आप इसे अच्छी खबर माने या बुरी खबर लेकिन अब क्रिकेट को फुटबाल के अंतरराष्ट्रीय सांचे में ढालने की पुरजोर तैयारी हो रही है। इसकी शुरुआत आईपीएल से हुई है और अब ज्यादातर देशों के क्रिकेट बोर्ड अपने यहां अपनी तरह का आईपीएल लाने की जुगत में हैं।
यूं तो इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और पाकिस्तान में घरेलू ट्वंटी 20 टूर्नामेंट का आयोजन पहले से हो रहा है लेकिन ये देश आईपीएल की तर्ज पर ज्यादा लोकप्रिय और कमाऊ ट्वंटी 20 लीग शुरू करना चाहते हैं। मुमकिन है कि इन देशों के बोर्ड भी बीसीसीआई की तर्ज पर फ्रेंचाइजी सिस्टम को तरजीह दें और बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय खिलाडि़यों की खरीद बिक्री करे। इन देशों के लिए आईपीएल की नकल करने के पीछे दो मुख्य कारण हैं। पहला ये कि इन जगहों पर क्रिकेट का पारंपरिक स्वरूप (टेस्ट व वनडे क्रिकेट) तेजी से लोकप्रियता खोता जा रहा है और दूसरा कारण यह है कि भारत और पाकिस्तान को छोड़कर ज्यादातर देशों में फुटबाल की लोकप्रियता क्रिकेट को नुकसान पहुंचा रही है।
लोकप्रियता के हिसाब से इंग्लैंड में तो फुटबाल पहले ही नंबर वन खेल है। पिछले फुटबाल विश्व कप में आस्ट्रेलिया के क्वालीफाई करने की वजह से इस कंगारू देश में फुटबाल तेजी से पैर पसार रहा है। अगला फुटबाल विश्व कप दक्षिण अफ्रीका में होने जा रहा है और यह वहां भी अपने लिए नए प्रशंसक बना रहा है। वैसे रग्बी दक्षिण का सबसे लोकप्रिय खेल है और उसके बाद क्रिकेट का नंबर आता है लेकिन वहां फुटबाल की बढ़ती लोकप्रियता का यह आलम है इससे रग्बी को भी खतरा महसूस होने लगा है।
बीसीसीआई भी इन देशों को आईपीएल की तरह का टूर्नामेंट लाने में पूरी मदद करने को तैयार है। आईपीएल के गठन में मुख्य भूमिका निभाने वाले पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन (पीसीए) के अध्यक्ष आईएस बिंद्रा कहते हैं यह क्रिकेट का वृहद स्वरूप होगा। तब सभी देशों में इंग्लिश प्रीमियर लीग फुटबाल की तर्ज पर ट्ंवटी 20 क्रिकेट लीग होगा और हम यूएफा चैंपियंस लीग की तरह क्रिकेट का चैंपियंस लीग शुरू कर सकेंगे।
बिंद्रा की ये बातें साफ इशारा करती हैं कि किस कदर क्रिकेट को फुटबाल के सांचे में ढालने की कोशिश की जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो इसकी मार निश्चित रूप से सबसे ज्यादा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट पर पड़ेगी। अगर हम ध्यान दें तो आज अंतरराष्ट्रीय फुटबाल खिलाड़ी अपना ज्यादातर वक्त अपने देश की टीम के बजाय अपने क्लब को देता है। इस साल यूरोपीयन फुटबाल में तहलका मचाने वाले क्रिस्टियानो रोनाल्डो का उदाहरण हमारे सामने है। ज्यादातर फुटबाल प्रशंसक उन्हें मैनचेस्टर यूनाईटेड के स्ट्राइकर के तौर जानता है न कि पुर्तगाल के मिडफील्डर के रूप में।
खैर फुटबाल की अंतरराष्ट्रीय संस्था फीफा ने इस व्यवस्था जानबूझकर अपनाया है क्योंकि फुटबाल में भाग लेने वाले प्रतिस्पर्धी देशों की संख्या काफी अधिक है और ऐसे में हर देशों के बीच दो पक्षीय मुकाबले का नियमित आयोजन करवा पाना मुमकिन नहीं है। साथ ही फीफा फुटबाल विश्व कप का चार्म बचाए रखने के लिए दो देशों के बीच ज्यादा आपसी मुकाबले होने भी नहीं देना चाहता है। इसी प्रयास के तह फीफा ओलंपिक की फुटबाल में स्पर्धा भाग लेने के लिए खिलाडि़यों की उम्र सीमा 23 वर्ष निर्धारित कर रखी है ताकि यह विश्व कप फुटबाल की बराबरी न कर सके।
अब यह गौर करने वाली बात है कि जब क्रिकेट के पास फुटबाल जैसे हालात नहीं हैं तो क्यों क्रिकेट के कर्ताधर्ता फुटबाल का अंधा अनुसरण करने की कोशिश में लगे हैं। क्या इससे वाकई क्रिकेट को फायदा होगा। क्रिकेट को हो न हो सभी देशों के क्रिकेट बोर्ड को जरूर होगा। ट्वंटी 20 लीग बुरा नहीं है लेकिन इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाए कि इसका विकास टेस्ट व वनडे क्रिकेट की कीमत पर न हो।
Friday, May 30, 2008
Tuesday, May 27, 2008
क्या भारतीय त्रिमूर्ति को आईपीएल से फायदा हुआ?
इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) का पहला सत्र अब समाप्त होने के कगार पर है। यह टूर्नामेंट क्रिकेट जगत में एक अभूतपूर्व क्रांति की तरह घटित हुआ। इसने साबित कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय मैचों के इतर होने वाले मुकाबले को भी दर्शक मिल सकते हैं और अच्छे क्रिकेटर सिर्फ वही नहीं होते जिनको राष्ट्रीय टीम में खेलने का मौका मिलता है। विभिन्न देशों के कई युवा व बुजुर्ग खिलाडि़यों ने शानदार खेल दिखाया लेकिन क्या इससे भारतीय त्रिमूर्ति सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़ और सौरव गांगुली को कोई फायदा पहुंचा।
इन तीनों क्रिकेटरों ने पिछले वर्ष दक्षिण अफ्रीका में हुए ट्वंटी 20 विश्व कप में खेलने से यह कहकर इनकार कर दिया था कि क्रिकेट का यह प्रारूप युवाओं के ज्यादा अनुकूल है। अब सवाल यह उठता कि जब ये तीनों 15 दिनों तक चलने वाले उस टूर्नामेंट में खेलने का साहस नहीं जुटा पाए थे तो क्या सोचकर उन्होंने 59 दिनों तक चलने वाले आईपीएल में खेलने का फैसला किया। आईपीएल में इनके प्रदर्शन से यह बात तो साबित हो ही गई ट्वंटी 20 विश्व कप में न खेलने का इनका फैसला एकदम सही था। जरा सोचिए कि अगर उस विश्व कप में गौतम गंभीर की जगह सौरव गांगुली, रोबिन उथप्पा की जगह राहुल द्रविड़ और रोहित शर्मा की जगह सचिन तेंदुलकर खेलते तो क्या भारत विजेता बनता। तब क्या भारत को महेंद्र सिंह धोनी जैसा कप्तान मिलता। शायद नहीं।
सचिन तेंदुलकर चोट के कारण मुंबई इंडियंस के शुरुआती सात मैचों में नहीं खेल पाए थे। उन्होंने जो छह मैच खेले उसमें एक अर्धशतक के साथ कुल जमा 148 रन बना पाए। यही नहीं इन मैचों में खेलने की वजह से उनकी चोट फिर से उभर गई है और वह बांग्लादेश में होने वाली त्रिकोणीय सीरीज में नहीं खेलेंगे। अब बात राहुल द्रविड़ की करें तो टीम इंडिया की इस दीवार ने 13 मैचों में 30 की औसत से और 127.65 के स्ट्राइक रेट के साथ 360 रन बनाए हैं। वहीं प्रिंस ऑफ कोलकाता ने इतने ही मैचों में 29.08 की औसत और 113.68 के स्ट्राइक रेट के साथ 349 रन बटोरे। एक नजर में तो गांगुली और द्रविड़ का प्रदर्शन अच्छा प्रतीत होता है लेकिन इन दोनों बल्लेबाजों ने इसमें से करीब 100-125 रन तब बनाए जब उनकी टीमों का आईपीएल से पत्ता कट चुका था।
गांगुली कहते हैं कि आईपीएल के प्रदर्शन पर चयनकर्ताओं को गौर करना चाहिए। चयनकर्ता जरूर इन प्रदर्शनों पर गौर करेंगे लेकिन इसमें भी उनके सामने गांगुली और द्रविड़ से पहले गौतम गंभीर (13 मैच, 523 रन, 43.58 औसत ), रोहित शर्मा (13 मैच 404 रन 36.72 औसत) और वीरेंद्र सहवाग (13 मैच 403 रन 36.63 औसत) के नाम आएंगे। महेंद्र सिंह धोनी, शिखर धवन, रोबिन उथप्पा, यूसुफ पठान, सुरेश रैना, स्वप्निल असनोदकर, अभिषेक नायर भी गांगुली और द्रविड़ से ज्यादा पीछे नहीं हैं और इन सभी बल्लेबाजों ने इन दोनों धुरंधरों की तुलना में बेहतर स्ट्राइक रेट के साथ रन बटोरे हैं। यह कहने की बिल्कुल जरूरत नहीं है कि क्षेत्ररक्षण के मामले में गांगुली-द्रविड़-सचिन बेहतर हैं या ये युवा क्रिकेटर।
सचिन भले ही टेस्ट मैचों में शेन वार्न को आगे निकलकर छक्के जड़ते थे लेकिन आईपीएल में उसी वार्न के आगे वह बंधे हुए नजर आए। गांगुली और द्रविड़ ने एक दो पारियां तेज जरूर खेली लेकिन उनकी यह तेजी ट्वंटी 20 के माफिक नहीं लगती। कुल मिलाकर सार यही निकलता है यह भारतीय त्रिमूर्ति भले ही टेस्ट और वनडे के शानदार खिलाड़ी रहे हों लेकिन ट्वंटी 20 उनके लायक नहीं है और टूर्नामेंट खत्म होने के बाद उन्हें यह जरूर सोचना चाहिए कि क्या आईपीएल में खेलकर उन्हें कोई फायदा हुआ (मैं आर्थिक लाभ की बात नहीं कर रहा हूं)।
हमारे तेज गेंदबाज औसत बनकर क्यों रह जाते हैं
जवागल श्रीनाथ, वेंकटेश प्रसाद, अमय कुरविला, जहीर खान, आशीष नेहरा, इरफान पठान, एल बालाजी, रुद्र प्रताप सिंह, ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने कपिल देव के संन्यास लेने के बाद कभी न कभी भारतीय तेज गेंदबाजी की कमान संभाली है।
इनमें से लगभग सभी ने अपने अंतरराष्ट्रीय कैरियर की अच्छी शुरुआत की और कुछ मैचों में अपने दम पर भारत को जीत भी दिलाई लेकिन सवाल यह है क्या हमारे ये तेज गेंदबाजों विश्व के अपने समकालीन महान तेज गेंदबाजों की श्रेणी में आते हैं। जब श्रीनाथ और प्रसाद का दौर था तब ग्लेन मैक्ग्रा, वसीम अकरम, एलन डोनाल्ड, शॉन पोलाक, वकार यूनुस और चामिंडा वास जैसे गेंदबाजों ने अपनी चमक बिखेरी। इनके आगे श्रीनाथ और वेंकटेश औसत ही नजर आए।
श्रीनाथ और वेंकटेश के बाद जहीर युग की शुरुआत हुई लेकिन वह भी ऊपर लिखे कुछ नामों की ख्याति के आगे दब से गए। फिर आशीष नेहरा, एल बालाजी, इरफान पठान और रुद्र प्रताप सिंह जैसे गेंदबाजों ने कमान संभाली है लेकिन लगता है कि आस्ट्रेलिया के ब्रेट ली और स्टुअर्ट क्लार्क, दक्षिण अफ्रीका के डेल स्टेन और इंग्लैंड के रेयान साइडबाटम इनके युग के सर्वश्रेष्ठ तेज गेंदबाज कहलाएंगे।
ऐसी क्या वजह है कि भारतीय तेज गेंदबाज अच्छी शुरुआत को कायम नहीं रख पाते हैं। जहां विश्व के अन्य तेज गेंदबाज औसत शुरुआत के बाद अपनी क्षमता में लगातार इजाफा करते रहते हैं वहीं हमारा कोई तेज गेंदबाज समय के साथ स्विंग खो देता है तो कोई रफ्तार। कुछ ऐसे भी हैं जिनमें न तो स्विंग बचती है और न ही रफ्तार। उदाहरण के तौर पर ब्रेट ली और जहीर खान के कैरियर की प्रगति का अवलोकन करें तो स्थिति साफ हो जाती है। दोनों ही तेज गेंदबाजों ने वर्ष 2000 में अपने-अपने कैरियर की शुरुआत की थी। ली के पास सिर्फ तेजी थी जबकि जहीर के पास अच्छी तेजी के साथ-साथ, दोनों ओर स्विंग कराने की क्षमता और एक अच्छा यार्कर भी था। अब देखिए ब्रेट ली के पास क्या-क्या है और जहीर के पास क्या बचा है। तूफानी रफ्तार के साथ इन स्विंग, आउट स्विंग, स्लोवर, कटर और योर्कर जैसे हथियारों के साथ ली फिलहाल दुनिया के श्रेष्ठ गेंदबाज हैं तो जहीर एक औसत गेंदबाज से ज्यादा कुछ नहीं।
बालाजी और नेहरा तो अपना फिटनेस ही कायम नहीं रख सके तो इरफान पठान की स्विंग और रफ्तार कहां गायब हुई यह उन्हें भी नहीं मालूम। पठान आज भी विकेट ले रहे हैं लेकिन उस तेजी के साथ नहीं जिसके लिए वह जाने जाते थे। अपनी बनाना इन स्विंग के लिए मशहूर पठान आज वनडे और ट्वंटी 20 में जरूर सफल हो रहे हैं लेकिन टेस्ट टीम में जगह बनाने के लिए उन्हें अपनी बल्लेबाजी का सहारा लेना पड़ता है। एक अन्य तेज गेंदबाज रुद्र प्रताप सिंह ने हालांकि अब तक खुद में सुधार ही किया है लेकिन डेल स्टेन और रेयान साइडबाटम तेजी से उन्हें पीछे छोड़ रहे हैं।
हालांकि भारतीय तेज गेंदबाजी एक नाम जरूर ऐसा सामने आया है जिसमें अपने समकालीन गेंदबाजों को पीछे छोड़ने की क्षमता है। वह तेज गेंदबाज हैं दिल्ली के ईशांत शर्मा। यह 19 साल का गेंदबाज बांग्लादेश में अपने कैरियर की शुरुआत से लेकर अब तक लंबा सफर तय चुका है। आस्ट्रेलिया में अपनी धारदार गेंदबाजी से उन्होंने सभी को प्रभावित किया है लेकिन अगर उन्हें औसत की राह छोड़कर महानता का रास्ता अख्तियार करना है तो खुद को हमेशा अपडेट करते रहना होगा और भारत के पिछले कई तेज गेंदबाजों की तुलना में आत्ममुग्धता से बचना होगा।
Thursday, May 22, 2008
थप्पड़ ने दिया सडेन डेथ
ऐसा नहीं है कि खेल के मैदान में थप्पड़ सिर्फ आईपीएल में चले और थप्पड़ जड़ने वाला शख्स हमेशा हरभजन सिंह ही हो। बुधवार रात को एक थप्पड़ फुटबाल के मैदान में भी चला और वह भी किसी मामूली मैच में नहीं बल्कि मास्को में हुए यूएफा चैंपियंस लीग के फाइनल में चला।
मुकाबला इंग्लैंड के दो मशहूर क्लबों मैनचेस्टर यूनाईटेड और चेल्सी के बीच था। मैच निर्धारित समय में 1-1 की बराबरी पर रहा था और खेल 30 मिनट के अतिरिक्त समय में चल रहा था। जब यह तय लगने लगा था कि फैसले के लिए पेनाल्टी शूट आउट का सहारा लेना ही पड़ेगा तभी चेल्सी के स्टार मिडफील्डर और पेनाल्टी स्पेशलिस्ट डाइडिएर ड्रोगबा ने थ्रो इन मसले पर हुए मामूली विवाद पर यूनाइटेड के खिलाड़ी मार्क विदिच को थप्पड़ जड़ दिया। उन्हें रेड कार्ड दिखाया गया और वह मैच से बाहर हो गए।
पेनाल्टी शूट आउट में चेल्सी को ड्रोगबा को भारी कमी खली और वह सडेन डेथ तक खिंचे इस मैच में 5-6 से पराजित हो गया और कभी राजनीतिक कारणों से लाल रहने वाला मास्को बुधवार की इस रात को मैनचेस्टर यूनाईटेड के लाल रंग में सराबोर हो गया। यूनाईटेड के सभी खिलाड़ी जश्न में डूब गए तो चेल्सी के मुर्झाए चेहरे यही सोच रहे होंगे ड्रोगबा तूने क्या किया क्योंकि ड्रोगबा की अनुपस्थिति में चेल्सी के कप्तान जॉन टैरी को पेनाल्टी लेने के लिए आना पड़ा और वह अपना शॉट गोल पोस्ट के बाहर खेल बैठे। अगर वह यह गोल कर जाते तो यह मैच चेल्सी की झोली में चला जाता लेकिन वह चूक गए और यूनाईटेड को बराबरी मिल गई। इसके बाद यूनाईडेट के गोलकीपर वान डेर सार ने सडेन डेथ में एक और पेनाल्टी रोक कर अपनी टीम को ऐतिहासिक जीत दिला दी।
ड्रोगबा की गलती कुछ-कुछ जर्मनी में हुए पिछले विश्व कप फुटबाल फाइनल की याद दिला गई। तब फ्रांस और इटली के बीच हुए मुकाबले में फ्रांस के धुरंधर जिनेदिन जिदान के इटली के मार्को मेतराजी के सीने पर हेडर दे मारा जिससे उन्हें रेड कार्ड देखना पड़ा और वह मैच से बाहर हो गए। इसका खामियाजा फ्रांस को पेनाल्टी शूट आउट में भुगतना पड़ा और इटली विश्व चैंपियन बना गया।
यह आलेख मैंने अपने संस्थान की वेबसाइट जागरण. काम के लिए लिखा है जिसे अपने ब्लॉग पर भी चस्पा कर दिया है। इसे जागरण.काम पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
मुकाबला इंग्लैंड के दो मशहूर क्लबों मैनचेस्टर यूनाईटेड और चेल्सी के बीच था। मैच निर्धारित समय में 1-1 की बराबरी पर रहा था और खेल 30 मिनट के अतिरिक्त समय में चल रहा था। जब यह तय लगने लगा था कि फैसले के लिए पेनाल्टी शूट आउट का सहारा लेना ही पड़ेगा तभी चेल्सी के स्टार मिडफील्डर और पेनाल्टी स्पेशलिस्ट डाइडिएर ड्रोगबा ने थ्रो इन मसले पर हुए मामूली विवाद पर यूनाइटेड के खिलाड़ी मार्क विदिच को थप्पड़ जड़ दिया। उन्हें रेड कार्ड दिखाया गया और वह मैच से बाहर हो गए।
पेनाल्टी शूट आउट में चेल्सी को ड्रोगबा को भारी कमी खली और वह सडेन डेथ तक खिंचे इस मैच में 5-6 से पराजित हो गया और कभी राजनीतिक कारणों से लाल रहने वाला मास्को बुधवार की इस रात को मैनचेस्टर यूनाईटेड के लाल रंग में सराबोर हो गया। यूनाईटेड के सभी खिलाड़ी जश्न में डूब गए तो चेल्सी के मुर्झाए चेहरे यही सोच रहे होंगे ड्रोगबा तूने क्या किया क्योंकि ड्रोगबा की अनुपस्थिति में चेल्सी के कप्तान जॉन टैरी को पेनाल्टी लेने के लिए आना पड़ा और वह अपना शॉट गोल पोस्ट के बाहर खेल बैठे। अगर वह यह गोल कर जाते तो यह मैच चेल्सी की झोली में चला जाता लेकिन वह चूक गए और यूनाईटेड को बराबरी मिल गई। इसके बाद यूनाईडेट के गोलकीपर वान डेर सार ने सडेन डेथ में एक और पेनाल्टी रोक कर अपनी टीम को ऐतिहासिक जीत दिला दी।
ड्रोगबा की गलती कुछ-कुछ जर्मनी में हुए पिछले विश्व कप फुटबाल फाइनल की याद दिला गई। तब फ्रांस और इटली के बीच हुए मुकाबले में फ्रांस के धुरंधर जिनेदिन जिदान के इटली के मार्को मेतराजी के सीने पर हेडर दे मारा जिससे उन्हें रेड कार्ड देखना पड़ा और वह मैच से बाहर हो गए। इसका खामियाजा फ्रांस को पेनाल्टी शूट आउट में भुगतना पड़ा और इटली विश्व चैंपियन बना गया।
यह आलेख मैंने अपने संस्थान की वेबसाइट जागरण. काम के लिए लिखा है जिसे अपने ब्लॉग पर भी चस्पा कर दिया है। इसे जागरण.काम पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
Wednesday, May 21, 2008
शायद पेस से जलते हैं भूपति
बीजिंग ओलंपिक शुरू होने में महज तीन महीने ही बचे हैं और टेनिस खिलाड़ी महेश भूपति ने यह कह कर सभी को चौंका दिया है कि वह लिएंडर पेस के साथ जोड़ी बनाकर इसमें भाग नहीं लेना चाहते हैं।
ओलंपिक में भारत को पदकों के लिए किस कदर तरसना पड़ता है यह बताने की जरूरत नहीं है। 1980 के बाद हमने ओलंपिक स्वर्ण का स्वाद नहीं चखा है। 1984, 1988 और 1992 में तो हमें एक भी पदक नहीं मिला। 1996 के अटलांटा ओलंपिक में लिएंडर ने टेनिस में पुरुष एकल का कांस्य पदक जीतकर 16 साल का सूखा समाप्त किया। इसके बाद सिडनी में कर्नम मल्लेश्वरी ने कांस्य जीता तो 2004 में एथेंस में डबल ट्रैप शूटर राजवर्धन राठौड़ ने चांदी का तमगा जीतकर देश वासियों को खुश होने का मौका दिया।
इस बार भले ही पदकों के लिए कई दावे किए जा रहे हों लेकिन सच्चाई यही है कि बीजिंग में भी हम पदक के लिए कुछ ही नामों पर निर्भर होंगे। इन्हीं चंद नामों में लिएंडर पेस और महेश भूपति भी हैं। एथेंस में इन दोनों की जोड़ी ने सेमीफाइनल तक का सफर तय किया और यह भारत व इनका दुर्भाग्य रहा है कि वे बहुत करीबी अंतर से सेमीफाइनल व कांस्य पदक के लिए हुआ मुकाबला हार गए।
इस बार भूपति यह तर्क दे रहे हैं कि लंबे समय से संवाद न हो पाने और साझा तैयारियों के अभाव के कारण वह पेस के साथ जोड़ी नहीं बनाना चाहते हैं। क्या भूपति बताएंगे कि सिडनी और एथेंस ओलंपिक से पहले क्या उन्होंने पेस के साथ पूरी तैयारी की थी। निश्चित तौर पर उनका जवाब ना होगा। तो भूपति भाई पिछली बार आप बिना किसी खास तैयारी के साथ पेस के साथ मिलकर सेमीफाइनल में पहुंच गए तो इस बार उससे अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं कर सकते।
यह बात समझ में नहीं आती कि क्यों भूपति राष्ट्रीय हित के खातिर ही सही कुछ महीनों के लिए पेस के साथ अपने मतभेदों को क्यों नहीं भूल जाते हैं। यह वही लिएंडर पेस हैं जिन्होंने भूपति को भूपित बनने में मदद की है। भूपति को डेविस कप में अच्छे प्रदर्शन के बाद एटीपी सर्किट में अपना युगल जोड़ीदार बनने की पेशकश लिएंडर ने ही की थी। सभी जानते हैं कि लिएंडर सिंगल्स के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी थे लेकिन उन्होंने इसकी परवाह न करते हुए भूपति के साथ जोड़ी बनाई थी।
लगता है समय के साथ भूपति को पेस से जलन होने लगी। उनके मन में यह बात घर करने लगी कि सारी कामयाबियों का सेहरा पेस के सिर ही बंध जाता है। यह सही है कि पेस-भूपति की साझा कामयाबियों में ज्यादा श्रेय लिएंडर को मिला लेकिन भूपति ने शायद इसके पीछे मौजूद कारण को जानने की कोशिश नहीं की।
लिएंडर उन खिलाडि़यों में हैं जिन्होंने हमेशा तिरंगे की शान के लिए खेला है। एटीपी सर्किट में वह भले ही किसी औने-पौने खिलाड़ी से हार जाते हैं लेकिन डेविस कप, एशियन गेम्स और ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में वह खुद से कई गुना अच्छे खिलाडि़यों को धूल चटा देते हैं। पेस की इसी खूबी ने उन्हें देशवासियों का लाडला बना दिया। भूपति को शायद पेस की यही लोकप्रियता अखर रही है। वह सोचते होंगे कि अगर वह पेस के साथ ओलंपिक पदक जीत जाते हैं तो दुनिया कहेगी कि पेस ने अपने कैरियर में दो बार ओलंपिक पदक जीता है जबकि भूपति ने सिर्फ एक बार।
भूपति युवा खिलाड़ी रोहन बोपन्ना के साथ जोड़ी बनाना चाहते हैं। बोपन्ना ने भले पिछले एक-दो सालों में पाकिस्तान के ऐसाम उल हक कुरैशी के साथ मिलकर दो-चार एटीपी चैलेंजर्स में अच्छा प्रदर्शन किया हो लेकिन अभी वह इतने मंझे हुए खिलाड़ी नहीं बने हैं कि ओलंपिक पदक जीत लें। शायद भूपति इस बात के जुगाड़ में हैं कि किसी भी तरह से पेस को ओलंपिक में दूसरी कामयाबी से रोका जाए लेकिन भला हो भारतीय टेनिस संघ का कि उसने भूपति की मांग को सिरे से ठुकरा दिया है और उन्हें यह निर्देश दिया है उनकी जोड़ी सिर्फ और सिर्फ पेस के साथ ही बनेगी।
ओलंपिक में भारत को पदकों के लिए किस कदर तरसना पड़ता है यह बताने की जरूरत नहीं है। 1980 के बाद हमने ओलंपिक स्वर्ण का स्वाद नहीं चखा है। 1984, 1988 और 1992 में तो हमें एक भी पदक नहीं मिला। 1996 के अटलांटा ओलंपिक में लिएंडर ने टेनिस में पुरुष एकल का कांस्य पदक जीतकर 16 साल का सूखा समाप्त किया। इसके बाद सिडनी में कर्नम मल्लेश्वरी ने कांस्य जीता तो 2004 में एथेंस में डबल ट्रैप शूटर राजवर्धन राठौड़ ने चांदी का तमगा जीतकर देश वासियों को खुश होने का मौका दिया।
इस बार भले ही पदकों के लिए कई दावे किए जा रहे हों लेकिन सच्चाई यही है कि बीजिंग में भी हम पदक के लिए कुछ ही नामों पर निर्भर होंगे। इन्हीं चंद नामों में लिएंडर पेस और महेश भूपति भी हैं। एथेंस में इन दोनों की जोड़ी ने सेमीफाइनल तक का सफर तय किया और यह भारत व इनका दुर्भाग्य रहा है कि वे बहुत करीबी अंतर से सेमीफाइनल व कांस्य पदक के लिए हुआ मुकाबला हार गए।
इस बार भूपति यह तर्क दे रहे हैं कि लंबे समय से संवाद न हो पाने और साझा तैयारियों के अभाव के कारण वह पेस के साथ जोड़ी नहीं बनाना चाहते हैं। क्या भूपति बताएंगे कि सिडनी और एथेंस ओलंपिक से पहले क्या उन्होंने पेस के साथ पूरी तैयारी की थी। निश्चित तौर पर उनका जवाब ना होगा। तो भूपति भाई पिछली बार आप बिना किसी खास तैयारी के साथ पेस के साथ मिलकर सेमीफाइनल में पहुंच गए तो इस बार उससे अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं कर सकते।
यह बात समझ में नहीं आती कि क्यों भूपति राष्ट्रीय हित के खातिर ही सही कुछ महीनों के लिए पेस के साथ अपने मतभेदों को क्यों नहीं भूल जाते हैं। यह वही लिएंडर पेस हैं जिन्होंने भूपति को भूपित बनने में मदद की है। भूपति को डेविस कप में अच्छे प्रदर्शन के बाद एटीपी सर्किट में अपना युगल जोड़ीदार बनने की पेशकश लिएंडर ने ही की थी। सभी जानते हैं कि लिएंडर सिंगल्स के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी थे लेकिन उन्होंने इसकी परवाह न करते हुए भूपति के साथ जोड़ी बनाई थी।
लगता है समय के साथ भूपति को पेस से जलन होने लगी। उनके मन में यह बात घर करने लगी कि सारी कामयाबियों का सेहरा पेस के सिर ही बंध जाता है। यह सही है कि पेस-भूपति की साझा कामयाबियों में ज्यादा श्रेय लिएंडर को मिला लेकिन भूपति ने शायद इसके पीछे मौजूद कारण को जानने की कोशिश नहीं की।
लिएंडर उन खिलाडि़यों में हैं जिन्होंने हमेशा तिरंगे की शान के लिए खेला है। एटीपी सर्किट में वह भले ही किसी औने-पौने खिलाड़ी से हार जाते हैं लेकिन डेविस कप, एशियन गेम्स और ओलंपिक जैसी स्पर्धाओं में वह खुद से कई गुना अच्छे खिलाडि़यों को धूल चटा देते हैं। पेस की इसी खूबी ने उन्हें देशवासियों का लाडला बना दिया। भूपति को शायद पेस की यही लोकप्रियता अखर रही है। वह सोचते होंगे कि अगर वह पेस के साथ ओलंपिक पदक जीत जाते हैं तो दुनिया कहेगी कि पेस ने अपने कैरियर में दो बार ओलंपिक पदक जीता है जबकि भूपति ने सिर्फ एक बार।
भूपति युवा खिलाड़ी रोहन बोपन्ना के साथ जोड़ी बनाना चाहते हैं। बोपन्ना ने भले पिछले एक-दो सालों में पाकिस्तान के ऐसाम उल हक कुरैशी के साथ मिलकर दो-चार एटीपी चैलेंजर्स में अच्छा प्रदर्शन किया हो लेकिन अभी वह इतने मंझे हुए खिलाड़ी नहीं बने हैं कि ओलंपिक पदक जीत लें। शायद भूपति इस बात के जुगाड़ में हैं कि किसी भी तरह से पेस को ओलंपिक में दूसरी कामयाबी से रोका जाए लेकिन भला हो भारतीय टेनिस संघ का कि उसने भूपति की मांग को सिरे से ठुकरा दिया है और उन्हें यह निर्देश दिया है उनकी जोड़ी सिर्फ और सिर्फ पेस के साथ ही बनेगी।
Monday, May 19, 2008
क्रिकेट में रबर, आपने आखिरी बार कब सुना?
कुछ दिनों पहले की बात है, मैं अपने एक बेहद नजदीकी मित्र से क्रिकेट के ऊपर परिचर्चा कर रहा था। इसी दौरान मैंने कहा कि भारत ने तमाम देशों में टेस्ट रबर तो जीत लिए हैं लेकिन आस्ट्रेलिया में उसे यह कामयाबी नहीं मिली है। मेरा मित्र क्रिकेट में रबर शब्द सुनकर चौंक गया। हालांकि मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि मेरे उस मित्र के पास क्रिकेट से जुड़ी जानकारियों का कतई अभाव नहीं है लेकिन उसने इससे पहले क्रिकेट में रबर शब्द नहीं सुना था।
मैंने कुछ और क्रिकेट प्रेमी मित्रों से इस बारे में ताकीद की लेकिन ज्यादातर इस शब्द से अनभिज्ञ थे। इससे पहले कि इस शब्द के बारे में लोगों की अनभिज्ञता की बात करूं पहले यह बताता चलूं कि क्रिकेट में रबर क्या है (हो सकता है आपको इसका अर्थ पता हो लेकिन मैं यहां इसका अर्थ उनलोगों के लिए लिख रहा हूं जो अभी भी इससे नावाकिफ हैं)।
रबर का आशय किसी द्विपक्षीय टेस्ट सीरीज के नतीजे से है। अगर भारत-इंग्लैंड के बीच तीन टेस्ट मैचों की सीरीज हुई और इसे भारत ने जीता तो कहा जाएगा कि यह टेस्ट रबर भारत का हुआ। अगली बार जब भारत और इंग्लैंड किसी टेस्ट सीरीज में खेलने उतरेगी तो इंग्लैंड को रबर अपने कब्जे में लेने के लिए सीरीज को जीतना ही होगा। यह इसे भारत ने जीता या यह सीरीज ड्रा रही तो रबर भारत के पास ही रहेगा। यही बात आस्ट्रेलिया-इंग्लैंड के बीच होने वाली एशेज सीरीज, आस्ट्रेलिया-वेस्टइंडीज के बीच होने वाले फ्रैंक वारेल सीरीज और भारत-आस्ट्रेलिया के बीच होने वाले बार्डर-गावस्कर सीरीज में भी लागू होती है।
मिशाल के तौर पर अपने पिछले आस्ट्रेलिया दौरे पर भारत ने 1-2 से टेस्ट सीरीज गंवाई थी। अगर यह सीरीज 2-2 से बराबर रहती तो भी बार्डर-गावस्कर ट्रॉफी आस्ट्रेलिया के पास ही रहती क्योंकि उसने 2004-05 में भारत में हुई सीरीज में 2-1 से जीत दर्ज की थी।
रबर से ही जुड़ा एक और शब्द है जो टेस्ट सीरीज से ताल्लुक रखता है। वह शब्द है डेड रबर। डेड रबर का आशय उस मैच से होता है जिसके नतीजे का टेस्ट सीरीज के नतीजे पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। मसलन आस्ट्रेलिया के खिलाफ किसी तीन टेस्ट मैचों की सीरीज में भारत पहले दो टेस्ट जीत लेता है तो तीसरा टेस्ट डेड रबर कहलाएगा। मतलब यह कि इस मैच के नतीजे का टेस्ट सीरीज के नतीजे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।
अब इस बात की ओर लौटें कि क्यों रबर जैसे शब्द आज के आधुनिक दौर की क्रिकेट में अपना महत्व खोते जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा दोष आजकल होने वाली क्रिकेट पत्रकारिता खासकर हिंदी पत्रकारिता को जाता है। अंग्रेजी अखबारों में तो आप यदा-कदा इन शब्दों को पढ़ भी लें लेकिन हिंदी में ये खोजने से भी नहीं मिलेंगे (मुमकिन है कि प्रभास जोशी जी के कॉलम में मिल जाए)। इन शब्दों के विलुप्त होने का दूसरा बड़ा कारण वनडे व ट्वंटी 20 क्रिकेट की बहुतायत है जिस कारण टेस्ट क्रिकेट की खूबियों और उससे जुड़े शब्द लोगों के कानों से नहीं गुजरते।
Sunday, May 18, 2008
एक कुत्ते की बदौलत बचा मैनचेस्टर यूनाईटेड
यह शीर्षक अपने आप में कुछ अजीब जरूर लग रहा होगा लेकिन यह सौ फीसदी सच है। आज की तारीख में मैनचेस्टर यूनाईटेड दुनिया का सबसे धनी खेल क्लब (करीब 80 अरब रुपये की कंपनी) है और इसके प्रशंसकों की तादाद करीब 33 करोड़ है जो ब्रिटेन की कुल आबादी का करीब सात गुना है। ऐसे में यह तथ्य तो चौंकाने वाला होगा ही कि इस क्लब को खड़ा करने में एक कुत्ते ने अहम भूमिका निभाई।
वैसे तो इस क्लब की स्थापना 1878 में न्यूटन हीथ एल एंड वाईआर फुलबाल क्लब के नाम पर हुई। 1883 में इसका नाम सिर्फ न्यूटन हीथ फुटबाल क्लब कर दिया गया। लेकिन वर्ष 1902 के आसपास यह क्लब दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया। उस समय इसके ऊपर 2500 पाउंड का कर्ज था। इससे उबरने के लिए क्लब को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था और सभी मान रहे थे कि इस क्लब के अब गिने चुने दिन ही बचे हैं। क्लब के तत्कालीन कप्तान हैरी स्टेफोर्ड ने सेंट बर्नाड नस्ल के अपने प्यारे कुत्ते को नीलाम करने की कोशिश की ताकि क्लब के लिए कुछ पैसे जुटाए जाए। वहां के एक शराब व्यवसायी जॉन हेनरी डेविस ने कुत्ते को खरीदने की इच्छा जताई लेकिन स्टेफोर्ड ने इसके बदले उनसे क्लब में पैसे निवेश करने की शर्त रखी जिसे डेविस ने मान ली।
डेविस को क्लब का चेयरमैन बनाया गया। उन्होंने अपनी पहली बोर्ड मीटिंग में यह प्रस्ताव रखा कि क्लब को नया रूप देने के लिए इसका नाम बदला जाए। पहले मैनचेस्टर सेंट्रल और मैनचेस्टर सेल्टिक जैसे नामों पर विचार किया गया। तभी इतालवी मूल के एक युवा लूईस रोक्का ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न इसका नाम मैनचेस्टर यूनाईटेड रखा जाए। यह प्रस्ताव सभी को भाया और तब से यह क्लब मैनचेस्टर यूनाईटेड हो गया। डेविस ने फिर क्लब की जर्सी का रंग बदला। पहले इसकी जर्स का रंग हरा और सुनहरा था जिसे बदलकर लाल और सफेद कर दिया गया जो आज भी कायम है।
उसके बाद मैनचेस्टर यूनाईटेड ने सफलता की जो इबारत लिखी वह आज सबके सामने है।
उन्होंने इस बार भी इंग्लिश प्रीमियर लीग का खिताब जीता है। अपने इतिहास में यूनाईटेड यह कारनामा 17 बार कर चुका है (लीवरपूल ने 18 बार यह खिताब अपने नाम किया है)। 1968 में मैनचेस्टर यूनाईटेड यूरोपियन कप जीतने वाला इंग्लैंड का पहला क्लब बना। क्लब स्तर की दुनिया की सबसे पुरानी फुटबाल प्रतियोगिता एफ ए कप के विजेता के तौर पर यूनाईटेड ने रिकार्ड 11 बार अपना नाम दर्ज कराया है। 1990 के दशक में यह दुनिया का सबसे धनी फुटबाल क्लब बना और आज की तारीख में वह किसी भी खेल में दुनिया का सबसे धनी क्लब है।
1992 में इंग्लिश प्रीमियर लीग शुरू होने के बाद से यूनाईटेड का प्रदर्शन और भी प्रभावशाली रहा। इसके मैनेजर सर एलेक्स फगुर्सन दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित और कामयाब मैनेजर में गिने जाते हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल में इस क्लब को 10 बार इंग्लिश प्रीमियर लीग का चैंपियन बनाया।
हालांकि इस क्लब को कामयाबी के साथ-साथ एक बेहद दुखद हादसे से भी रूबरू होना पड़ा। 6 फरवरी 1958 को यूरोपियन कप के एक मैच में भाग लेने के लिए खिलाडि़यों को ले जा रहा हवाई जहाज म्यूनिख में दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें यूनाईटेड के आठ खिलाडि़यों ज्योफ बेंट, रोजर बायर्ने, एडी कोलमैन, डंकन एडवर्ड्स, मार्क जोंस, डेविड पेग, टॉमी टेलर और लियाम बिली व्हेलान को अपनी जान गंवानी पड़ी। इंधन लेने के बाद विमान के टेक ऑफ में परेशानी आने लगी थी। पायलटों ने दो बार टेक ऑफ का असफल प्रयास किया और जब उन्होंने तीसरा प्रयास किया तब यह दर्दनाक दुर्घटना घटी।
इस दुर्घटना ने यूनाईटेड को झकझोरा जरूर लेकिन उसके जज्बे को तोड़ नहीं सका। उसी सत्र में यूनाईटेड की टीम एफ ए कप के फाइनल में पहुंची। बुरे दौर में हौसला न हारने का यही जज्बा शायद वह सबसे बड़ा कारण है जिसने यूनाईटेड को अब तक इतनी अपार कामयाबियां दिलाई है और यही वजह है कि इसके पूरे विश्व में मौजूद 33 करोड़ प्रशंसकों में एक मैं भी हूं।
नोट: आलेख में दिए गए तथ्य विकीपीडिया डॉट ओआरजी और मैनचेस्टर यूनाईटेड की आधिकारिक वेबसाइट से लिए गए हैं।
Thursday, May 8, 2008
आईपीएल प्रीमियर तो है लेकिन लीग नहीं
इसमें कोई शक नहीं है कि इंडियन प्रीमियर लीग क्रिकेट जगत में एक अभूतपूर्व क्रांति की तरह है। इसने दुनिया भर के उम्दा क्रिकेटरों को ज्यादा कमाई का मौका उपलब्ध कराया। इसने इस खेल के प्रशंसकों को भी किसी टीम को अपना समर्थन देने के लिए ऐसा आधार मुहैया कराया जिसमें देश की प्रतिष्ठा दांव पर न लगी हो। इससे जीत पर मजा तो आता है लेकिन हार का वैसा गम नहीं होता जैसा कि किसी अंतरराष्ट्रीय मैच में अपने देश की हार पर होता है। इस टूर्नामेंट ने अभी अपना आधा सफर ही पूरा किया है लेकिन इतने कम समय में ही इसने भारतीय चयनकर्ताओं को भविष्य के लिए आधा दर्जन से ज्यादा उम्दा विकल्प उपलब्ध करवा दिए।
लेकिन ऊपर लिखी तमाम खूबियों के अलावा आईपीएल की कुछ खामियां भी हैं जिसे दूर कर पाना बेहद मुश्किल हो सकता है। ये खामियां ऐसी हैं जो इसके स्पोर्ट्स लीग होने पर ही सवाल उठाती है। इन्हीं में से एक खामी है रेलीगेशन सिस्टम का का न होना। रेलीगेशन सिस्टम किसी भी स्पोर्ट्स लीग की जान होती है। इसके तहत मुख्य लीग में फिसड्डी साबित हुई टीमों को अगले सत्र में दूसरे डिविजन में रेलीगेट कर दिया जाता है और दूसरे डिविजन में शीर्ष पर रही टीम मुख्य टूर्नामेंट में उसका स्थान ले लेती है। यह सिस्टम यूरोप की तमाम फुटबाल लीग, अमेरिकन फुटबाल, बास्केटबाल लीग [एनबीए] यहां तक हमारे देश में खेली जाने वाली रणजी ट्राफी क्रिकेट में भी लागू है।
इसका फायदा यह होता है कि कोई टीम अच्छा प्रदर्शन सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहती है कि वह टूर्नामेंट जीते बल्कि उसे इस बात का भी डर होता है कि कहीं वह दूसरे डिविजन में न खिसक जाए। लेकिन आईपीएल में ऐसा नहीं होगा। मान लीजिए कि अब तक अच्छा प्रदर्शन न कर पाने वाली बेंगलूर रॉयल चैलेंजर्स या हैदराबाद डक्कन चार्जर्स अगले दो-तीन मैच और हारकर सेमीफाइनल में पहुंचने की होड़ से बाहर हो जाती है तो अंतिम के चार-पांच मैचों में कौन सी बात उन्हें अच्छा प्रदर्शन करने पर मजबूर करेगी। अगर रेलीगेशन सिस्टम होता तो इसकी नौबत आने की कोई आशंका नहीं होती और कोई भी टीम सेमीफाइनल की होड़ से बाहर होने के बावजूद अगले साल मुख्य टूर्नामेंट में बचे रहने के लिए अच्छा खेल दिखाती या दिखाने की कोशिश करती।
अब आईपीएल में सकेंड डिविजन है ही नहीं तो रेलीगेशन सिस्टम का सवाल ही नहीं उठता है। अगर कुछ नई टीमों को जोड़कर सकेंड डिविजन बनाने की कोशिश भी की जाए तो मौजूदा फ्रेंचाइजी इसे सफल नहीं होने देंगे क्योंकि उन्होंने भारी कीमत चुकाकर 10-10 सालों के लिए टीम खरीदी है। वह किसी भी सूरत में ऐसी स्थिति नहीं चाहेंगे जिससे उनकी टीम पर मुख्य टूर्नामेंट से बाहर होने का खतरा मंडराए।
रेलीगेशन की तरह ही आईपीएल में एक और बड़ी खामी है। वह है इसके प्रारूप में सेमीफाइनल और फाइनल मैच का प्रावधान। यह ऐसा प्रावधान है जो टीमों को शीर्ष स्थान के लिए नहीं बल्कि किसी तरह अंतिम चार में जगह बनाने के लिए प्रेरित करेगी। दुनियां की किसी भी नामी स्पोर्ट्स लीग का अवलोकन करें तो आप पाएंगे कि वहां सेमीफाइनल और फाइनल का प्रावधान नहीं है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि टीमें लीग मैचों को ही पूरी गंभीरता से ले और हर लीग मैच इस भाव के साथ खेला जाए मानो यही सेमीफाइनल और फाइनल है।
वहां टीमों को यह पता होता है कि अगर टूर्नामेंट जीतना है तो हर हाल में शीर्ष पर आना होगा अंतिम चार में आने से कोई फायदा नहीं। हर तीन या चार साल पर होने वाले मैचों में सेमीफाइनल और फाइनल होना तर्कसंगत है लेकिन हर साल होने वाले आयोजन में इसका प्रावधान लीग मैचों की अहमियत को कम कर सकता है।
इसी तरह आईपीएल में एक ही शहर की दो टीमों के बीच होने वाली भिड़ंत का मजा भी नहीं है। अंतरराष्ट्रीय कैलेंडर व्यस्त होने की वजह से आईपीएल में टीमों की संख्या सिर्फ आठ रखी गई है ताकि कम समय में टूर्नामेंट निबटाया जाए। इससे भारत के ही कई अहम शहरों को इसमें भाग लेने का मौका नहीं मिल पाया तो एक ही शहर की दो टीमों की बात करना ही बेमानी है।
खैर शुरुआत में तो हर आयोजन अधूरा सा दिखता है और समय के साथ इसमें सुधार होता है। हम यही उम्मीद कर हैं कि आईपीएल भी धीरे-धीरे खुद को सुधारेगा और स्पोर्ट्स लीग की जो अंतरराष्ट्रीय मान्यता है उस पर खरा उतरेगा।
Friday, May 2, 2008
आईपीएल की देन
इंडियन प्रीमियर लीग शुरू होने के साथ ही सुर्खियाँ बटोरने लगा है. कभी चीयर गर्ल्स तो कभी हरभजन-श्रीसंथ विवाद चर्चा का विषय बना. इस बीच इस टूर्नामेंट ने कुछ सकारात्मक संकेत भी दिए जिनमे कई नए युवा खिलाड़ियों का गुमनामी के अंधेरे से बाहर निकल कर छा जाना भी शामिल है. आइये जानते हैं कौन हैं ये युवा और क्या है इनकी खासियत.
अभिषेक नायर: मुम्बई इंडियंस के इस हरफनमौला खिलाड़ी ने आखिरी के ओवरों में जिस तरह की बल्लेबाजी की है उससे दक्षिण अफ्रीका के लांस क्लूजनर की याद ताजा हो गई. बैक फ़ुट हो या फ्रंट फ़ुट नायर दोनों ही जगहों से गेंद को सीमा रेखा के पार पहुचाने की कुव्वत रखते हैं. अगली बार जब चयनकर्ता भारत की वन डे या ट्वेन्टी २० टीम चुनने बैठेंगे तो उनके लिए नायर को नजरंदाज कर पाना मुश्किल हो जाएगा.
मनप्रीत गोनी: यह पंजाबी पुत्तर अपनी धारदार गेंदबाजी से चेन्नई सुपर किंग्स के आक्रमण का मुख्य हथियार बन गया है. लाइन लेंथ अच्छी होने के साथ साथ गोनी की रफ्तार भी बल्लेबाजों को चौकाने की क्षमता रखती है.
अशोक दिंदा: जिस गेंदबाज की तारीफ रिक्की पोंटिंग करे तो उसमें कुछ को खास बात होगी. शोएब अख्तर की गैरमौजूदगी दिंदा ने कोलकाता की टीम को आक्रमण में तेजी की कमी नही होने दी. अपनी गेंदों में गजब की उछाल पैदा करने वाले दिंदा अच्छे अच्छे बल्लेबाजों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं.
रविंदर जडेजा: यूं तो इनकी उम्र अभी सिर्फ़ १९ साल है लेकिन अपनी दमदार बल्लेबाजी की बदौलत जडेजा मज़बूत दावेदारी पेश करते नजर आ रहे हैं. मलेशिया में हुए अंडर १९ विश्व कप में भी जडेजा ने अपने खेल से सबका मन मोहा था.
इनके अलावा और भी कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने आईपीएल में अच्छा प्रदर्शन किया है और युवाओ को तरजीह देने वाली राष्ट्रीय चयन समिति के सामने कई और विकल्प उपलब्ध कराये हैं. इनमे यूसुफ पठान, सोलुन्खे, शिखर धवन, पी अमरनाथ जैसे नाम शामिल हैं. अभी तो आईपीएल शुरू ही हुआ है. उम्मीद है कि आने वाले मैचों में कई नए सितारे उभरेंगे और टीम इंडिया के अंदर आने के लिए जोरदार दस्तक देंगे.
अभिषेक नायर: मुम्बई इंडियंस के इस हरफनमौला खिलाड़ी ने आखिरी के ओवरों में जिस तरह की बल्लेबाजी की है उससे दक्षिण अफ्रीका के लांस क्लूजनर की याद ताजा हो गई. बैक फ़ुट हो या फ्रंट फ़ुट नायर दोनों ही जगहों से गेंद को सीमा रेखा के पार पहुचाने की कुव्वत रखते हैं. अगली बार जब चयनकर्ता भारत की वन डे या ट्वेन्टी २० टीम चुनने बैठेंगे तो उनके लिए नायर को नजरंदाज कर पाना मुश्किल हो जाएगा.
मनप्रीत गोनी: यह पंजाबी पुत्तर अपनी धारदार गेंदबाजी से चेन्नई सुपर किंग्स के आक्रमण का मुख्य हथियार बन गया है. लाइन लेंथ अच्छी होने के साथ साथ गोनी की रफ्तार भी बल्लेबाजों को चौकाने की क्षमता रखती है.
अशोक दिंदा: जिस गेंदबाज की तारीफ रिक्की पोंटिंग करे तो उसमें कुछ को खास बात होगी. शोएब अख्तर की गैरमौजूदगी दिंदा ने कोलकाता की टीम को आक्रमण में तेजी की कमी नही होने दी. अपनी गेंदों में गजब की उछाल पैदा करने वाले दिंदा अच्छे अच्छे बल्लेबाजों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं.
रविंदर जडेजा: यूं तो इनकी उम्र अभी सिर्फ़ १९ साल है लेकिन अपनी दमदार बल्लेबाजी की बदौलत जडेजा मज़बूत दावेदारी पेश करते नजर आ रहे हैं. मलेशिया में हुए अंडर १९ विश्व कप में भी जडेजा ने अपने खेल से सबका मन मोहा था.
इनके अलावा और भी कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने आईपीएल में अच्छा प्रदर्शन किया है और युवाओ को तरजीह देने वाली राष्ट्रीय चयन समिति के सामने कई और विकल्प उपलब्ध कराये हैं. इनमे यूसुफ पठान, सोलुन्खे, शिखर धवन, पी अमरनाथ जैसे नाम शामिल हैं. अभी तो आईपीएल शुरू ही हुआ है. उम्मीद है कि आने वाले मैचों में कई नए सितारे उभरेंगे और टीम इंडिया के अंदर आने के लिए जोरदार दस्तक देंगे.
Thursday, May 1, 2008
खेल किसी एक व्यक्ति का मोहताज नही होता
करीब आठ महीने पहले जब रूसी अरबपति रोमन अब्रामोविच ने अपने फुटबाल क्लब चेल्सी के मैनेजर जोस मौरिन्हो को बर्खास्त करने का फैसला लिया था तब पूरी दुनिया के फुटबाल प्रेमियों और विशेषज्ञों ने यही अनुमान लगाया था कि इंग्लैंड के इस क्लब के अच्छे दिन गुजर गए. किसी को नए मैनेजर अव्रम ग्रांट पर भरोसा नही था. मौरिन्हो के जाने के बाद जिस तरह चेल्सी के खेल में गिरावट आई उससे इस बात को और भी बल मिला.
इंग्लिश प्रीमियर लीग के इस सत्र में पहले आर्सेनल और बाद में मेनचेस्टर यूनाईटेड ने अपनी पकड़ मजबूत की. लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में चेल्सी ने चुपके-चुपके अपनी साख हासिल कर ली. इंग्लिश प्रीमियर लीग में अब सिर्फ़ दो दौड़ के मैच बचे हैं और चेल्सी ने मेनचेस्टर यूनाईटेड के बराबर ८१ अंक हासिल कर लिए हैं. हालांकि गोल औसत पर वह अभी भी मेनचेस्टर यूनाईटेड से पीछे है लेकिन इसके बावजूद उसके पास इस प्रतियोगिता के जीतने के काफ़ी अच्छे अवसर हैं.
खैर इंग्लिश प्रीमियर लीग जीत लेने मात्र से अव्रम ग्रांट कोई तीर नही मार लेंगे क्योंकि मौरिन्हो ने अपने कार्यकाल में इस क्लब को लगातार दो बार यह खिताब जितवाया था वह भी करीब ५० साल का सूखा समाप्त करते हुए. लेकिन अव्रम ग्रांट अपनी टीम को यूएफा चैंपियंस लीग के फाइनल में पंहुचा कर जो कारनामा किया वह मौरिन्हो भी नही कर पाए थे. २१ मई को मास्को में चैंपियंस लीग के फाइनल में चेल्सी का मुकाबला मेनचेस्टर से ही होगा और उसकी पूरी कोशिश होगी कि वह इंग्लिश प्रीमियर लीग के साथ-साथ चैंपियंस लीग भी जीत कर दुनिया को यह बता दे कोई संस्था किसी एक व्यक्ति (मौरिन्हो) कि मोहताज नही होती खास कर खेल में तो बिल्कुल नही.
मेरी ओर से अव्रम ग्रांट और चेल्सी को ढेर बधाईयाँ, हालांकि कि मैं मेनचेस्टर यूनाईटेड का प्रशंसक हूँ और इन्ही लाल दानवों को जीतते हुए देखना चाहता हूँ.
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