Tuesday, April 8, 2008

क्या भगवा ब्रिगेड को अलग-थलग कर पाएंगे मार्क्सवादी?

29 मार्च से 3 अप्रैल तक कोयंबटूर में सीपीआई (एम) का 19वां अधिवेशन संपन्न हुआ। पहली बार ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत की अनुपिस्थिति में हुए इस अधिवेशन में पार्टी की भविष्य की योजनाओं की रूप-रेखा तैयार की गई। इस आलेख में इन्हीं योजनाओं और इसके संभावित परिणामों का जायजा ले रहे हैं गिरीश निकम। हालांकि यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में है जिसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमित के साथ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

गिरीश निकम की कलम से

तो सीपीआई(एम) अपना एक और मैराथन अधिवेशन कर चुकी है। यह इकलौती ऐसी पार्टी है जो हर तीन साल में एक बार छह दिनों तक संगठनात्मक मुद्दों के साथ-साथ क्षेत्रिय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर एक जगह जमा होकर विचार-मंथन करती है। इसलिए कुछ मायनों कोई भी अन्य पार्टी इन मसलों को उतनी गंभीरता के साथ नहीं लेती है जितना कि मार्क्सवादी लेती हैं। तो क्या यह कहा जा सकता है कि यह दल अंदरूनी लोकतंत्र को कायम रखे हुए है। दूसरी पार्टयों के साथ तुलना करें तो यह बात बिल्कुल सही है। पार्टी की ज्यादातर बैठकें गुप्त होती है और इसमें निचले स्तर के सदस्य को भी अपनी बात सामने रखने की और बड़े से बड़े धुरंघरों की आलोचना करने की आजादी होती है। इन सब के बावजूद कई बुर्जुआ पार्टियों की पंरपराओं के उलट यहां आप अधिवेशन में हुई बातों को मीडिया में लीक होता हुआ नहीं पाएंगे।

चूकि पार्टी में जानकारी लीक करने को बहुत ही गंभीरता से लिया जाता है और ऐसा करने वाले को अक्सर अपनी पार्टी सदस्यता से हाथ भी धोना पड़ता है इसलिए किसी मार्क्सवादी नेता से जानकारी निकलवा पाना पत्रकारों के लिए हमेशा से टेढ़ी खीर रहा है।

उपरोक्त बातों के हिसाब से कोयंबतूर में हुआ सीपीआईएम का 19वां अधिवेशन भी अलग नहीं रहा। हालांकि कुछ अन्य तथ्यों के लिहाज से यह कुछ हद तक पहले से भिन्न जरूर रहा है। खराब स्वास्थ्य के कारण पहली बार पार्टी पोलित ब्यूरो के संस्थापक और वरिष्ठ नेता ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत अधिवेशन में हिस्सा नहीं ले सके। अपने जीवन के 90 बसंत देख चुके इन नेताओं की अनुपस्थिति में यह अधिवेशन सही मायनों में भावी पीढ़ी के नेताओं का अधिवेशन रहा। नेतृत्व की मशाल आगे की ओर बढ़ा दी गई है और यह प्रकाश करात और सीताराम येचुरी की अगुवाई में युवा पीढ़ी के नेताओं की जिम्मेदारी है कि वे आने वाले दिनों में नेतृत्व व रणनीतियों को दशा व दिशा दें।

बसु और सुरजीत ने पार्टी को बहुत ही मजबूत नींव प्रदान की है। विशेषकर वी पी सिंह, संयुक्त मोर्चा और संप्रग सरकारों को बाहर से समर्थन देकर उन्होंने पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति के नक्शे पर मजबूती से उभारा। यह उनकी दूरदर्शिता और राजनीतिक सामंजस्यता का ही नतीजा है कि आज पार्टी अधिवेशन को अभूतपूर्व मीडिया कवरेज मिल रहा है। सीपीएम ने 2004 लोकसभा चुवाओं के बाद तमाम विरोधाभासों के बावजूद जिस तरह कांग्रेस के साथ अपने नाजुक संबंधों का निर्वहन किया है उससे यह पार्टी हमेशा सुखिर्यों में रही। कोयंबतूर अधिवेशन ने जिस तरह मीडिया में उत्सुकता पैदा की है उससे खुद कई कामरेड आश्चर्यचकित हैं। यह सीपीआईएम के 44 सालों के इतिहास में संभवतः सबसे बृहद मीडिया कवरेज रहा है। निश्चत तौर पर कुछ कवरेज सकारात्मक और सही नहीं है। हकीकत यही है कि मीडिया का बड़ा हिस्सा आज भी इस पार्टी को, इसकी कार्यशैली को समझने की ही कोशिश कर रहा है और मीडिया के प्रति सीपीआईएम का जो रुख है उससे इसमें खास मदद नहीं मिलती है।

जहां तक इस अधिवेशन के निष्कर्ष का सवाल है तो यह न सिर्फ मीडिया बल्कि आम आदमी को भी भ्रम में डालने वाला है। हालांकि किसी अहम मुद्दे पर पार्टी को सोच में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है लेकिन भविष्य की योजनाओं के बारे में इसकी जो अभिव्यक्ति है उससे कई तरह की उलझनें पैदा होती हैं। यह उलझने तब तक रहेंगी जब तक पार्टी इसे साफ-साफ नहीं कहती।

कोयंबतूर अधिवेशन के दौरान पार्टी ने जिन चुनौतियों को अपने सामने रखा है उसमें सबसे बड़ी चुनौती है तीसरे विकल्प का निर्माण करना। मीडिया भी यह समझता हुआ प्रतीत होता है इस बार ऐसे तीसरे विकल्प की तैयारी की जा रही है महज चुनावी न हो और जिसका मकसद हर हाल में सत्ता हासिल करना भी न हो। लेकिन क्या इसके लिए मार्क्सवादियों के पास ऐसा समर्थन आधार और ऐसे सहयोगी हैं जिसके बल पर वे तीसरे विक्लप के बारे में सोच रहे हैं। मार्क्सवादियों के हिसाब से यह विकल्प ऐसा हो जो विचारधारा के आधार पर दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक भारतीय जनता पार्टी और नव उदारवाद की ओर बढ़ती मध्यमार्गी कांग्रेस पार्टी से अलग हो। अब मार्क्सवादी यह विश्वास कर रहे हैं या कम से कम उम्मीद कर रहे हैं कि भारतीय राजनीति के इन दोनों घ्रुवों के अलावा तीसरा विक्लप खड़ा किया जा सकता है। लेकिन ऐसे विकल्प के लिए उनका जमीनी आधार क्या होगा? वही तेलगु देशम पार्टी, वही समाजवादी पार्टी, वही जनता दल से टूटकर अलग हुई पार्टियां, वही डीएमके आदि-आदि. यह वास्तव में बहुत बड़ी चुनौती है। मार्क्सवादियों को इन पार्टियों को जो सत्ता में होने पर भाजपा या कांग्रेस जैसी नीतियों पर चलते हैं तीसरे विकल्प के लिए तैयार कर पाना बहुत मुश्किल है।

हालांकि सीपीआई (एम) की दूसरी चुनौती जो तीसरे विकल्प के गठन से ही जुड़ी है सबसे रोचक है। यह चुनौती है भाजपा को अलग-थलग करने की। कुछ उसी तरह जिस तरह 1996 में 13 दिनों के लिए बनी वाजपेयी सरकार को अलग-थलग किया गया था। संप्रग सरकार के गठन के लिए कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के लिए जिस तथ्य ने मार्क्सवादियों को प्रेरित किया था वह बिना शक सांप्रदायिक भाजपा को सत्ता से दूर रखना था। अब मार्क्सवादी इस बात के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं कि भाजपा अपने साझीदारों की संख्यां न बढ़ा सके बल्कि जो भी साझीदार उनके साथ हैं उन्हें भी उनसे अलग किया जाए। अब ऐसे देश में जहां मौकापरस्ती सभी राजनीतिक दलों का मूल मंत्र है और जहां विचारधारा से जुड़ी प्रतिबद्धता चोला बदलने में बाधक सिद्ध होती हो वहां मार्क्सवादियों को छोटे दलों को ऐसी पार्टी को अलग-थलग करने के लिए तैयार करने खासी मशक्कत करनी पड़ेगी जो उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी का लालच देकर अपनी ओर रिझाती है। भाजपा अब फुसलाने की कला में माहिर हो चुकी है। कुछ समय पहले उसने जिस तरह कर्नाटक में जनता दल सेक्यूलर को फुसलाया था उससे यह बात अपने आप प्रमाणित हो जाती है। भाजपा अब भी इन हथकंडों को अपनाने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी। मार्क्सवादियों के लिए अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक औऱ बड़ी बाधा से पार पाना होगा। भारतीय में कई ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां है जो स्वभाविक रूप से कांग्रेस से अलगाव का भाव रखती है क्योंकि इन पार्टियों के लिए कांग्रेस ही सबसे बड़ी साजनीतिक प्रतिद्वंदी है।

इससे भारतीय मार्क्सवादी एक साथ दो नावों की सवारी करते हुए प्रतीत हो रहे । यह एक ऐसी स्थिति है जो सीपीआई (एम) की राजनीतिक क्षमताओं की असली परीक्षा लेगी। इसमें खतरा भी है। क्योंकि भारतीय मार्क्सवादी अभी कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ सकते हैं और ऐसे में क्या वे इन छोटे-छोटे राजनीतिक दलों को भाजपा से दूर रख पाएंगे। हो सकता है ऐसा न हो पाए। ध्यान देने वाली बात है कि करात ने यह भी कहा है कि कांग्रेस के साथ संबंधों को वह इस लोकसभा से आगे भी ले जाना चाहते हैं। अपने इस रुख के कारण वे कांग्रेस से प्रतिद्वंदिता रखने वाले छोटे दलों को कैसे भाजपा के करीब जाने से रोक पाएंगे।
इसलिए मार्क्सवादियों को आम आदमी को अपनी योजनाओं को समझा पाने और उन्हें विश्वास में लेने में खासी मेहनत करनी पड़ेगी क्योंकि आम आदमी उनके इस मारो और भागो वाले रवैये से भ्रमित हो सकते हैं। अगर भ्रम की यह स्थिति जल्द दूर नहीं होती है जिसे दूर करना आसान भी नहीं है तो मार्क्सवादी अनजाने में कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के साथ ही उन्हीं सांप्रदायिक ताकतों को मजबूती प्रदान करेंगे जिन्हें वह अलग-थलग करना चाहते हैं।

90 के दशक में और फिर 2004 में सुरजीत और ज्योति बसु ने केंद्र में कांग्रेस के साथ तालमेल कर राज्य स्तरीय मतभेदों से ऊपर उठते हुए इस देश में राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन राजनीति की मजबूत नींव रखी। अब उनके उत्तराधिकारियों ने अपने लिए बेहद कठिन चुनौतियों का चुनाव किया तो ऐसे में यह देखने वाली बात होगी कि वह इसमें सफल होते हैं या नहीं लेकिन एक बात तय है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और मार्क्सवादियों के बीच या यूं कहें कि दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के बीच का टकराव अब पहले से ज्यादा राजनीतिक और हिंसक शक्ल अख्तियार करेगा।

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

लेख आप ने बहुत मेहेनत से लिखा मे , ओर अच्छा भी लगा हे, लेकिन भाई यहा तो सब चोर हे किसे चुने किसे ना चुने,खुन तो सब ने चुसना हे गरीब का..

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