसे सेमीफाइनल में पहुंचा कर हिडिंक ने चूहे को शेर में बदलने की अपनी ताकत का एक बार फिर बेहतरीन नमूना पेश किया है।
Friday, June 20, 2008
हिंदी फिल्मों की बॉक्सिंग
बुधवार देर रात को मनोरंजन चैनल जी नैक्सट पर सोहेल खान अभिनीत और निर्देशित फिल्म आर्यन आ रही थी। वैसे सोहेल खान की फिल्में मुझे ज्यादा नहीं भाती लेकिन यह फिल्म बॉक्सिंग पर बनी थी इसलिए ठहर गया। पूरी फिल्म देखी। फिल्म ठीक-ठाक भी थी लेकिन इसमें बॉक्सिंग को जिस तरह दिखाया गया वह मुझे कुछ खास नहीं लगा।
फिल्म का नायक आर्यन (सोहेल खान) एक बॉक्सर है और उसका लक्ष्य है नेशनल बॉक्सिंग खिताब जीतना। ध्यान दें नेशनल बॉक्सिंग खिताब। जहां तक मेरी जानकारी है नेशनल बॉक्सिंग एक अमैच्योर प्रतियोगिता है लेकिन इस फिल्म में इसे प्रोफेशनल बॉक्सिंग की तरह दिखाया गया है। फिल्म में दिखाया गया है कि नायक का मुख्य प्रतिद्वंदी रंजीत (इंदर कुमार) तीन बार का नेशनल चैंपियन है और वह पूरे भारत में लोकप्रिय है। मीडिया उसके पीछे-पीछे दौड़ती है और उसके प्रशंसक उसकी एक झलक पाने को बेताब रहते हैं। यह भी दिखाया गया है कि क्लाइमैक्स में आर्यन और रंजीत के बीच होने वाले मुकाबले का टेलीविजन पर सीधा प्रसारण हो रहा है।
मुझे ताज्जुब हो रहा है कि भारत में अमैच्योर बॉक्सिंग कब से इतनी लोकप्रिय हो गई और कब से मीडिया एक नेशनल बॉक्सिंग चैंपियन के पीछे भागने लगी। यहां लोग मोहम्मद अली, माइकल टायसन और इवांडर होलीफील्ड जैसे प्रोफेसनल हैवीवेट मुक्केबाजों का नाम भले ही जानते हों लेकिन वे नेशनल चैंपियन का नाम याद नहीं रखते।
अगर आपने कभी अमैच्यौर बॉक्सिंग देखी हो (नेशनल या इंटनेशनल) तो आपको इस फिल्म में दिखाए गए सभी सिक्वैंस बड़े ही बेतरतीब लगेंगे। फिल्म में यह भी नहीं बताया गया कि आर्यन किस भार वर्ग (लाइटवेट, बैंटमवेट या हैवीवेट) का बॉक्सर है। फिल्म में फाइनल मुकाबला दस राउंड का दिखाया गया है जबकि नेशनल बॉक्सिंग के मुकाबले दो-दो मिनट के तीन राउंड के होते हैं और हर राउंड के बीच एक मिनट का अंतराल होता है। हालांकि ओलंपिक और कॉमनवेल्थ जैसी प्रतियोगिताओं में यह चार राउंड का होता है। फिल्म में आर्यन की पूरी तैयारी एक गाने में खत्म हो जाती है जबकि फाइनल मुकाबला करीब 25-30 मिनट तक चलता है।
हाल ही में बॉक्सिंग पर एक और फिल्म बनी है जिसका नाम है अपने। इसमें आर्यन के उलट प्रोफेसनल बॉक्सिंग को दिखाया गया है। लेकिन यह फिल्म भी बॉक्सिंग पर बनी उम्दा फिल्मों की तुलना में कहीं नहीं ठहरती। इसमें बचपन से एक हाथ से अपाहिज रहने वाले बाबी देओल हाथ ठीक होते ही हैवीवेट मुकाबले में उतर जाते हैं तो कई साल से बॉक्सिंग से दूर रहे सन्नी देओल अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए रिंग में उतरते हैं और वर्ल्ड चैंपियन भी बन जाते हैं। फिल्म के निर्देशक अनिल शर्मा ने हैवीवेट बॉक्सिंग को इस तरह ट्रीट किया कि यह दो बच्चों के बीच गली में होने वाली लड़ाई हो।
पता नहीं भारत में खेल पर सिनेमा बनाने वालों के दिमाग में यह बात क्यों होती है कि नायक को अंत में जीतना ही जीतना है। ऐसा भी नहीं है कि हमारे यहां खेलों में जीत दर्ज करने की जबरदस्त परंपरा रही हो और इसलिए यहां के दर्शक जीत से कम कुछ बर्दास्त नहीं करेंगे। एक आध खेलों को छोड़ दे तो हम इस क्षेत्र में हमेशा ही फिसड्डी ही रहे हैं। इसलिए बेहतर हो कि फिल्म निर्माता अगर खेल पर फिल्म बनाए तो खिलाड़ी (नायक) के बेहतरीन प्रयास को उकेरने की कोशिश करे न कि हर हाल में उसे जीताने की।
वहीं बॉक्सिंग पर बनी कुछ ऑल टाइम ग्रेट फिल्मों की कहानी पर नजर दौड़ाएं तो शायद ही कोई फिल्म अपने नायक या नायिका की रिंग में जीत के साथ समाप्त होती है। 1980 में रोबर्ट डी नीरो अभिनीत रोजिंग बुल इस का शानदार नमूना है। इस फिल्म का नायक जेक लामोटा (नीरो) एक अच्छा बॉक्सर रहता है जो अपने भार वर्ग का चैंपियन है। लेकिन फिल्म की कहानी उसके चैंपियन बनने को लेकर नहीं बल्कि उसके चैंपियन की गद्दी से फिसलकर ओवरवेट हो जाने, एक कामेडियन बनने, किसी कारणवश जेल जाने और जेल से छूटकर फिर बॉक्सर बनने के प्रयास की दास्तान बयान करती है। इस फिल्म की गिनती अमेरिका की सर्वकालिक महान फिल्मों में होती है।
इसी तरह 1976 में बनी फिल्म राकी (जिसने सिलवेस्टर स्टोलेन को पहचान दिलाई) भी बॉक्सिंग पर बनी शानदार फिल्म है। सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर जीतने वाली इस फिल्म के अंत में नायक को बॉक्सिंग फाइट जीतते हुए नहीं बल्कि हारते हुए दिखाया गया है। फिर भी लोग राकी के दीवाने हुए क्योंकि वह भले ही फाइट हार गया लेकिन उसने विश्व चैंपियन को पूरे 15 राउंड तक मुकाबला करने पर मजबूर किया।
बॉक्सिंग पर सबसे हाल-फिलहाल बनी उम्दा फिल्म है मिलियन डॉलर बेबी। इस फिल्म का अंत तो खासा दुखद है। यह फिल्म एक ऐसी महिला बॉक्सर के ऊपर बनी है जो 31 साल की उम्र में विश्व चैंपियन बनने का ख्वाब देखती है। लेकिन अंत में वह चैंपियन नहीं बनती बल्कि गले के आसपास लगी चोट से लकवाग्रस्त हो जाती है। उसके कोच को अपनी शिष्या का दर्द नहीं देखा जाता है और वह उसे एड्रीनेलीन का ओवरडोज देकर कष्टमय जीवन से मुक्ति दिला देता है। इस फिल्म को चार ऑस्कर मिले और 30 मिलियन डालर में बनने वाली इस असाधारण फिल्म ने 220 मिलियन डॉलर कमाए।
कहा जाता है कि हमारे यहां के फिल्म निर्माता हालीवुड से प्रेरणा लेते हैं तो भाई स्पोर्ट्स पर फिल्म बनाते समय यह प्रेरणा कहां चली है। खेल पर फिल्में बनाइए लेकिन ऐसी फिल्में बनाइए जिससे खेल का भला हो, दर्शक खेल के असल स्वरूप से रूबरू हो आप अच्छी कमाई भी करें। आर्यन और अपने दोनों ही फिल्में इन पैमानों पर नाकाम रही और उम्मीद के मुताबिक बुरी तरह पिटी भी।
फिल्म का नायक आर्यन (सोहेल खान) एक बॉक्सर है और उसका लक्ष्य है नेशनल बॉक्सिंग खिताब जीतना। ध्यान दें नेशनल बॉक्सिंग खिताब। जहां तक मेरी जानकारी है नेशनल बॉक्सिंग एक अमैच्योर प्रतियोगिता है लेकिन इस फिल्म में इसे प्रोफेशनल बॉक्सिंग की तरह दिखाया गया है। फिल्म में दिखाया गया है कि नायक का मुख्य प्रतिद्वंदी रंजीत (इंदर कुमार) तीन बार का नेशनल चैंपियन है और वह पूरे भारत में लोकप्रिय है। मीडिया उसके पीछे-पीछे दौड़ती है और उसके प्रशंसक उसकी एक झलक पाने को बेताब रहते हैं। यह भी दिखाया गया है कि क्लाइमैक्स में आर्यन और रंजीत के बीच होने वाले मुकाबले का टेलीविजन पर सीधा प्रसारण हो रहा है।
मुझे ताज्जुब हो रहा है कि भारत में अमैच्योर बॉक्सिंग कब से इतनी लोकप्रिय हो गई और कब से मीडिया एक नेशनल बॉक्सिंग चैंपियन के पीछे भागने लगी। यहां लोग मोहम्मद अली, माइकल टायसन और इवांडर होलीफील्ड जैसे प्रोफेसनल हैवीवेट मुक्केबाजों का नाम भले ही जानते हों लेकिन वे नेशनल चैंपियन का नाम याद नहीं रखते।
अगर आपने कभी अमैच्यौर बॉक्सिंग देखी हो (नेशनल या इंटनेशनल) तो आपको इस फिल्म में दिखाए गए सभी सिक्वैंस बड़े ही बेतरतीब लगेंगे। फिल्म में यह भी नहीं बताया गया कि आर्यन किस भार वर्ग (लाइटवेट, बैंटमवेट या हैवीवेट) का बॉक्सर है। फिल्म में फाइनल मुकाबला दस राउंड का दिखाया गया है जबकि नेशनल बॉक्सिंग के मुकाबले दो-दो मिनट के तीन राउंड के होते हैं और हर राउंड के बीच एक मिनट का अंतराल होता है। हालांकि ओलंपिक और कॉमनवेल्थ जैसी प्रतियोगिताओं में यह चार राउंड का होता है। फिल्म में आर्यन की पूरी तैयारी एक गाने में खत्म हो जाती है जबकि फाइनल मुकाबला करीब 25-30 मिनट तक चलता है।
हाल ही में बॉक्सिंग पर एक और फिल्म बनी है जिसका नाम है अपने। इसमें आर्यन के उलट प्रोफेसनल बॉक्सिंग को दिखाया गया है। लेकिन यह फिल्म भी बॉक्सिंग पर बनी उम्दा फिल्मों की तुलना में कहीं नहीं ठहरती। इसमें बचपन से एक हाथ से अपाहिज रहने वाले बाबी देओल हाथ ठीक होते ही हैवीवेट मुकाबले में उतर जाते हैं तो कई साल से बॉक्सिंग से दूर रहे सन्नी देओल अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए रिंग में उतरते हैं और वर्ल्ड चैंपियन भी बन जाते हैं। फिल्म के निर्देशक अनिल शर्मा ने हैवीवेट बॉक्सिंग को इस तरह ट्रीट किया कि यह दो बच्चों के बीच गली में होने वाली लड़ाई हो।
पता नहीं भारत में खेल पर सिनेमा बनाने वालों के दिमाग में यह बात क्यों होती है कि नायक को अंत में जीतना ही जीतना है। ऐसा भी नहीं है कि हमारे यहां खेलों में जीत दर्ज करने की जबरदस्त परंपरा रही हो और इसलिए यहां के दर्शक जीत से कम कुछ बर्दास्त नहीं करेंगे। एक आध खेलों को छोड़ दे तो हम इस क्षेत्र में हमेशा ही फिसड्डी ही रहे हैं। इसलिए बेहतर हो कि फिल्म निर्माता अगर खेल पर फिल्म बनाए तो खिलाड़ी (नायक) के बेहतरीन प्रयास को उकेरने की कोशिश करे न कि हर हाल में उसे जीताने की।
वहीं बॉक्सिंग पर बनी कुछ ऑल टाइम ग्रेट फिल्मों की कहानी पर नजर दौड़ाएं तो शायद ही कोई फिल्म अपने नायक या नायिका की रिंग में जीत के साथ समाप्त होती है। 1980 में रोबर्ट डी नीरो अभिनीत रोजिंग बुल इस का शानदार नमूना है। इस फिल्म का नायक जेक लामोटा (नीरो) एक अच्छा बॉक्सर रहता है जो अपने भार वर्ग का चैंपियन है। लेकिन फिल्म की कहानी उसके चैंपियन बनने को लेकर नहीं बल्कि उसके चैंपियन की गद्दी से फिसलकर ओवरवेट हो जाने, एक कामेडियन बनने, किसी कारणवश जेल जाने और जेल से छूटकर फिर बॉक्सर बनने के प्रयास की दास्तान बयान करती है। इस फिल्म की गिनती अमेरिका की सर्वकालिक महान फिल्मों में होती है।
इसी तरह 1976 में बनी फिल्म राकी (जिसने सिलवेस्टर स्टोलेन को पहचान दिलाई) भी बॉक्सिंग पर बनी शानदार फिल्म है। सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर जीतने वाली इस फिल्म के अंत में नायक को बॉक्सिंग फाइट जीतते हुए नहीं बल्कि हारते हुए दिखाया गया है। फिर भी लोग राकी के दीवाने हुए क्योंकि वह भले ही फाइट हार गया लेकिन उसने विश्व चैंपियन को पूरे 15 राउंड तक मुकाबला करने पर मजबूर किया।
बॉक्सिंग पर सबसे हाल-फिलहाल बनी उम्दा फिल्म है मिलियन डॉलर बेबी। इस फिल्म का अंत तो खासा दुखद है। यह फिल्म एक ऐसी महिला बॉक्सर के ऊपर बनी है जो 31 साल की उम्र में विश्व चैंपियन बनने का ख्वाब देखती है। लेकिन अंत में वह चैंपियन नहीं बनती बल्कि गले के आसपास लगी चोट से लकवाग्रस्त हो जाती है। उसके कोच को अपनी शिष्या का दर्द नहीं देखा जाता है और वह उसे एड्रीनेलीन का ओवरडोज देकर कष्टमय जीवन से मुक्ति दिला देता है। इस फिल्म को चार ऑस्कर मिले और 30 मिलियन डालर में बनने वाली इस असाधारण फिल्म ने 220 मिलियन डॉलर कमाए।
कहा जाता है कि हमारे यहां के फिल्म निर्माता हालीवुड से प्रेरणा लेते हैं तो भाई स्पोर्ट्स पर फिल्म बनाते समय यह प्रेरणा कहां चली है। खेल पर फिल्में बनाइए लेकिन ऐसी फिल्में बनाइए जिससे खेल का भला हो, दर्शक खेल के असल स्वरूप से रूबरू हो आप अच्छी कमाई भी करें। आर्यन और अपने दोनों ही फिल्में इन पैमानों पर नाकाम रही और उम्मीद के मुताबिक बुरी तरह पिटी भी।
Thursday, June 19, 2008
राजनीति की तरह फुटबाल में भी एंटी इनकंबेंसी
आजकल लगता है फुटबाल को भी राजनीति की एंटी इनकंबेंसी वाली बीमारी लग गई है। जिस प्रकार राजनीति में मौजूदा विधायक, मौजूदा सांसद और मौजूदा सरकार के चुनाव जीतने की संभावना काफी कम रहती है उसी तरह फुटबाल में भी डिफेंडिंग चैंपियनों के जीत की उम्मीद भी कम हो रही है।
इस समय स्विट्जरलैंड में चल रहे यूरो कप का ही उदाहरण ले लीजिए। डिफेंडिंग चैंपियन ग्रीस बिना एक भी गोल किए पहले दौर से बाहर हो गया। उसके खेल को देख कर लगा ही नहीं कि चार साल पहले इसी टीम ने पुर्तगाल की धरती पर तमाम यूरोपीय टीमों को धूल चटाई थी। इसी तरह सैफ फुटबाल में भी डिफेंडिंग चैंपियन भारत फाइनल में मालदीव से हारकर बाहर हो गया।
इसी तरह पिछले विश्व कप में ब्राजील की टीम क्वार्टर फाइनल तक का ही सफर तय कर पाई जबकि उसके पिछले विश्व कप में उस समय का डिफेंडिंग चैंपियन फ्रांस पहले ही दौर में बाहर हो गया था। उसे सेनेगल जैसी नौसिखिया टीम ने मात दी थी और फ्रांसीसी टीम तीन लीग मैचों में एक भी गोल नहीं कर पाई थी।
लेकिन जिस तरह राजनीति में कुछ विधायक, सांसद या सरकार लगातार दो बार जीत दर्ज करने में सफल हो जाते हैं उसी तरह फुटबाल में भी एक दो टीम ऐसी है जो लगातार दो बार खिताब जीत जाती है। लेकिन ये टीमें या तो घरेलू फुटबाल की टीमें हैं या क्लब स्तर की। मैनचेस्टर यूनाईटेड और रियाल मैड्रिड ने लगातार दूसरे साल क्रमश: इंग्लिश प्रीमियर लीग और स्पेनिश लीग ला लीगा जीता है। इसी तरह भारत में पंजाब ने लगातार दूसरी बार संतोष ट्राफी पर कब्जा किया।
हालांकि फुटबाल की एंटी इनकंबेंसी राजनीति की एंटी इनकंबेंसी की तुलना में थोड़ी अलग है। राजनीति में चुनाव जितने निचले स्तर हो का मौजूदा विजय उम्मीदवारों के हारने का खतरा उतना ज्यादा होता है। यानी अगर कोई लहर न चल रही हो सांसदों की तुलना में विधायकों के हार का खतरा ज्यादा और विधायकों की तुलना में नगरपालिका के सदस्यों की हार का खतरा उससे भी ज्यादा होता है। वहीं फुटबाल में स्थिति ठीक विपरीत है। टूर्नामेंट जितना बड़ा हो मौजूदा चैंपियन के हार का खतरा उतना ज्यादा रहता है। विश्व कप चैंपियन के ऊपर सबसे ज्यादा खतरा, फिर यूरो कप चैंपियन, कोपा अमेरिका कप चैंपियन, चैंपियंस लीग चैंपियन और विभिन्न देशों घरेलू लीग के चैंपियन का नंबर आता है।
Wednesday, June 18, 2008
कुंद पड़ रही है कंगारुओं की धार
रिकी पोंटिंग की अगुवाई वाली आस्ट्रेलियाई टीम ने भले ही तीन टेस्ट मैचों की सीरीज में वेस्टइंडीज को 2-0 से मात दी हो लेकिन जिस तरह कैरिबियाई खिलाडि़यों ने पाताल नगरी की टीम का सामना किया उससे तो एक बात साफ हो जाती है कि कंगारुओं के आक्रमण में वह धार नहीं है जो एक वर्ष पहले तक थी।
तीसरे टेस्ट में आस्ट्रेलिया ने वेस्टइंडीज के सामने 476 रन का बेहद विशाल लक्ष्य रखा था और उम्मीद की जा रही थी कि वेस्टइंडीज की टीम इतनी बड़ी चुनौती के आगे आसानी से घुटने टेक देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, चौथे और पांचवें दिन की पिच पर भी कैरिबियाई बल्लेबाजों ने जमकर संघर्ष किया और यह मैच सिर्फ 87 रनों से हारे। ऐसा नहीं है कि वेस्टइंडीज का बल्लेबाजी क्रम टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से बहुत शानदार है लेकिन आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी में विविधता की कमी ने वेस्टइंडीज को संघर्ष को लंबा खींचने में मदद पहुंचाई।
यह पिछले कुछ महीनों में कोई पहला अवसर नहीं जब किसी टीम ने टेस्ट मैच की चौथी पारी में आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों के पसीने छुड़ाए हों। पिछले साल के अंत में श्रीलंका ने भी होबार्ट टेस्ट मैच में कुछ ऐसा ही किया था। तब 490 से अधिक रन के लक्ष्य का पीछा करने उतरी श्रीलंकाई टीम सिर्फ 91 रनों से मैच हारी थी। इस हार में भी अंपायर रूडी कोएर्तजन का बड़ा हाथ था। उन्होंने 192 रन के निजी स्कोर पर खेल रहे कुमार संगकारा को बेहद विवादास्पद तरीके से आउट दे दिया था। इस सीरीज के बाद हुई भारत-आस्ट्रेलिया सीरीज में भी भारत ने आस्ट्रेलिया को उसके घर में कड़ी टक्कर दी। अगर सिडनी टेस्ट में पक्षपाती निर्णय नहीं आते तो यह सीरीज या तो ड्रा रहती या इसे भारत जीतता।
आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी इधर कमजोर क्यों नजर आ रही है इसे जानने के लिए किसी राकेट साइंस की जरूरत नहीं है। कोई भी टीम शेन वार्न, ग्लैन मैक्ग्रा, स्टुअर्ट मैकगिल जैसे गेंदबाजों के रिटायर हो जाने से कमजोर होगी। लेकिन आस्ट्रेलिया के जिस मजबूत बेंच स्ट्रेंथ की बात की जा रही थी वह इन तीनों गेंदबाजों के जाने के बाद कसौटी पर खड़ा नहीं उतर रहा है।
ऐसा लग रहा है कि आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी सिर्फ ब्रेट ली के सहारे चल रही है। स्टुअर्ट क्लार्क रिसपोंसिव पिचों पर ही चल पाते हैं जबकि मिशेल जॉनसन आस्ट्रेलियाई परंपरा के हिसाब से कोई धारदार गेंदबाज नहीं लगते। स्पिन विभाग की दास्तान भी कुछ ऐसी ही है। वार्न के संन्यास लेने के बाद से ही स्टुअर्ट मैकगिल फिट नहीं चल रहे थे और जब वह फिट हुए तो उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी। इस हालत में आस्ट्रेलिया गेंदबाजी का स्पिन आक्रमण बेहद कमजोर हो गया। उसने ब्रैड हॉग को मौका दिया लेकिन वह खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए (हालांकि अब हॉग भी संन्यास ले चुके हैं)। वेस्टइंडीज के खिलाफ अंतिम टेस्ट मैच में आस्ट्रेलिया ने बीयू कासन नाम के चाइनामैन गेंदबाज को मौका दिया लेकिन वह तो ब्रैड हॉग से भी कमजोर नजर आते हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि गेंदबाजी कमजोर होने से आस्ट्रेलिया की टीम में अब जीतने का माद्दा नहीं है। वो अब भी जीत रहे हैं और शायद आगे भी जीतेंगे लेकिन उनकी जीत का प्रतिशत पहले की तरह शानदार नहीं होगा। टेस्ट मैचों में आस्ट्रेलिया की नंबर एक गद्दी को फिलहाल कोई खतरा नजर नहीं रहा है। इसके पीछे जो सबसे बड़ी वजह है वह यह कि आस्ट्रेलिया और बाकी टीमों के बीच गुणवत्ता की खाई अभी भी बहुत चौड़ी है। आस्ट्रेलिया का बल्लेबाजी क्रम अभी भी बहुत मजबूत है और साथ ही मानसिक रूप से भी उसके खिलाड़ी बाकी टीमों के खिलाडि़यों की तुलना में बीस है।
तीसरे टेस्ट में आस्ट्रेलिया ने वेस्टइंडीज के सामने 476 रन का बेहद विशाल लक्ष्य रखा था और उम्मीद की जा रही थी कि वेस्टइंडीज की टीम इतनी बड़ी चुनौती के आगे आसानी से घुटने टेक देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, चौथे और पांचवें दिन की पिच पर भी कैरिबियाई बल्लेबाजों ने जमकर संघर्ष किया और यह मैच सिर्फ 87 रनों से हारे। ऐसा नहीं है कि वेस्टइंडीज का बल्लेबाजी क्रम टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से बहुत शानदार है लेकिन आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी में विविधता की कमी ने वेस्टइंडीज को संघर्ष को लंबा खींचने में मदद पहुंचाई।
यह पिछले कुछ महीनों में कोई पहला अवसर नहीं जब किसी टीम ने टेस्ट मैच की चौथी पारी में आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों के पसीने छुड़ाए हों। पिछले साल के अंत में श्रीलंका ने भी होबार्ट टेस्ट मैच में कुछ ऐसा ही किया था। तब 490 से अधिक रन के लक्ष्य का पीछा करने उतरी श्रीलंकाई टीम सिर्फ 91 रनों से मैच हारी थी। इस हार में भी अंपायर रूडी कोएर्तजन का बड़ा हाथ था। उन्होंने 192 रन के निजी स्कोर पर खेल रहे कुमार संगकारा को बेहद विवादास्पद तरीके से आउट दे दिया था। इस सीरीज के बाद हुई भारत-आस्ट्रेलिया सीरीज में भी भारत ने आस्ट्रेलिया को उसके घर में कड़ी टक्कर दी। अगर सिडनी टेस्ट में पक्षपाती निर्णय नहीं आते तो यह सीरीज या तो ड्रा रहती या इसे भारत जीतता।
आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी इधर कमजोर क्यों नजर आ रही है इसे जानने के लिए किसी राकेट साइंस की जरूरत नहीं है। कोई भी टीम शेन वार्न, ग्लैन मैक्ग्रा, स्टुअर्ट मैकगिल जैसे गेंदबाजों के रिटायर हो जाने से कमजोर होगी। लेकिन आस्ट्रेलिया के जिस मजबूत बेंच स्ट्रेंथ की बात की जा रही थी वह इन तीनों गेंदबाजों के जाने के बाद कसौटी पर खड़ा नहीं उतर रहा है।
ऐसा लग रहा है कि आस्ट्रेलियाई गेंदबाजी सिर्फ ब्रेट ली के सहारे चल रही है। स्टुअर्ट क्लार्क रिसपोंसिव पिचों पर ही चल पाते हैं जबकि मिशेल जॉनसन आस्ट्रेलियाई परंपरा के हिसाब से कोई धारदार गेंदबाज नहीं लगते। स्पिन विभाग की दास्तान भी कुछ ऐसी ही है। वार्न के संन्यास लेने के बाद से ही स्टुअर्ट मैकगिल फिट नहीं चल रहे थे और जब वह फिट हुए तो उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी। इस हालत में आस्ट्रेलिया गेंदबाजी का स्पिन आक्रमण बेहद कमजोर हो गया। उसने ब्रैड हॉग को मौका दिया लेकिन वह खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए (हालांकि अब हॉग भी संन्यास ले चुके हैं)। वेस्टइंडीज के खिलाफ अंतिम टेस्ट मैच में आस्ट्रेलिया ने बीयू कासन नाम के चाइनामैन गेंदबाज को मौका दिया लेकिन वह तो ब्रैड हॉग से भी कमजोर नजर आते हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि गेंदबाजी कमजोर होने से आस्ट्रेलिया की टीम में अब जीतने का माद्दा नहीं है। वो अब भी जीत रहे हैं और शायद आगे भी जीतेंगे लेकिन उनकी जीत का प्रतिशत पहले की तरह शानदार नहीं होगा। टेस्ट मैचों में आस्ट्रेलिया की नंबर एक गद्दी को फिलहाल कोई खतरा नजर नहीं रहा है। इसके पीछे जो सबसे बड़ी वजह है वह यह कि आस्ट्रेलिया और बाकी टीमों के बीच गुणवत्ता की खाई अभी भी बहुत चौड़ी है। आस्ट्रेलिया का बल्लेबाजी क्रम अभी भी बहुत मजबूत है और साथ ही मानसिक रूप से भी उसके खिलाड़ी बाकी टीमों के खिलाडि़यों की तुलना में बीस है।
Tuesday, June 17, 2008
क्या पीटरसन का शॉट वाकई नियमों के विपरीत था?
इन दिनों इंग्लैंड के धाकड़ बल्लेबाज केविन पीटरसन क्रिकेटिया हलकों में खासे चर्चा में हैं। लेकिन उनका नाम इसलिए सुर्खियां नहीं बटोर रहा है कि उन्होंने मैदान पर कोई जबरदस्त पारी खेल दी हो या मैदान के बाहर कोई कारनामा कर दिया हो। उनकी चर्चा इसलिए हो रही है कि उन्होंने न्यूजीलैंड के खिलाफ 15 जून को खेले गए वनडे मैच में दो ऐसे शॉट लगाए जो क्रिकेट पंडितों के हलक से नीचे नहीं उतर रहा।
मामले ने कितना तूल पकड़ा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि क्रिकेट नियमों की संरक्षक माने जाने वाली संस्था मेरिलबोन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) ने पीटरसन के शॉट पर विचार करने की बात कही है। दरअसरल पीटरसन ने किवी गेंदबाज स्कॉट स्टायरिस की गेंद पर रिवर्स स्वीप पर दो छक्के जमाए (पहला छक्का 39वें ओवर में और दूसरा 44वें ओवर में)। आप कहेंगे रिवर्स स्वीप में क्या नया है। आपका सोचना सही है रिवर्स स्वीप कोई नया शॉट नहीं है और इस पर पहले कोई शोर शराबा भी नहीं हुआ लेकिन पीटरसन का शॉट परंपरागत रिवर्स स्वीप नहीं था। उन्होंने इन दोनों शॉटों को जमाने से पहला अपना ग्रिप बदलकर दाएं हाथ के बल्लेबाज की जगह बाएं हाथ के बल्लेबाज बन गए। जबकि आम तौर पर रिवर्स स्वीप जमाते हुए बल्लेबाज अपना ग्रिप नहीं बदलता है।
क्रिकेट के नियमों के जानकार का कहना है कि जब गेंदबाज को अंपायर को बताए बिना अपना गेंदबाजी हाथ बदलने की इजाजत नहीं होती तो बल्लेबाज ऐसा कैसे कर सकता है। इन जानकारों के मुताबिक पीटरसन ने अपना ग्रिप बदल कर नियमों की अवहेलना की है।
हालांकि पीटरसन इन आरोपों को बेबुनियाद बताते हैं। उनके मुताबिक उनका शॉट इंप्रोवाइजेशन का शानदार नमूना था। उन्होंने कहा कि मैंने कुछ गलत नहीं किया है और शोर इसलिए मच रहा है कि मैंने रिवर्स स्वीप पर छक्का जड़ दिया जबकि आमतौर पर कोई अन्य बल्लेबाज रिवर्स स्वीप के सहारे गेंद को इतनी दूर तक नहीं मार पाता है।
वैसे देखा जाए तो पीटरसन ने वाकई कुछ गलत नहीं किया है। क्रिकेट में बल्लेबाज और गेंदबाजों के लिए नियमों का एक जैसा होना जरूरी नहीं है। आप ही सोचिए कोई बल्लेबाज अपनी क्रीज से आगे निकलकर शॉट खेल सकता है जबकि कोई गेंदबाज बॉलिंग करते वक्त ऐसा करने की कोशिश करेगा तो उसकी गेंद वह नो बॉल कहलाएगी। बल्लेबाज विकेट के बाएं और दाएं दोनो ओर शॉट खेल सकता है जबकि गेंदबाज या तो ओवर द विकेट गेंद फेंकेगा या राउंड द विकेट। अगर उसे इसमें परिवर्तन करना है तो अंपायर को बताना होगा।
वैसे भी बल्लेबाज किसी भी दिशा में घूमकर बल्लेबाजी करे लेकिन वह प्रमुखता से किसी एक हाथ का ही इस्तेमाल करता है। सौरव गांगुली हैं तो बाएं हत्था बल्लेबाज लेकिन उनके शॉट्स में अक्सर दाएं हाथ का ज्यादा इस्तेमाल होता है।
जब बल्लेबाज के लिए हाथ फिक्स करने की बात हो रही है तो फील्डरों को इस दायरे में क्यों नहीं लाया जाता। इन नियमों के ठेकेदारों की चले तो एक दिन ऐसा नियम भी बन सकता है कि फील्डर को मैच से पहले बताना होगा कि वह कौन से हाथ के कैच पकड़ेगा या किस हाथ से थ्रो करेगा।
मेरे विचार से जिस तरह ऊपर लिखी बातें अटपटी लगती है उसी तरह पीटरसन के शॉट पर उंगली उठाना भी बेहद अटपटा मामला है। यह किसी बल्लेबाज की योग्यता या क्षमता पर निर्भर है कि वह किस प्रकार शॉट खेलता है। हमें पीटरसन की तारीफ करनी चाहिए कि वह दाएं हाथ के बल्लेबाज होने के बावजूद भी बाएं हाथ से छक्का जमा सकते हैं।
Monday, June 16, 2008
लो एक और चाइनामैन आ गया
वेस्टइंडीज के खिलाफ चल रही टेस्ट सीरीज के तीसरे और आखिरी मैच में आस्ट्रेलिया ने एक नए लेफ्ट आर्म स्पिनर बीयू कासन को मौका दिया। कासन हैं तो लेफ्ट आर्म स्पिनर लेकिन वह परंपरागत शैली वाले लेफ्ट आर्म स्पिनर नहीं हैं। वह हाल ही में संन्यास ले चुके एक अन्य आस्ट्रेलियाई स्पिनर ब्रैड हॉग की ही तरह लेफ्ट आर्म चाइनामैन स्पिनर हैं।
इससे पहले इस आलेख को आगे बढ़ाऊं यह स्पष्ट करता चलूं कि ये चाइनामैन स्पिन है क्या बला। चाइनामैन उस लेफ्ट आर्म स्पिनर को कहते हैं जो उंगली की बजाय कलाई के सहारे गेंद को स्पिन कराता है और उसकी मुख्य गेंद आर्थोडोक्स लेफ्ट आर्मर के विपरीत किसी दाएं हाथ के बल्लेबाज के लिए ऑफ स्पिन होती है। यूं समझ लें कि कोई चाईनामैन स्पिनर किस दाएं हाथ के लेग स्पिनर का मिरर इमेज है। कभी शेन वार्न, दानिश कनेरिया या पीयूष चावला की गेंदबाजी को आइने में देख लीजिए यही है चाइनामैन लेग स्पिन। वहीं लेफ्ट आर्म आर्थोडोक्स स्पिन गेंदबाज अपनी उंगली से गेंद को स्पिन कराता है और उसकी मुख्य गेंद वह होती है जो किसी दाएं हाथ के बल्लेबाज के लिए लेग ब्रेक हो।
ब्रैड हॉग और बीयू कासन से पहले जो लेफ्ट आर्म स्पिनर चर्चा में आया था वह है दक्षिण अफ्रीका का पॉल एडम्स। चाइनामैन गेंदबाज होने के साथ-साथ एडम्स का एक्शन भी थोड़ा अजीबो-गरीब था जिस वजह से दर्शकों के बीच खासे लोकप्रिय रहे थे।
टेस्ट क्रिकेट में जो चाइनामैन गेंदबाज सबसे सफल रहा है वह है वेस्टइंडीज के महान ऑलराउंड सर गारफील्ड सोबर्स (हालांकि वह लेफ्ट आर्म आर्थोडोक्स और लेफ्ट आर्म मीडियम पेस भी फेंकते थे)। सोबर्स ने जब टेस्ट क्रिकेट में नए-नए आए थे थो विरोधी बल्लेबाज उन्हें लेफ्ट आर्म आर्थोडोक्स स्पिनर समझ कर खेलने की गलती करते थे और चकमा खा जाते थे। इसी तरह ब्रैड हॉज भी एक दिवसीय क्रिकेट में खासे सफल रहे। हालांकि सभी बल्लेबाजों को पता होता था कि वह चाइनामैन गेंदबाज हैं लेकिन इस तरह की गेंदबाजी का सामना करने का कम आदि होने के कारण बल्लेबाजों को मुश्किल पेश आती थी।
किसी लेग स्पिनर की ही तरह चाइनामैन गेंदबाज की भी गुगली (दाएं हाथ के बल्लेबाज के लिए लेग ब्रेक) भी काफी घातक साबित होती है। इसके अलावा चाइनामैन गेंदबाज फिलीपर और स्कीडर जैसी गेंदें भी फेंकने में सक्षम होता है।
Sunday, June 15, 2008
पाकिस्तान से मिली हार बर्दाश्त नहीं होती
शनिवार को बांग्लादेश में खेले गए किट प्लाई कप के फाइनल मुकाबले में टीम इंडिया पाकिस्तान से 25 रनों से हार गई। चुकी यह हार फाइनल मुकाबला में मिली इसलिए दुख भी ज्यादा हो रहा था लेकिन उससे भी बड़ा दुख था कि आखिर हमारी टीम पाकिस्तान से क्यों हारी।
लोग कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में भारत-पाकिस्तान के बीच कटुता कम हुई है और पाकिस्तान से हार कर भारतीयों के मन मस्तिष्क पर उतनी ठेस नहीं लगती जितना कि 80 या 90 के दशकों में लगा करती थी। लेकिन लाख समझाने के बावजूद मेरा मन आज भी वैसा ही है और आज भी पाकिस्तान से हारने पर मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरे हृदय में आज भी पाकिस्तान के लिए कोई प्रेम भाव नहीं है। मैं संप्रदायवादी नहीं हूं और न ही यह मेरे पाकिस्तान के प्रति नफरत का आधार है। मैं पाकिस्तान से इसलिए नफरत करता हूं कि उसने हमारे ऊपर चार युद्ध थोपे और उसकी वजह से हम गरीबी दूर करने की बजाय युद्ध के साजो-सामान खरीदने पर मजबूर हैं। तो भला ऐसे देश से प्रेम कैसा।
लोग मुझसे पूछते हैं कि उस नफरत को क्रिकेट में क्यों लाते हो यह तो महज खेल है। लोगों के लिए यह खेल हुआ करे लेकिन मेरे लिए यह पाकिस्तान से युद्ध के मैदान के बाद भिड़ंत का दूसरा सबसे बड़ा अखाड़ा है। मुझे पता है कि क्रिकेट में कभी जीत तो कभी हार लगी रहती है लेकिन पाकिस्तान से हार कर दिल और दिमाग में आग लग जाती है और कम से एक-दो दिन तक तो बिल्कुल नहीं बुझती है।
हो सकता है मेरी सोच गलत हो लेकिन मामला जब जज्बाती हो जाए तो सोच की फिक्र कहां रहती है। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय टीम की हार पर भी कहे वेल ट्राइड, वेल प्लेड।
लोग कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में भारत-पाकिस्तान के बीच कटुता कम हुई है और पाकिस्तान से हार कर भारतीयों के मन मस्तिष्क पर उतनी ठेस नहीं लगती जितना कि 80 या 90 के दशकों में लगा करती थी। लेकिन लाख समझाने के बावजूद मेरा मन आज भी वैसा ही है और आज भी पाकिस्तान से हारने पर मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरे हृदय में आज भी पाकिस्तान के लिए कोई प्रेम भाव नहीं है। मैं संप्रदायवादी नहीं हूं और न ही यह मेरे पाकिस्तान के प्रति नफरत का आधार है। मैं पाकिस्तान से इसलिए नफरत करता हूं कि उसने हमारे ऊपर चार युद्ध थोपे और उसकी वजह से हम गरीबी दूर करने की बजाय युद्ध के साजो-सामान खरीदने पर मजबूर हैं। तो भला ऐसे देश से प्रेम कैसा।
लोग मुझसे पूछते हैं कि उस नफरत को क्रिकेट में क्यों लाते हो यह तो महज खेल है। लोगों के लिए यह खेल हुआ करे लेकिन मेरे लिए यह पाकिस्तान से युद्ध के मैदान के बाद भिड़ंत का दूसरा सबसे बड़ा अखाड़ा है। मुझे पता है कि क्रिकेट में कभी जीत तो कभी हार लगी रहती है लेकिन पाकिस्तान से हार कर दिल और दिमाग में आग लग जाती है और कम से एक-दो दिन तक तो बिल्कुल नहीं बुझती है।
हो सकता है मेरी सोच गलत हो लेकिन मामला जब जज्बाती हो जाए तो सोच की फिक्र कहां रहती है। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय टीम की हार पर भी कहे वेल ट्राइड, वेल प्लेड।
Friday, June 13, 2008
सिर्फ पांच मैच और इनाम 420 करोड़
जी हां पांच मैच और इनाम 420 करोड़ रुपये। इतनी बड़ी इनामी राशि किसी फुटबाल, बास्केटबाल, डब्ल्यूडब्ल्यूई, बेसबाल या बाक्सिंग मैचों के लिए नहीं बल्कि यह ट्वंटी 20 क्रिकेट मैचों के लिए है। और इन मैचों में पैसों के लिहाज से विश्व क्रिकेट पर राज करने वाली बीसीसीआई की टीम भाग नहीं लेगी और न ही आईपीएल की कोई टीम।
ये मैच खेले जाएंगे वेस्टइंडीज के ऑल स्टार इलेवन और इंग्लैंड के बीच और इन मैचों पर इतना पैसा लुटाने वाला शख्स है टेक्सास का अरबपति विलियम स्टेनफोर्ड। वही स्टेनफोर्ड जो वेस्टइंडीज की घरेलू ट्वंटी 20 लीग को प्रायोजित करता है। उन्होंने पिछले साल ट्वंटी 20 विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम को वेस्टइंडीज ऑल स्टार इलेवन के साथ 80 करोड़ रुपये का एक मैच खेलने के लिए आमंत्रित किया था लेकिन बीसीसीआई ने उनकी इस पेशकश को नकार दिया था।
अब स्टेनफोर्ड ने इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड [ईसीबी] के साथ करार किया है जिसके तहत वेस्टइंडीज और इंग्लैंड की टीमें अगले पांच सालों में आपस में पांच ट्वंटी 20 मैच खेलेंगी। इन पांच मैचों के लिए 100 मिलियन डालर यानी 420 करोड़ रुपये दाव पर होंगे। यानी एक मैच की कीमत होगी 20 मिलियन डालर [84 करोड़ रुपये]। एक मैच में विजेता टीम के सभी खिलाडि़यों को 1-1 मिलियन डालर मिलेंगे [4 करोड़ 20 लाख रुपये प्रति खिलाड़ी]। अंतिम 11 में स्थान न बना पाने वाले खिलाड़ी एक मिलियन डाल में साझा करेंगे जबकि टीम मैनेजमेंट को भी एक मिलियन डालर मिलेंगे। बाकी सात मिलियन डालर में ईसीबी और वेस्टइंडीज क्रिकेट बार्ड आधा-आधा शेयर करेंगे।
इस तरह विजेता टीम के खिलाडि़यों को सिर्फ एक मैच से जो रकम मिलेगी वह इंडियन प्रीमियर लीग में भाग लेने वाले ज्यादातर खिलाडि़यों को एक सत्र के लिए मिलने वाली राशि से ज्यादा होगी।
स्टेनफोर्ड पहले ही कह चुके हैं कि ट्वंटी 20 क्रिकेट में इतना दम है कि वह दुनिया में फुटबाल के प्रति मौजूदा दीवानगी को भी पीछे छोड़ दे। कम से कम पैसों बारिश के हिसाब से देखा जाए तो उनका पूर्वानुमान कोई बहुत बड़ा दुस्साहस नहीं लगता। स्टेनफोर्ड एक कामयाब बिजनेसमैन हैं और अगर उन्हें क्रिकेट में इतनी संभावनाएं दिख रही हैं तो इसके पीछे जरूर कोई न कोई कारण होगा। खैर उनकी यह पहल कितनी कामयाब होती है यह तो आने वाला वक्त बताएगा। हालांकि स्टेनफोर्ड की कार्ययोजना में शायद भारत फिट नहीं बैठता नहीं तो आईपीएल टीमों के लिए हुई खुली बोली में शिरकत जरूर करते।
ये मैच खेले जाएंगे वेस्टइंडीज के ऑल स्टार इलेवन और इंग्लैंड के बीच और इन मैचों पर इतना पैसा लुटाने वाला शख्स है टेक्सास का अरबपति विलियम स्टेनफोर्ड। वही स्टेनफोर्ड जो वेस्टइंडीज की घरेलू ट्वंटी 20 लीग को प्रायोजित करता है। उन्होंने पिछले साल ट्वंटी 20 विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम को वेस्टइंडीज ऑल स्टार इलेवन के साथ 80 करोड़ रुपये का एक मैच खेलने के लिए आमंत्रित किया था लेकिन बीसीसीआई ने उनकी इस पेशकश को नकार दिया था।
अब स्टेनफोर्ड ने इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड [ईसीबी] के साथ करार किया है जिसके तहत वेस्टइंडीज और इंग्लैंड की टीमें अगले पांच सालों में आपस में पांच ट्वंटी 20 मैच खेलेंगी। इन पांच मैचों के लिए 100 मिलियन डालर यानी 420 करोड़ रुपये दाव पर होंगे। यानी एक मैच की कीमत होगी 20 मिलियन डालर [84 करोड़ रुपये]। एक मैच में विजेता टीम के सभी खिलाडि़यों को 1-1 मिलियन डालर मिलेंगे [4 करोड़ 20 लाख रुपये प्रति खिलाड़ी]। अंतिम 11 में स्थान न बना पाने वाले खिलाड़ी एक मिलियन डाल में साझा करेंगे जबकि टीम मैनेजमेंट को भी एक मिलियन डालर मिलेंगे। बाकी सात मिलियन डालर में ईसीबी और वेस्टइंडीज क्रिकेट बार्ड आधा-आधा शेयर करेंगे।
इस तरह विजेता टीम के खिलाडि़यों को सिर्फ एक मैच से जो रकम मिलेगी वह इंडियन प्रीमियर लीग में भाग लेने वाले ज्यादातर खिलाडि़यों को एक सत्र के लिए मिलने वाली राशि से ज्यादा होगी।
स्टेनफोर्ड पहले ही कह चुके हैं कि ट्वंटी 20 क्रिकेट में इतना दम है कि वह दुनिया में फुटबाल के प्रति मौजूदा दीवानगी को भी पीछे छोड़ दे। कम से कम पैसों बारिश के हिसाब से देखा जाए तो उनका पूर्वानुमान कोई बहुत बड़ा दुस्साहस नहीं लगता। स्टेनफोर्ड एक कामयाब बिजनेसमैन हैं और अगर उन्हें क्रिकेट में इतनी संभावनाएं दिख रही हैं तो इसके पीछे जरूर कोई न कोई कारण होगा। खैर उनकी यह पहल कितनी कामयाब होती है यह तो आने वाला वक्त बताएगा। हालांकि स्टेनफोर्ड की कार्ययोजना में शायद भारत फिट नहीं बैठता नहीं तो आईपीएल टीमों के लिए हुई खुली बोली में शिरकत जरूर करते।
Tuesday, June 10, 2008
क्रिकेट के आंकड़ों के लिए एक उम्दा वेबसाइट
हमें अगर क्रिकेट से जुड़ी कोई खास जानकारी चाहिए होती है तो हम अक्सर क्रिकइन्फो. काम का रुख करते हैं। इसके अलावा भी कई वेबसाइट हैं जहां क्रिकेट से जुड़ी खबरें और विश्लेषण मिल जाते हैं। लेकिन अगर आप क्रिकेट के आंकड़ों में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं तो एक वेबसाइट है जो आपका काम बेहद आसन बना देगी।
इस वेब साइट का यूआरएल है www.howstat.com इस साइट का नेविगेशन बेहद यूजर फ्रेंडली है जिससे आपको आंकड़ों की तलाश में ज्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। यहां आप हर देश के हर मैच का स्कोर कार्ड देख सकते हैं साथ ही किसी भी क्रिकेटर का मैच दर मैच प्रदर्शन जान सकेंगे। इसके अलावा और भी तमाम प्रकार के रिकार्ड दो-चार क्लिक के बाद आपके सामने होंगे।
इस वेब साइट का यूआरएल है www.howstat.com इस साइट का नेविगेशन बेहद यूजर फ्रेंडली है जिससे आपको आंकड़ों की तलाश में ज्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। यहां आप हर देश के हर मैच का स्कोर कार्ड देख सकते हैं साथ ही किसी भी क्रिकेटर का मैच दर मैच प्रदर्शन जान सकेंगे। इसके अलावा और भी तमाम प्रकार के रिकार्ड दो-चार क्लिक के बाद आपके सामने होंगे।
Monday, June 9, 2008
संयुक्त राष्ट्र से भी बड़ा मंच है ओलंपिक!
दुनिया का सबसे बड़ा खेल मेला है ओलंपिक। यहां अलग-अलग देशों के खिलाड़ी विभिन्न स्पर्धाओं में एक दूसरे की क्षमता को परखते हैं। लेकिन खेलों के अलावा अर्थ वित्त, राजनीति और विवाद जैसे मामलों में भी यह दुनिया के कई बड़े आयोजनों और संस्थानों की बराबरी करता है।
ओलंपिक की विशालता का अनुमान अग्रलिखित चार तथ्यों से लगाया जा सकता है।
पहला तथ्य:- बीजिंग ओलंपिक में 203 देश भाग लेंगे। आज की तारीख में सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय संगठन माने जाने वाले संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की कुल संख्या है 193 यानी ओलंपिक में भाग लेने वाले देशों की संख्या से दस कम।
दूसरा तथ्य: सिडनी में हुए ओलंपिक को कवर करने के लिए पूरी दुनिया से 16000 ब्रॉडकास्टर और पत्रकार गए।
तीसरा तथ्य:- 2012 में लंदन में होने वाले ओलंपिक का बजट करीब 64000 करोड़ रुपये है जो इसमें भाग लेने वाले कई प्रतिभागी देशों की जीडीपी से ज्यादा है।
चौथा तथ्य:-एथेंस में हुए पिछले ओलंपिक खेल को करीब चार अरब लोगों ने अपने-अपने टेलिविजन पर देखा। यह पूरी दुनिया की आबादी का करीब आधा हिस्सा है।
ओलंपिक की विशालता से जुड़े और भी कई तथ्य हैं जिसकी चर्चा में बाद में करूंगा।
Friday, June 6, 2008
खेलों में भारत के बाद किसका समर्थन करते हैं आप?
इंग्लैंड की टीम यूरो कप फुटबाल प्रतियोगिता के लिए क्वालीफाई नहीं कर सकी है इसलिए अब वहां के प्रशंसक स्पेन और हालैंड जैसी टीमों को अपना समर्थन दे रहे हैं। वहीं पारंपरिक प्रतिद्वंदिता के आधार पर वे यह भी चाहते हैं कि कोई देश इस खिताब को जीते लेकिन जर्मनी कभी न जीते।
कुछ इसी तरह की परिस्थितियां कभी-कभी भारत में भी उत्पन्न हो जाती है जब किसी ऐसे क्रिकेट टूर्नामेंट में जिसमें भारत न खेल रहा हो या शुरुआती चरण में हार कर बाहर हो गया हो तो हम भी विकल्प के तौर पर किसी दूसरे देश को अपना समर्थन देते हैं। पिछले विश्व कप ही उदाहरण ले लीजिए। भारत की टीम पहले ही राउंड में बांग्लादेश और श्रीलंका से हार कर बाहर हो गई। भारतीय टीम के कट्टर समर्थकों ने तो इसके बाद विश्व कप देखा ही नहीं लेकिन भारत में मौजूद अन्य क्रिकेट प्रेमियों ने अपनी-अपनी टीमें चुन ली।
उस दौड़ान कई लोगों से बातचीत के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि भारत के बाहर हो जाने पर ज्यादातर भारतीयों ने अपना समर्थन दक्षिण अफ्रीका को दिया। इसके बाद वेस्टइंडीज का नंबर था फिर इंग्लैंड और न्यूजीलैंड का। नापसंदीदा टीमों की सूची में सबसे पहला नाम आस्ट्रेलिया (नंबर वन होने के कारण) का था। पाकिस्तान भी भारत की तरह पहले राउंड में बार हो गया था। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो शायद परंपरागत प्रतिद्वंदी होने के कारण पाकिस्तानी टीम इस मामले में आस्ट्रेलिया को पीछे छोड़ देती। चूकीं श्रीलंका से हार कर भारत बाहर हुआ था इसलिए उनके प्रति हमारे यहां गुस्से का भाव रहा था।
वैसे भारत के बाहर की क्रिकेट टीमों को लेकर भारतीय क्रिकेट प्रेमियों की पसंद समय के साथ-साथ बदली है। अब पाकिस्तानी टीम के प्रति हमारे यहां नफरत का वह भाव नहीं है जो 80 और 90 के दशक में था। उस समय पाकिस्तान के बाद जिस टीम को भारतीय कभी जीतते हुए नहीं देखना चाहते थे वह थी वेस्टइंडीज की टीम। इसके पीछे खास वजह यह थी कि वेस्टइंडीज उस समय की नंबर एक टीम थी और आम तौर पर भारतीय किसी एक टीम को लगातार जीतते हुए नहीं देखना चाहते। समय के साथ वेस्टइंडीज की जगह आस्ट्रेलिया ने ले ली। लेकिन भारत में नकारात्मक लोकप्रियता के मामले में आस्ट्रेलिया ने उस समय की वेस्टइंडीज की टीम को पीछे छोड़ दिया है।
पिछले कई सालों में मैंने यह जानने की काफी कोशिश की कि आखिर भारतीय किस आधार पर अपनी पसंदीदा नंबर दो टीम का चुनाव करते हैं। जहां तक मैं समझ पाया आमतौर हम यह चुनाव भावनात्मक आधार पर करते हैं। हमारे इस चुनाव के पीछे पसंद की जगह नापसंद वाला फैक्टर ज्यादा काम करता है। अमूमन हम उन टीमों को सपोर्ट करते हैं जो पाकिस्तान और विश्व की नंबर एक टीम को हराने का माद्दा रखती हो। हालांकि स्थिति तब रोचक हो जाती है जब पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच मैच खेला जाता है। इस मैच में कट्टर पाकिस्तान विरोधी आस्ट्रेलिया को सपोर्ट करते हैं जबकि नंबर वन के विरोधी पाकिस्तान को।
क्रिकेट के अलावा और भी कुछ खेल हैं जहां नंबर वन का विरोध करने की हमारी प्रवृत्ति अपना असर दिखाती है। ओलंपिक में हम चाहते हैं कि रूस या चीन मेडल टैली में अमेरिका को पीछे छोड़ दें। फिर उसी चीन को हम एशियाई खेलों में जीतते हुए नहीं देखना चाहते हैं क्योंकि चीन वहां नंबर वन है।
हालांकि एक ऐसा खेल हैं यह नंबर वन विरोधी सिद्धांत समाप्त हो जाता है। वह खेल है फुटबाल। ब्राजील और अर्र्जेटीना विश्व फुटबाल में महाशक्तियां है लेकिन अधिकांश भारतीय विश्व कप फुटबाल में इन्हीं टीमों का समर्थन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम भारतीय अंग्रेजों की गुलामी झेलने के कारण कभी उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने वाले यूरोपीय राष्ट्रों को उतना पसंद नहीं करते और ब्राजील और अर्र्जेटीना की फुटबाल टीमें हमारे लिए उन योद्धाओं के समान है जो इन यूरोपीय ताकतों को पीटते हैं।
यह तो भारतीय खेल प्रेमियों के दूसरे पसंद पर मेरी राय थी? आप क्या कहते हैं?
कुछ इसी तरह की परिस्थितियां कभी-कभी भारत में भी उत्पन्न हो जाती है जब किसी ऐसे क्रिकेट टूर्नामेंट में जिसमें भारत न खेल रहा हो या शुरुआती चरण में हार कर बाहर हो गया हो तो हम भी विकल्प के तौर पर किसी दूसरे देश को अपना समर्थन देते हैं। पिछले विश्व कप ही उदाहरण ले लीजिए। भारत की टीम पहले ही राउंड में बांग्लादेश और श्रीलंका से हार कर बाहर हो गई। भारतीय टीम के कट्टर समर्थकों ने तो इसके बाद विश्व कप देखा ही नहीं लेकिन भारत में मौजूद अन्य क्रिकेट प्रेमियों ने अपनी-अपनी टीमें चुन ली।
उस दौड़ान कई लोगों से बातचीत के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि भारत के बाहर हो जाने पर ज्यादातर भारतीयों ने अपना समर्थन दक्षिण अफ्रीका को दिया। इसके बाद वेस्टइंडीज का नंबर था फिर इंग्लैंड और न्यूजीलैंड का। नापसंदीदा टीमों की सूची में सबसे पहला नाम आस्ट्रेलिया (नंबर वन होने के कारण) का था। पाकिस्तान भी भारत की तरह पहले राउंड में बार हो गया था। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो शायद परंपरागत प्रतिद्वंदी होने के कारण पाकिस्तानी टीम इस मामले में आस्ट्रेलिया को पीछे छोड़ देती। चूकीं श्रीलंका से हार कर भारत बाहर हुआ था इसलिए उनके प्रति हमारे यहां गुस्से का भाव रहा था।
वैसे भारत के बाहर की क्रिकेट टीमों को लेकर भारतीय क्रिकेट प्रेमियों की पसंद समय के साथ-साथ बदली है। अब पाकिस्तानी टीम के प्रति हमारे यहां नफरत का वह भाव नहीं है जो 80 और 90 के दशक में था। उस समय पाकिस्तान के बाद जिस टीम को भारतीय कभी जीतते हुए नहीं देखना चाहते थे वह थी वेस्टइंडीज की टीम। इसके पीछे खास वजह यह थी कि वेस्टइंडीज उस समय की नंबर एक टीम थी और आम तौर पर भारतीय किसी एक टीम को लगातार जीतते हुए नहीं देखना चाहते। समय के साथ वेस्टइंडीज की जगह आस्ट्रेलिया ने ले ली। लेकिन भारत में नकारात्मक लोकप्रियता के मामले में आस्ट्रेलिया ने उस समय की वेस्टइंडीज की टीम को पीछे छोड़ दिया है।
पिछले कई सालों में मैंने यह जानने की काफी कोशिश की कि आखिर भारतीय किस आधार पर अपनी पसंदीदा नंबर दो टीम का चुनाव करते हैं। जहां तक मैं समझ पाया आमतौर हम यह चुनाव भावनात्मक आधार पर करते हैं। हमारे इस चुनाव के पीछे पसंद की जगह नापसंद वाला फैक्टर ज्यादा काम करता है। अमूमन हम उन टीमों को सपोर्ट करते हैं जो पाकिस्तान और विश्व की नंबर एक टीम को हराने का माद्दा रखती हो। हालांकि स्थिति तब रोचक हो जाती है जब पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच मैच खेला जाता है। इस मैच में कट्टर पाकिस्तान विरोधी आस्ट्रेलिया को सपोर्ट करते हैं जबकि नंबर वन के विरोधी पाकिस्तान को।
क्रिकेट के अलावा और भी कुछ खेल हैं जहां नंबर वन का विरोध करने की हमारी प्रवृत्ति अपना असर दिखाती है। ओलंपिक में हम चाहते हैं कि रूस या चीन मेडल टैली में अमेरिका को पीछे छोड़ दें। फिर उसी चीन को हम एशियाई खेलों में जीतते हुए नहीं देखना चाहते हैं क्योंकि चीन वहां नंबर वन है।
हालांकि एक ऐसा खेल हैं यह नंबर वन विरोधी सिद्धांत समाप्त हो जाता है। वह खेल है फुटबाल। ब्राजील और अर्र्जेटीना विश्व फुटबाल में महाशक्तियां है लेकिन अधिकांश भारतीय विश्व कप फुटबाल में इन्हीं टीमों का समर्थन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम भारतीय अंग्रेजों की गुलामी झेलने के कारण कभी उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने वाले यूरोपीय राष्ट्रों को उतना पसंद नहीं करते और ब्राजील और अर्र्जेटीना की फुटबाल टीमें हमारे लिए उन योद्धाओं के समान है जो इन यूरोपीय ताकतों को पीटते हैं।
यह तो भारतीय खेल प्रेमियों के दूसरे पसंद पर मेरी राय थी? आप क्या कहते हैं?
Wednesday, June 4, 2008
वन-डे को बनाना होगा ट्वंटी 20 का डबल डोज
आईपीएल के धूम धड़ाके खत्म हुए। भारतीय टीम बांग्लादेश रवाना हो रही है जहां उसे मेजबान टीम के अलावा पाकिस्तान की भागीदारी वाली वनडे त्रिकोणीय सीरीज में भाग लेना है। इसके बाद एशिया कप होना है जहां पाकिस्तान और श्रीलंका के साथ-साथ बांग्लादेश और हांगकांग जैसी टीमें भी होगी।
आईपीएल में सचिन बनाम वार्न, जयसूर्या बनाम मैक्ग्रा, स्मिथ बनाम एंटिनी, यूसुफ पठान बनाम इरफान पठान जैसे बराबरी के मुकाबले देखने के बाद क्या दर्शकों को भारत बनाम हांगकांग जैसे बेमेल मुकाबले को देखने में मजा आएगा। वो भी 50-50 ओवरों तक। जरा याद कीजिए ट्वंटी 20 विश्व कप के बाद हुई भारत-आस्ट्रेलिया वनडे सीरीज। इस सीरीज में हरभजन-सायमंड्स-श्रीसंथ ड्रामे के अलावा और कोई रोमांच दर्शकों को नहीं मिला। ऐसा नहीं है कि इस सीरीज में क्वालिटी क्रिकेट नहीं खेली गई। यह सीरीज इसलिए फीकी साबित हुई क्योंकि यह ट्वंटी 20 विश्व कप के ठीक बाद खेला गया और इस सीरीज के सातों मुकाबले ट्वंटी 20 के रफ्तार और रोमांच के मुकाबले बौने साबित हुए। आस्ट्रेलिया में हुई त्रिकोणीय सीरीज इसलिए सफल रही क्योंकि वह टेस्ट सीरीज के बाद खेली गई। पूरी बात का मजमून यही है कि जैसे-जैसे ट्वंटी 20 मुकाबलों की संख्या बढे़गी वनडे अपना रोमांच खोता जाएगा। हालांकि टेस्ट क्रिकेट पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ने वाला क्योंकि उसे चाहने वाले दर्शकों का वर्ग एकदम भिन्न है।
70 के दशक में हुए विवादित कैरी पैकर सीरीज ने वनडे क्रिकेट को नया जीवन दिया था। इस सीरीज में खिलाड़ी सफेद कपड़ों में नजर आने वाले देवदूतों की जगह रंगीन कपड़ों में लिपटे ग्लैडिएटर नजर आए। लाल रंग की गेंद की जगह सफेद रंग की गेंद ने ली और डे-नाइट मैचों ने आफिस में काम करने वालों को भी मैच देखने के लिए उचित समय मुहैया कराया। लेकिन उस सीरीज के बाद से अब तक वनडे क्रिकेट में खास बदलाव नहीं आया है। पावर-प्ले और फ्री हिट को छोड़ दें तो वनडे क्रिकेट वहीं का वही है। वैसे भी जिस धारणा के आधार पर वनडे क्रिकेट की शुरुआत हुई थी उसी धारणा को अपना सबसे बड़ा अस्त्र बनाकर ट्वंटी 20 ने उस पर धावा बोला है।
वनडे क्रिकेट इसलिए शुरू किया गया था ताकि जो दर्शक वर्ग टेस्ट मैचों में लगने वाले समय और इसके धीमेपन को पसंद को नहीं पसंद करता है वह भी इसके बहाने मैदान पर मैच देखने आएं और टेलिविजन पर भी इस खेल के प्रशंसक बने। पिछले 30 साल से वनडे इन लक्ष्यों को हासिल भी कर रहा था लेकिन अब ट्वंटी 20 के प्रादुर्भाव से इसके अस्तित्व के ऊपर बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
तो क्या आने वाले सालों में वनडे क्रिकेट खत्म हो जाएगा। अगर इसे बचाने के प्रयास अभी से न किए गए तो जरूर खत्म हो जाएगा। इसके लिए जो सुझाव आजकल क्रिकेट पंडितों के बीच चर्चा में है वह है कि वनडे को ट्वंटी 20 का डबल डोज बना दिया जाए। यानी एक वनडे मैच को दो ट्वंटी 20 मैच में तब्दील कर दिया जाए मैच का नतीजा दोनों टीमों की दोनों पारियों के आधार पर किया जाए। इस तरह का प्रयोग 90 के दशक में किया गया था लेकिन तब वह सफल नहीं रहा था लेकिन अब लोग ट्वंटी का स्वाद चख चुके हैं तो इसके सफल होने की गुंजाइश बढ़ जाती है।
यह तो तय है कि आने वाले दिनों में ट्वंटी 20 अपना पैर और पसारेगा। जो आईपीएल इस बार डेढ़ महीने चला आगे चलकर तीन या चार महीनों का हो जाएगा या फिर इसका आयोजन साल में दो बार होगा। आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और पाकिस्तान भी आईपीएल का अनुसरण करने की ताक में है। इस स्थिति को ध्यान में रखकर क्रिकेट के कर्ताधर्ताओं के वनडे के भविष्य पर खासा ध्यान देना होगा।
Tuesday, June 3, 2008
स्कूल के दिनों में तो खेलते थे लेकिन क्या स्कूल में भी खेलते थे?
अमूमन मैं किसी से पूछता हूं कि आपने फलां खेल आखिरी बार कब खेला तो जवाब मिलता है स्कूल के दिनों में। हमलोगों में ज्यादातर ने स्कूल के दिनों में खेल-कूद का खूब मजा उठाया है लेकिन स्कूल के बाहर। जब स्कूल में खेलने की बात आती है तो संख्या में भारी गिरावट आ जाती है।
वे लोग जो कहते हैं कि उन्होंने स्कूल में भी खेला है उनमें से ज्यादातर प्रार्थना (प्रेयर) से पहले होने वाले पीटी क्लास में थोड़ा बहुत हाथ पैर घुमाया है और हाफ टाइम (टिफीन) में लुका छुपी जैसे खेलों का लुत्फ उठाया है। हमारे स्कूल में एक छोटा सा मैदान हुआ करता था जहां हम 45 मिनट के टिफीन ब्रेक में पांच-पांच ओवर का क्रिकेट मैच खेलते थे। इसमें भी कुल जमा 22 छात्रों को ही मौका मिल पाता था।
हालांकि बड़े-बड़े निजी विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय सरीखे स्कूलों से पढ़े हमारे मित्र इस बात से इत्तेफाक नहीं रखेंगे। इन स्कूलों में टेबल टेनिस, बालीवाल, फुटबाल, क्रिकेट और भी तमाम खेलों की टीमें होती हैं जो साल में एक दो बार ऑल इंडिया लेवल पर होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग भी लेती है। लेकिन इन विद्यालयों में भी खेल का कैसा स्तर है या इनके कोच किस काबिल हैं ये बताने की जरूरत नहीं है। अगर इनकी व्यवस्था सफल होती तो आज विभिन्न खेलों में भारत को रिप्रजेंट करने वाले ज्यादातर खिलाड़ी इन्हीं स्कूलों के प्रोडक्ट होते लेकिन ऐसा नहीं है। चलिए मान भी लें कि ये स्कूल स्कूली स्तर पर खेल को प्रोत्साहन देते हैं तो सवाल यह है कि ऐसे स्कूलों की संख्या है ही कितनी।
पूरे भारत में हजारों ऐसे निजी और सरकारी विद्यालय हैं जहां खेल-कूद की कोई सुविधा नहीं है और इन्हीं हजारों विद्यालयों में भारत के 95 फीसदी छात्र पढ़ाई करते हैं। जब इन विद्यालयों में खेल-कूद से जुड़ी सुविधाओं की बात उठाई जाती है तो जवाब आता है कि पहले पढ़ाई ढंग से सुनिश्चित हो जाए खेल-कूद तो होता रहेगा। यही ढुलमुल रवैया भारत को कभी खेलों में आगे नहीं बढ़ने देगा। अगर ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में भारत पदकों के लिए तरसता रहता है तो इसके पीछे स्कूलों में खेल-कूद के लिए जरूरी साजोसमान व सुविधाएं न होना बड़ा कारण है।
कुछ लोगों का कहना है कि भारत अभी एक विकासशील राष्ट्र है और यहां स्कूल स्तर पर खेलों का विकास अभी मुमकिन नहीं है। यह तर्क सरसरी नजर में वाजिब जान पड़ता है लेकिन हकीकत इससे मेल नहीं खाती है। आज जितने भी विकसित राष्ट्र हैं वहां खेलों का विकास उसी चरण में हुआ जब वहां की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाएं विकास कर रही थी। चीन आज भी एक विकासशील राष्ट्र है और वहां स्कूलों में खेल के स्तर पर कितना ध्यान दिया जाता है यह बताने की जरूरत नहीं है।
हम सभी जानते हैं कि अमेरिका सुपर पावर है। लेकिन वह सिर्फ हथियारों, पैसे और राजनीतिक दबदबे के आधार पर ही सुपर पावर नहीं है बल्कि खेलों में भी एक-आध देश ही उसके स्तर के आसपास हैं। लेकिन आपको यह जानकर हैरत हो सकती है कि अमेरिका में जितना पैसा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों के स्तर पर खर्च किया जाता है उससे कहीं अधिक स्कूल और कॉलेज स्तर के खेलों पर किया जाता है। अमेरिका के नौ सबसे बड़े स्टेडियम किसी न किसी कॉलेज या स्कूल के स्टेडियम हैं। अगर कोई अमेरिकी अखबार नेशनल बास्केटबॉल लीग (एनबीए) को कवर करने के लिए चार रिपोर्टर रखता है तो स्कूल स्तर पर होने वाले बास्केटबाल लीग को कवर करने के लिए 16 रिर्पोटर रखता है। इतना ही नहीं स्कूली टूर्नामेंटों का लाइव टेलीकास्ट भी किया जाता है।
अगर आप भारत की तुलना अमेरिका जैसे संपन्न राष्ट्र से नहीं करना चाहते हैं तो जरा चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों के स्पोर्ट्स कल्चर को जानने की कोशिश करें। इन देशों के स्कूलों में भी खेल पर खासा ध्यान दिया जाता है और ये कोशिश की जाती है इनके बच्चे जितने अच्छे गणित में हों उतने ही अच्छे खेल-कूद में भी हों।
हमारी सरकार हमेशा यह बात कहती है कि स्कूल स्तर पर खेलों को बढ़ावा देना होगा लेकिन वह इसे अमल में लाने का इरादा नहीं रखती। स्कूली स्तर पर कुछ प्रतियोगिताएं जरूर आयोजित होती हैं लेकिन इसमें भाग लेने वाले ज्यादातर प्रतिभागी कोई ट्रेनिंग लेकर नहीं आते हैं। स्कूलों में खेल-कूद की सुविधाओं के विकास के लिए कुछ पैसे भी आवंटित किए जाते हैं लेकिन ये पैसे भी मैदान में पहुंचने के बजाय भोजन बनकर किसी के पेट में पहुंच जाते हैं।
वे लोग जो कहते हैं कि उन्होंने स्कूल में भी खेला है उनमें से ज्यादातर प्रार्थना (प्रेयर) से पहले होने वाले पीटी क्लास में थोड़ा बहुत हाथ पैर घुमाया है और हाफ टाइम (टिफीन) में लुका छुपी जैसे खेलों का लुत्फ उठाया है। हमारे स्कूल में एक छोटा सा मैदान हुआ करता था जहां हम 45 मिनट के टिफीन ब्रेक में पांच-पांच ओवर का क्रिकेट मैच खेलते थे। इसमें भी कुल जमा 22 छात्रों को ही मौका मिल पाता था।
हालांकि बड़े-बड़े निजी विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय सरीखे स्कूलों से पढ़े हमारे मित्र इस बात से इत्तेफाक नहीं रखेंगे। इन स्कूलों में टेबल टेनिस, बालीवाल, फुटबाल, क्रिकेट और भी तमाम खेलों की टीमें होती हैं जो साल में एक दो बार ऑल इंडिया लेवल पर होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग भी लेती है। लेकिन इन विद्यालयों में भी खेल का कैसा स्तर है या इनके कोच किस काबिल हैं ये बताने की जरूरत नहीं है। अगर इनकी व्यवस्था सफल होती तो आज विभिन्न खेलों में भारत को रिप्रजेंट करने वाले ज्यादातर खिलाड़ी इन्हीं स्कूलों के प्रोडक्ट होते लेकिन ऐसा नहीं है। चलिए मान भी लें कि ये स्कूल स्कूली स्तर पर खेल को प्रोत्साहन देते हैं तो सवाल यह है कि ऐसे स्कूलों की संख्या है ही कितनी।
पूरे भारत में हजारों ऐसे निजी और सरकारी विद्यालय हैं जहां खेल-कूद की कोई सुविधा नहीं है और इन्हीं हजारों विद्यालयों में भारत के 95 फीसदी छात्र पढ़ाई करते हैं। जब इन विद्यालयों में खेल-कूद से जुड़ी सुविधाओं की बात उठाई जाती है तो जवाब आता है कि पहले पढ़ाई ढंग से सुनिश्चित हो जाए खेल-कूद तो होता रहेगा। यही ढुलमुल रवैया भारत को कभी खेलों में आगे नहीं बढ़ने देगा। अगर ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में भारत पदकों के लिए तरसता रहता है तो इसके पीछे स्कूलों में खेल-कूद के लिए जरूरी साजोसमान व सुविधाएं न होना बड़ा कारण है।
कुछ लोगों का कहना है कि भारत अभी एक विकासशील राष्ट्र है और यहां स्कूल स्तर पर खेलों का विकास अभी मुमकिन नहीं है। यह तर्क सरसरी नजर में वाजिब जान पड़ता है लेकिन हकीकत इससे मेल नहीं खाती है। आज जितने भी विकसित राष्ट्र हैं वहां खेलों का विकास उसी चरण में हुआ जब वहां की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाएं विकास कर रही थी। चीन आज भी एक विकासशील राष्ट्र है और वहां स्कूलों में खेल के स्तर पर कितना ध्यान दिया जाता है यह बताने की जरूरत नहीं है।
हम सभी जानते हैं कि अमेरिका सुपर पावर है। लेकिन वह सिर्फ हथियारों, पैसे और राजनीतिक दबदबे के आधार पर ही सुपर पावर नहीं है बल्कि खेलों में भी एक-आध देश ही उसके स्तर के आसपास हैं। लेकिन आपको यह जानकर हैरत हो सकती है कि अमेरिका में जितना पैसा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों के स्तर पर खर्च किया जाता है उससे कहीं अधिक स्कूल और कॉलेज स्तर के खेलों पर किया जाता है। अमेरिका के नौ सबसे बड़े स्टेडियम किसी न किसी कॉलेज या स्कूल के स्टेडियम हैं। अगर कोई अमेरिकी अखबार नेशनल बास्केटबॉल लीग (एनबीए) को कवर करने के लिए चार रिपोर्टर रखता है तो स्कूल स्तर पर होने वाले बास्केटबाल लीग को कवर करने के लिए 16 रिर्पोटर रखता है। इतना ही नहीं स्कूली टूर्नामेंटों का लाइव टेलीकास्ट भी किया जाता है।
अगर आप भारत की तुलना अमेरिका जैसे संपन्न राष्ट्र से नहीं करना चाहते हैं तो जरा चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों के स्पोर्ट्स कल्चर को जानने की कोशिश करें। इन देशों के स्कूलों में भी खेल पर खासा ध्यान दिया जाता है और ये कोशिश की जाती है इनके बच्चे जितने अच्छे गणित में हों उतने ही अच्छे खेल-कूद में भी हों।
हमारी सरकार हमेशा यह बात कहती है कि स्कूल स्तर पर खेलों को बढ़ावा देना होगा लेकिन वह इसे अमल में लाने का इरादा नहीं रखती। स्कूली स्तर पर कुछ प्रतियोगिताएं जरूर आयोजित होती हैं लेकिन इसमें भाग लेने वाले ज्यादातर प्रतिभागी कोई ट्रेनिंग लेकर नहीं आते हैं। स्कूलों में खेल-कूद की सुविधाओं के विकास के लिए कुछ पैसे भी आवंटित किए जाते हैं लेकिन ये पैसे भी मैदान में पहुंचने के बजाय भोजन बनकर किसी के पेट में पहुंच जाते हैं।
Monday, June 2, 2008
आईपीएल के बाद कुछ फुटबाल-शुटबाल हो जाए
नई दिल्ली। करीब डेढ़ महीने तक इंडियन प्रीमियर लीग के धूम धड़ाके का मजा लेने के बाद अगर आप खुद को खाली-खाली सा महसूस कर रहे हैं तो निराश होने की जरूरत नहीं है। 7 जून से 29 जून तक आस्ट्रिया और स्विट्जरलैंड में यूरोप की शीर्ष 16 टीमें फुटबाल के अर्धकुंभ यूरो कप में जोर आजमाइश के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। यूं तो यहां आपको चौके, छक्के और विकेट का रोमांच नहीं मिलेगा लेकिन इस बात की गारंटी दी जा सकती है कि यहां भी खेल प्रेमियों के लिए मनोरंजन की कोई कमी नहीं होगी।
दो देशों की संयुक्त मेजबानी में होने वाले इस टूर्नामेंट में आठ स्टेडियमों में कुल 31 मैच खेले जाएंगे और 29 जून को आस्ट्रिया की राजधानी वियाना के अर्नस्ट हप्पेल स्टेडियम में खेले जाने वाले फाइनल मुकाबले के बाद यूरो 2008 का विजेता सामने आएगा। रोमांच और उलटफेर के हिसाब से आंके तो यूरो कप किसी भी मायने में फीफा विश्व कप से उन्नीस नहीं ठहरता। पुर्तगाल में हुए पिछला यूरो कप इस बात का साक्षी है जहां अंडर डॉग माना जाने वाला ग्रीस तमाम कयासों से विपरीत कई दिग्गज टीमों को धूल चटाते हुए यूरोप का सिरमौर बना था।
हालांकि इस बार यूरो कप में इंग्लैंड के न भाग लेने से कुछ सूनापन जरूर रहेगा। जर्मनी में हुए पिछले विश्व कप के बाद कई बदलावों से गुजर रही इंग्लैंड की टीम इस प्रतिष्ठित टूर्नामेंट के लिए क्वालीफाई नहीं कर सकी। किसी बड़े फुटबाल टूर्नामेंट में इंग्लैंड का न खेलना कुछ वैसा ही है जैसा किसी बड़े क्रिकेट टूर्नामेंट में भारत का न खेलना। खैर, इसके बावजूद मौजूदा विश्व चैंपियन इटली, उप विजेता फ्रांस, मौजूदा यूरो चौंपियन ग्रीस, पुर्तगाल, क्रोएशिया और चेक रिपब्लिक जैसी टीमें अपने शानदार खेल से लोगों का मनोरंजन करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी।
यूरो कप 2008 के लिए क्वालीफाई करने वाली टीमें में आस्ट्रिया, स्विटजरलैंड (मेजबान टीम होने के नाते), पोलैंड, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, ग्रीस, तुर्की, चेक रिपब्लिक, जर्मनी, क्रोएशिया, रूस, स्पेन, स्वीडन, रोमानिया और हालैंड हैं। इन टीमों को चार ग्रुप में बांटा गया है। ग्रुप ए में स्विट्जरलैंड, चेक रिपब्लिक, पुर्तगाल, और तुर्की है, ग्रुप बी में आस्ट्रिया, क्रोएशिया, जर्मनी व पोलैंड हैं, ग्रुप सी में हालैंड, इटली, फ्रांस और रोमानिया की टीमें हैं जबकि ग्रुप डी में ग्रीस, स्वीडन, स्पेन और रूस को रखा गया है।
शुरुआती मुकाबले राउंड रोबिन लीग के तहत खेले जाएंगे और हर ग्रुप से शीर्ष दो टीमें क्वार्टर फाइनल में पहुंचेंगी। टीमों की क्षमता के हिसाब से ग्रुप सी को ग्रुप को डेथ कहा जा सकता है जहां पहले दो स्थानों के लिए फ्रांस, इटली और हालैंड में मुख्य मुकाबला होगा। क्वालीफाइंग मैचों में रोमानिया के प्रदर्शन के ध्यान में रखते हुए उसकी संभावनाओं को भी खारिज नहीं किया जा सकता है।
यूं तो सभी 16 टीमें खिताब जीतने की क्षमता रखती है लेकिन हालिया फार्म के आधार पर इटली, फ्रांस, पुर्तगाल, क्रोएशिया, हालैंड और ग्रीस को मुख्य दावेदार माना जा रहा है। लेकिन क्रिकेट की ही तरह फुटबाल भी घोर अनिश्चितताओं का खेल है और कौन सी टीम बाजी मार जाए कहना मुश्किल है और अनिश्चितता का यही पुट इस खेल को इतना लोकप्रिय बनाता है। तो फिर आप भी तैयार हो जाइए यूरो 2008 का मजा लेने के लिए आखिर इसके मैच भी आईपीएल मैचों की तरह तीन घंटे के भीतर समाप्त हो जाएंगे फर्क सिर्फ इतना होगा कि चौके-छक्के की जगह गोल मिलेंगे और नो बॉल, वाइड बॉल की जगह रेड कार्ड, यलो कार्ड और फ्री किक के नजारे सामने आएंगे।
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