Sunday, March 30, 2008

तिब्बत मसले पर अमेरिकी सुर आलाप रही है भाजपा

तिब्बत मसला आज की तारीख में पूरे विश्व में ज्वलनशील मुद्दा बन चुका है। पश्चिमी देश इसे चीन द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन का मामला बता रहे हैं तो चीन इसे अपना घरेलू मामला ठहरा रहा है। भारत में इस मसले पर राय बंटी हुई है। राजनीतिक हलकों में भारतीय जनता पार्टी यह चाहती है कि सरकार चीन की निंदा करे तो कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार किसी को नाराज न करने वाला रुख अपना रही है। वहीं मार्क्सवादी खेमे का मानना है कि पश्चिमी जगत इस मसले को इसलिए हवा दे रहा है ताकि भारत-चीन संबंध खराब हो। इसी खेमे की एक मजबूत आवाज रहे हैं नीलोत्पल बसु। इस आलेख के जरिए वह तिब्बत मसले पर अपनी बात सामने रख रहे हैं। उनकी राय को इस ब्लॉग पर लगाने यह अर्थ बिल्कुल न निकाला जाए कि मैं उनसे सहमत हूं। लेकिन अगर कोई मसला है तो उस पर सभी पक्षों की दलील सुन कर ही हमें किसी नतीजे पर पहुंचना चाहिए और इसी प्रयास में मैं बसु के अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूं। सौजन्य http://indiainteracts.com/
इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

नीलोत्पल बसु की कलम से

तिब्बत में पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है उस पर पश्चिमी दुनिया गला फाड़ कर चीख रही है और अनुमान के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी उनके सुर में सुर मिला रही है। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत भाजपा के तमाम वरिष्ठ नेता तिब्बत में हो रही घटनाओं के लिए चीन की निंदा करने में लगे हैं। चीन के खिलाफ नफरत और क्रोध से परिपूर्ण अपनी आवाज उठाते हुए ये नेता इसे चीन की सेना का बर्बर हिंसक कार्रवाही बता रही है। ये नेता यहीं नहीं रुके। इन्होंने भारत सरकार की भी यह कहते हुए आलोचना की है कि सरकार खुले तौर पर चीन को खुश करने की कोशिश कर रही है और उसने भारत के राष्ट्रीय सम्मान और स्वतंत्र विदेश नीति की परवाह नहीं की।
अजीब बात यह है कि इससे विदेश नीति पर भाजपा के विचार पश्चिमी शक्तियों के अधीन प्रतीत होती है और विडंबना यह है कि वे इसे स्वतंत्र विदेश नीति कहते हैं। भाजपा का कहना है कि तिब्बत के साथ भारत के प्राचीन संबंधों के आधार पर सरकार को चीन की आलोचना करनी चाहिए लेकिन अपने पश्चिमी आकाओं को खुश करने के प्रयास में वह तिब्बत मसले पर भारत की आधिकारिक स्थिति को भूल रहे हैं जिसके अनुसार भारत यह मानता है कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है और भारत चीन के अंदरूनी मसले में हस्तक्षेप नहीं करेगा। भारत का यह स्टैंड तब भी कायम था जब साउथ ब्लॉक में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।
इस मुद्दे पर पर भारपाई रुख अमेरिकी रुख का प्रतिविंब है। अमेरिकी सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव की अध्यक्ष नेन्सी पेलोसी ने अपने हालिया धर्मशाला दौरे पर इसे साफ-साफ जाहिर भी किया। धर्म गुरु दलाई लामा के प्रति अमेरिका के सहयोगात्मक रवैये को जाहिर करने के लिए किए गए इस दौर पर उन्होंने कहा कि मेरा मानना है कि अगर हमने तिब्बत में चीन की कार्रवाही के खलाफ आवाज नहीं उठाई तो हम विश्व में कहीं भी हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में बोलने का हक खो बैठेंगे। पेलोसी ने इस मुद्दे पर पश्चिमी देशों द्वारा चीन की आलोचना को भी जायज ठहराया। लेकिन यही पेलोसी और उनके पश्चिमी मित्र नैतिकता के ये वचन इराक, अबु गरीब जेल, ग्वान्तानामो बे के घोर अमानवीय यातना गृहों और गाजा पट्टी के बारे में नहीं बोर सकते हैं।
हममे से ऐसे लोग जो पश्चिमी मीडिया की गलत सूचनाओं के आदि हैं वह 14 मार्च को ल्हासा में हुए दंगों का सही चित्र से वाकिफ नहीं होंगे। इन दंगों में 22 लोग मारे गए और यह कहीं से भी तिब्बतियों के लोकतांतत्रिक आंदोलनों जैसा नहीं था जो चीन के हान कम्युनिस्ट शासन से आजादी चाहते हैं। अब इस घटना के वीडियो फुटेज उपलब्ध हैं और इसे देखने से साफ जाहिर है कि यह हिंसा कुछ उग्रवादी प्रवृति के भक्षुओं द्वारा निर्दोष तिब्बतियों के खिलाफ जानबूझ कर फैलाई गई थी। इसी प्रकार की हिंसक घटनाएं चीन के अन्य प्रांतों गांसू और सिचुआन में भी हुई।
भारतीय मीडिया के पास भी इस बात के पर्याप्त साक्ष्य है कि तिब्बतियों ने दिल्ली में भूख हड़ताल और धरना प्रदर्शन के साथ जिस तरह चीनी दूतावास पर इसलिए हमला किया ताकि उन्हें पश्चिमी मीडिया में व्यापक कवरेज मिल सके। यही नहीं दलाई लामा के प्रेस कांफ्रेस की टाइमिंग भी पश्चिमी देशों के प्राइम टाइम को ध्यान में रख कर तय की गई।
आखिर में यह जानना जरूरी है कि उनकी मांग क्या है? अब यह साबित हो चुका है कि तिब्बत में हुई हिंसा को किसी भी सूरत में न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता तब पश्चिमी दुनिया यह मांग करने लगी है कि चीन की सरकार को दलाई लामा के साथ वार्ता करनी चाहिए। उनके पास इस मांग को रखने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा क्योंकि कोई भी सरकार इस तथ्य को स्वीकार करने से इनकार नहीं कर सकती कि स्वायत्तता प्राप्त तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है। हालिया कुछ वर्षों में तिब्बत के विकास के लिए अभूतपूर्व काम करने के अलावा चीन ने इस मसले के राजनीतिक समाधान के लिए छह दौर की वार्ताएं भी की हैं। दलाई लामा भी इस तथ्य को स्वीकार करने पर जोर देते हैं कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है। वह यह भी कहते हैं कि तिब्बत को चीन से अलग करने की मांग गैरवाजिब है और इस मसले का कोई स्वीकार्य हल निकाला जाए।
ऐसे हालात में इस मुद्दे पर पश्चिमी ताकतों और भारत में उनके भाजपाई मित्रों द्वारा रोना-धोना मचाना साफ तौर पर दिखावा है। इन देशों द्वारा चीन को जबरन शैतान करार देना और ओलंपिक खेल के आयोजन में बाधा पहुंचाने की कोशिश करना वर्तमान अंतरराष्ट्रीय माहौल को खराब करेगा। सेनर काउंसिल को इस प्रकार की अप्रिय प्रगति को रोकने की कोशिश करनी चाहिए।
आखिर में यह जिक्र करना जरूरी है कि चीन कि सरकार ने सीमा से बाहर जाते हुए तिब्बत मुद्दे पर भारतीय रुख की सराहना करते हुए कहा है कि भारत चीन के अंदरूनी मसले में हस्तक्षेप न करने के अपने रुख पर कायम है। हमें पश्चिमी देशों और उनके मीडिया के झूठे नैतिकतावाद से सचेत रहना चाहिए और क्योंकि कश्मीर मसले पर हम भी उनके इस रुख का शिकार हुए हैं। क्या इस बात को आडवाणी जी और राजनाथ सिंह जी सुन रहे हैं?

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

नीलोत्पल बसु का यह आलेख बहुत संयत है और सहमति के लायक है। लेकिन क्या चीन को इन परिस्थितियों में वास्तविक घटनाक्रम को विश्व के सामने रखने के लिए सूचनाओं के लिए ख्यात पत्रकारों को बुला कर रिपोर्टिंग नहीं करानी चाहिए?

संजय बेंगाणी said...

यह चीन का अन्दरूनि मामला है, फिर चीन चाहे जो करे?

भारत के पास मौका है, चीन को कसने का. वामपंथी चीन परस्त देश हित की बात करे...भगवान उन्हे बुद्धी दे.

ब्लोग्वानी

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