Monday, April 14, 2008

आरक्षण के अध्याय का आखिरी शब्द स्वीकार करें

पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने उच्च शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस आलेख के जरिए लंबे समय से विवादास्पद रहे इस मुद्दे पर शीर्षस्थ अदालत के फैसले की पृष्ठभूमि में अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं गिरीश निकम। हालांकि उनका यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में लिखा लिखा हुआ है जिसका हिंदी अनुवाद उनकी अनुमित के साथ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

गिरीश निकम की कलम से

हर पुस्तक का एक आखिरी शब्द होता है, हर नाटक का एक आखिरी दृश्य होता है। मतलब जो शुरू हुआ वह कहीं न कहीं समाप्त भी होता है। इसलिए अब उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद केंद्र सरकार और इससे जुड़े उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर चल रह वाद-प्रतिवाद का दौर भी अब समाप्त हो जाएगा। यह अलग बात है कि आरक्षण मसले कानूनी दांवपेंच की बाते होती रहेंगी लेकिन शीर्षस्थ न्यायालय की मुहर लगने से इससे जुड़ी बहस खत्म हो जानी चाहिए। लंबे समय से आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में चल रहे तर्क और कुतर्क ने देश को हिलाकर रख दिया है जिसकी कंपन हिंदीभाषी क्षेत्रों में ज्यादा महसूस की गई। इसने सबसे ज्यादा विद्यार्थी समुदाय को प्रभावित किया है और अब उचित समय आ गया है सब शांत हो जाएं और कोर्ट के फैसले को स्वीकार करें।

पिछले हफ्ते जिस दिन पांच न्यायाधीशों के बेंच ने इस मसले पर अपना फैसला सुनाया उस दिन इस खबर को लेने वाले तमाम वेबसाइटों को आरक्षण का विरोध करने वाले ब्लागरों ने अपनी प्रतिक्रिया से पाट दिया। मार्च 2007 में संप्रग सरकार द्वारा प्रस्तावित आरक्षण विधेयक पर न्यायालय के दो सदस्यीय बेंच द्वारा स्टे लगाने के बाद इन लोगों ने जो धारणा अपने मन में पाल रखी थी वह गलत साबित हो गई। निश्चित तौर पर उन्होंने अपनी जीत की खुशी समय से पहले मना ली थी। तब टीवी कैमरों के सामने उन्होंने जिस तरह अपनी खुशी जाहिर की थी उससे लगता है कि उन्हें विश्वास हो चला था कि सुप्रीम कोर्ट आरक्षण को मंजूरी प्रदान नहीं करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इसलिए यह समझा जा सकता है कि अब वह इतनी तीखी प्रतिक्रिया क्यों जाहिर कर रहे हैं। इन प्रतिक्रियाओं में यह तथ्य देखाना रोचक था कि इनमें से बड़ा वर्ग कोर्ट के फैसले का स्वागत करने के लिए भाजपा को लताड़ रहा था क्योंकि वे इस पार्टी को अबतक अपना रक्षक समझते थे।

कोर्ट के अंतिम फैसले ने न सिर्फ आरक्षण को जायज ठहराया बल्कि इसने आरक्षण के लिए जाति को आधार बनाने की बात को भी सही माना। फैसले के इस पहलू के कारण भी इसके खिलाफ बड़ी तादाद में आवाज उठाई जा रही है। शीर्षस्थ अदालत ने इस दलील को भी मजबूती से खारिज कर दिया कि जातीय आधार पर आरक्षण देने से समाज बंटता है। जो लोग अग्रलिखित अवधारणा के आधार पर तर्क देते हैं वे अक्सर इस देश में हजारों वर्षों से अपनी गहरी जड़ें जमा चुकी जातीय व्यवस्था की अनदेखी करते हैं और इन्हीं में से कई ऐसे लोग है जो जातीय व्यवस्था के असली अनुपालक रहे हैं। यह कोई नहीं कह सकता है कि छोटी जातियों ने जाती व्यवस्था को बनाया है या अमल में लाने की कोशिश की है। जब तक जाति व्यवस्था अगड़ों के हित में रही तबतक उन्होंने इसका स्वागत किया और जब यह उन्हें पीड़ा देने लगी है तब वे इसकी नुख्ताचीनी करने में लग गए हैं।

जहां तक इस तर्क की बात है कि आरक्षण से मेरिट को नुकसान पहुंचता है और इससे अयोग्य व्यक्तियों को फायदा मिलता है तो यह याद दिलाता चलूं कि पिछले वर्ष वीरप्पा मोईली की अध्यक्षता में गठित समिति ने काफी रिसर्च और छान-बीन के बाद इसे आधार हीन करार दिया था।

अब फिर से सु्प्रीम कोर्ट के फैसले की ओर लौटते हैं। जिस आधार पर दो न्यायाधीशों के बेंच ने आरक्षण विधेयक पर रोक लगाई थी उसे ताजा फैसले में कोई जगह नहीं मिली। न्यायाधीश अरिजित पसायत और न्यायाधीश एल एस पंटा यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए कि मंडल कमीशन रिपोर्ट में ओबीसी आरक्षण के लिए पेश किए गए 1931 के जनगणना आंकड़े पर्याप्त होंगे। तब कई लोगों ने (जिसमें मैं भी शामिल हूं) यह तर्क रखा था कि जनगणना आंकड़ों के अपडेशन मात्र से जमीनी हकीकत नहीं बदल जाएगी। इस देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति से बना है और उनके लिए 27 फीसदी आरक्षण उनकी वास्तविक संख्या से काफी कम है। इस बार पांच न्यायधीशों की समिति ने इस मसले पर ज्यादा जोर नहीं दिया। जनजणना आंकड़ों के अपडेशन से तथ्यों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है और साथ ही आरक्षण का विरोध करने वाला तबका जातीय आधार पर जनगणना का भी विरोध करता है तो फिर किसी जाति की वास्तविक संख्या क्या है इस बात का पता कैसे चलेगा?

तो क्या सु्प्रीम कोर्ट के इस फैसले को उचित माना जाए। बिल्कुल माना जाए। हालांकि आरक्षण के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों के लिए यह कभी भी उचित फैसला नहीं हो सकता है लेकिन शीर्षस्थ अदालत इससे ज्यादा क्या कर सकता है। वह भला उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण से कैसे इनकार कर सकता है जबिक इसने नौकरियों के मामले में इसे स्वीकार किया है। यह जरूर याद रखा जाए कि 1993 में इंदर साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद (जिसने केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए आरक्षण का दरवाजा खोला था) नौकरियों में आरक्षण लागू करने के बाद इसे शिक्षण संस्थाओं में लागू करना महज उप परिणाम मात्र था जिसे आज न कल होना ही था। संप्रग सरकार द्वारा इसे लागू करने का जिम्मा उठाने से पहले कई सरकारों ने इस मसले पर टालमटोल का रुख अपनाया। इस बारे में भी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखा गया और प्रस्तुत किया गया कि कोर्ट द्वारा ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर को बाहर रखने का निर्देश देने से सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। अब यह भी कोई ऐसा मसला नहीं है जिस पर कोई हायतौबा मचाए क्योंकि इंदर साहनी मामले के फैसले में ही शीर्षस्थ न्यायालय ने क्रीमी लेयर पर स्पष्ट रूपरेखा तैयार कर दी थी। नौकरियों में आरक्षण देते वक्त भी क्रीमी लेयर को कोटा दायरे से बाहर रखा गया था। उच्च शिक्षा में आरक्षण के लिए विधेयक में क्रीमी लेयर को शामिल करने को लेकर मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के ऊपर संप्रग के कुछ घटक दलों का दबाव था। हालांकि सरकार को यह भान था कि कानूनी तौर पर ऐसा करना संभव नहीं हो पाएगा। अब सोनिया और डा. सिंह यह कहकर खुद को दोषमुक्त कर सकते हैं कि उन्होंने इसके लिए कोशिश की लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हो पाया।

अब क्या यह फैसला किसी एक पार्टी के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद होगा? निश्चित रूप से कांग्रेस और संप्रग के इसके सहयोगी घटक इस पर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने की कोशिश करेंगे। वाम दल भी ज्यादा पीछे नहीं रहने वाले हैं और उन्हें इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। वह इस मामले में वाकई ऐतिहासिक योगदान का दावा कर सकते हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है तो वह ऐसे मसले में खुद को न इधर की और न उधर की वाली स्थिति में पाती है। हालांकि उसने भी न्यायालय के फैसले का स्वागत करने में वक्त जाया नहीं किया।
अब यह फैसला ऐसे वक्त में आया है जब इस साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। सबसे पहले कर्नाटक में चुनाव होंगे और यह देखने वाली बात होगी कि वहां संप्रग को कितना लाभ मिलता है।

असल बात यह है कि जो शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण के खिलाफ थे उन्हें अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। जैसा कि मशहूर अधिवक्ता और आरक्षण के खिलाफ रहने वाले सोली सोराबजी ने कहा कि अब सबों के लिए उचित होगा कि फैसले को स्वीकार किया जाए और लंबे समय से विवादास्पद रहे इस मसले का पटाक्षेप किया जाए। सबों को खुश करना मुमकिन नहीं है लेकिन हर अध्याय का एक समापन होता है। यह हो सकता है कि पांच वर्षों बाद हम इस बात का अध्ययन करें कि आरक्षण अपने उद्देश्य में असफल रहा या इसने वाकई विश्वास से भरे पुरुषों और महिलाओं को समान अवसर प्रदान किया।

4 comments:

Manas Path said...

सही बात.

खुल के बोल said...

kya aap mujhey es ruling ki poori report padhney key liya koi link sujha saktey hai kya? Jankari key liye Dhanyavad?

Unknown said...

यदि हम यह कहें की कि जो शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण के खिलाफ थे उन्हें अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार कर लेना चाहिए। तब हमें यह भी कहना होगा की सरकार और आरक्षण के समर्थकों को भी इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में ऐसी कई बातें हैं जिन पर विचार करना जरूरी है, जैसे, एस सी / एस टी / ओबीसी के स्थान पर 'आर्थिक रूप से पिछढ़े व्यक्ति' कहा जाना चाहिए. क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर हो जाना चाहिए. कुछ समय पश्चात् आरक्षण नीति की समीक्षा कर के उसे समाप्त करने की और कदम उठाने चाहियें.

रवीन्द्र प्रभात said...

विल्कुल सही ....!

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