Wednesday, April 2, 2008

अपनी ही डाल को काट रहे हैं आडवाणी

भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा माई कंट्री माई लाइफ इन दिनों मीडिया में खूब सुर्खियां बटोर रही है। आडवाणी खुद ही अलग-अलग समाचार चैनलों को साक्षात्कार देकर इसे प्रचारित व प्रसारित करने में जुटे हैं। इन साक्षात्कारों में आडवाणी ने किताब व खुद के बारे में जो बातें कही हैं वह उनके लिए कितना फायदेमंद या नुकसानदायक है उसी का विश्लेषण कर रहे हैं गिरीश निकम। उनका यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में है जिसका हिंदी अनुवाद उनकी अनुमति के साथ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

गिरीश निकम की कलम से

दो सप्ताह पहले मैंने अपने आलेख में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की इस बात पर तारीफ की थी कि उन्होंने अपने कैरियर के इस पड़ाव पर भी आत्मकथा लिखकर बाकी नेताओं के लिए प्रेरणादायी काम किया है। अब जबकि उस किताब के ज्यादा से ज्यादा तथ्य सामने आ रहे हैं और जिस तरह संघ परिवार का यह वयोवृद्ध नेता उसके प्रचार के लिए मीडिया में लगातार साक्षात्कार दे रहा है उससे उनकी ही पार्टी के सहयोगी उनसे कन्नी काटने लगे हैं। इनमें से ही एक नेता आश्चर्य कर रहा था कि प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार माने जाने वाले को ऐसी हरकतों से क्या लाभ मिलेगा, वहीं कांग्रस का एक वरिष्ठ नेता इस बात से बहुत खुश था कि इससे उन्हें आडवाणी को किनारे करने में मदद मिलेगी।

आडवाणी इन साक्षात्कारों के दौरान जैसा मूड दिखा रहे हैं वैसा तो उन्होंने अपनी किताब में भी नहीं दिखाया है और यह उनकी छवि के लिए किताब में लिखे तथ्यों से भी ज्यादा नुकसानदायक है। करण थापड़ के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कांग्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ अपने खराब राजनैतिक संबंधों का जिक्र किया और यह भी कहा कि इस खाई को पाटना बेदह मुश्किल है। लेकिन इस साक्षात्कार के कुछ ही देर बाद वह अपनी पत्नी के साथ सोनिया के घर 10 जनपथ पर उन्हें किताब की एक प्रति भेंट करने चले गए। इससे न तो कांग्रेस अध्यक्ष के साथ उनके संबंधों पर जमी बर्फ को पिघलाने में मदद मिली और न ही किसी ने ऐसा कदम उठाने पर उनकी वाहवाही की। इससे उन्हें अपनी ही पार्टी के सदस्यों से शर्मिंदगी झेलनी पड़ी और साथ ही कांग्रेसियों की आलोचना भी।

वहीं शेखर गुप्ता के साथ वाक द टॉक में उन्होंने यह दावा किया कि उन्हें इस बात का भान नहीं था कि 1999 में जसवंत सिंह विमान अपहर्ताओं की मांग पर आतंकवादियों को छोड़ने कांधार जा रहे हैं। उनके इस दावे को राजग सरकार के दौरान मंत्रीमंडल में उनके सहयोगी और तत्कालीन रक्षा मत्री जार्ज फर्नांडीस ने ही खारिज कर दिया। उन्होंने कहा वरिष्ठ मंत्रियों की जिस बैठक में जसवंत सिंह को आतंकवादियों के साथ कंघार भेजे जाने का फैसला किया गया उसमें आडवाणी भी मौजूद थे। फर्नांडीस और आडवाणी दोनों ही अपने जीवन के अस्सी बसंत देख चुके हैं और इस उम्र में याद्दास्त धोखा देती रहती है लेकिन इस मामले में किसकी याद्दास्त दगा दे रही है यह बहस का मुद्दा बन चुका है। जसवंत सिंह इस मुद्दे पर अभी भी चुप्पी साधे हुए हैं। इससे भी खराब स्थिति आडवाणी के उस बात पर बनती है जिसमें उन्होंने कहा है कि जसवंत सिंह ने इस मसले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से जरूर मंत्रणा की होगी। आडवाणी का यह वक्तव्य वाजपेयी को भी कटघरे में खड़ा देता है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि आडवाणी इस मसले के उत्तरदायित्व से खुद को दूर रखना चाहते हैं।

इस साक्षात्कार के दूसरे हिस्से में आडवाणी ने एक और विवादास्पद बयान दिया है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से इस्तीफा लेना चाहते थे लेकिन उन्होंने इसका विरोध किया। अब आडवाणी कह रहे हैं कि इन दंगों के बाद वह खुद मोदी के इस्तीफे के पक्ष में थे लेकिन गोवा में हुए राष्ट्रीय अधिवेषण के दौरान इस मसले पर विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण उन्होंने इस पर जोर नहीं दिया। इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि इसके बावजूद उन्होंने गुजराज दंगों को लेकर मोदी को क्लीन चिट दे दिया। रोचक बात यह है कि यह क्लीन चिट उसी दिन आया जिस दिन समाचार पत्रों में इंदौर में प्रतिबंधित संगठन सिमी के नोताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद पूछताछ के दौरान उनकी योजनाओं के खुलासे से जुड़ी खबरें छपीं थीं। पूछताछ के दौरान यह बात सामने आई कि ये लोग मोदी और आडवाणी की हत्या की साजिश रच रहे थे क्योंकि ये बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के पीछे इन्हीं नेताओं का हाथ मानते हैं। अब मोदी को क्लीन चिट देने से आडवाणी के खिलाफ इन युवाओं के मत को और बल मिलेगा।

सिमी के इन सदस्यों ने पूछताछ के दौरान बताया कि धीमी न्याय प्रक्रिया और और आजाद भारत के इतिहास की दो सबसे कलंकित घटनाओं बाबरी मस्जिद विध्वंस व गुजरात मामले में गठित समितियों के कार्य की प्रगति के अभाव ने उन्हें इन दोनों नेताओं की हत्या करने के लिए प्रेरित किया। हालांकि इससे सिमी नेताओं की योजना को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन मोदी को अंधा सर्मथन देकर आडवाणी अपना भला नहीं कर सकते। उस हालात में तो बिल्कुल ही नहीं जब वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। यही नहीं इसके बाद दिए एक साक्षात्कार में आडवाणी ने जो किया उसे उनकी पार्टी बिल्कुल सही नहीं मानती। उन्होंने इस साक्षात्कार में मोदी को अपनी उत्तराधिकारी भी नियुक्त कर दिया। यह संघ परिवार के सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत के बिल्कुल उलट है जिस आधार पर वह हमेशा कांग्रेस की आलोचना करता आया है साथ उनके इस कदम ने भाजपा की भावी पीढ़ी के कई नेताओं का भी मूड खराब कर दिया है।

अब आडवाणी जितना बोल रहे हैं वह उतना ही खुद को शर्मिंदगी की स्थिति में पहुंचा रहे हैं क्योंकि इससे वह अपने ही बनाए जाल में उलझते हुए नजर आ रहे हैं। अब जब उनकी पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर चुकी है ऐसे में उनका यह बयान कि वह राजनीति से संन्यास लेने वाले थे भी कुछ अजीब लगता है। एक ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसे आने वाले कठिन चुनाव में अपनी पार्टी सहित राजग का भी नेतृत्व करना है इस तरह का बयान देना कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ने वाला होगा। समय के तकाजे को भी अगर पहचानने की कोशिश करें तो आडवाणी द्वारा किताब के प्रचार के लिए इस तरह के साक्षात्कार देने से उनके लिए नित नई मुसीबतें खड़ी होंगी और इससे न तो उन्हें न उनकी पार्टी को और न ही राजग को मदद मिलेगी।

यह किताब इतिहासकारों और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए फायदेमंद हो सकती है हालांकि उन्हें भी इसमें हकीकत और फसानों में बारीक छटनी करनी होगी। लेकिन भाजपा नेताओं के मन में यह बात बैठती जा रही है कि इससे पार्टी का भला नहीं होना वाला है। एक कांग्रेस नेता का कहना है कि आत्मकथा के जरिए आडवाणी ने बिना सच्चाई के खुद को महिमामंडित करने और वाजपेयी को नीचा दिखाने का प्रयास किया है। उन्होंने कहा यहां तक कि महात्मा गांधी ने भी १९२२ के बाद अपनी आत्मकथा को आगे बढ़ाना बंद कर दिया था क्योंकि उन्हें यह आभास था कि रोजमर्रा की राजनीति में हर सच्चाई को बयान करना बेहद मुश्किल है। इसका मतलब यही है कि आडवाणी ने वह हिम्मत दिखाई जो महात्मा गांधी भी नहीं दिखा सके लेकिन आडवाणी की आत्मकथा पर आई प्रतिक्रियाओं और प्रतिध्वनी के आधार पर कहा जा सकता है कि गांधी ज्यादा विवेकपूर्ण थे।

2 comments:

सागर नाहर said...

सठिया गये है.. उन्हें अक्सर यह याद नहीं रहता कि उन्हें कहां क्या बोलना है! एक अधपगले राजनीतीज्ञ की तरह उनका व्यवहार रहा है पिछले कुछ वर्षों से।
अगर भाजपा अगले चुनावों में हारती है तो उसका एकमात्र कारण आडवाणी होंगे।

L.Goswami said...

jb inshan ko krne ke liye kuchh nhi milta wh ulti-shidhi hrkten krta hai.logon ka dhyan apni trf aakrshit krne ka trika hai sb.

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