Sunday, March 23, 2008

सिर्फ व्यावसायिक नहीं है क्रिकेट की सफलता

कुछ दिनों पहले एनडीटीवी पर भारत में क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता पर हुई एक परिचर्चा में मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर व विश्लेषक हर्षा भोगले ने कहा कि हमारे देश में इस खेल की सफलता व्यावसायिक है न कि खेल से जुड़ी। उन्होंने कहा कि हमने क्रिकेट के बाजार पर अधिपत्य कायम किया है न कि क्रिकेट फील्ड पर।
अंतरराष्ट्रीय परिदृष्य में भोगले का वक्तव्य तो बिल्कुल सही है क्योंकि हमारी टीम वेस्टइंडीज व आस्ट्रेलिया की तरह लगातार दस वर्षों तक अजेय नहीं रही और न ही भारत से बाहर हमारी टीम किसी टूर्नामेंट या सीरीज में बतौर फेविरट उतरी। लेकन देश में किसी अन्य मैदानी खेलों की तुलना में क्रिकेट टीम द्वारा दिए गए नतीजों को आंके तो इस खेल के प्रति हमारा उत्साह और जुनून कहीं से गैर वाजिव नहीं है। पिछले 20 सालों में अलग-अलग कप्तानों के नेतृत्व में खेलने वाली टीम इंडिया ने वनडे में करीब 55 फीसदी मैच जीते हैं तो टेस्ट मैचों में हमारा प्रदर्शन दिनों-दिन सुधर रहा है। ट्वंटी 20 क्रिकेट में हम पहले ही प्रयास में विश्व विजेता बन गए।
खेलों में सफलता से साथ खुद को जोड़ने की इच्छा रखने वाले भारतवासी अगर क्रिकेट की ओर ताकते हैं तो इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए। भले ही यहां हम विश्व विजेता नहीं है लेकिन फुटबाल और हाकी की तरह इस खेल में मैच शुरू होने से पहले दर्शकों को यह नहीं लगता है कि कुछ भी हो हमारी टीम हारेगी ही। यह सच है कि हमारी टीम केन्या या बांग्लादेश से भी हार जाती है लेकिन यही टीम आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका की टीमों को धूल चटाने का माद्दा भी रखती है।
बड़े मैदान से हटकर अपेक्षाकृत छोटे मैदान यानी कोर्ट गेमों की तरफ भी देखें तो सब जगह हमारे खिलाड़ी दोयम दर्जे के ही नजर आते हैं। टेनिस में पिछले कई वर्षों में लिएंडर पेस, महेश भूपित और सानिया मिर्जा के अलावा कोई प्रभावी नाम सामने नहीं आया। बास्केटबाल में हमारी टीम में कहां खड़ी है यह बताने की जरूरत नहीं वालीबाल में हम सुधार कर रहे हैं लेकिन अभी भी आर्जेंटीना, ब्राजील और आस्ट्रेलिया से काफी पीछे हैं। रग्बी में जो पहला नाम हमारे सामने आता है वह है फिल्म अभिनेता राहुल बोस। रग्बी जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी लोकप्रिय और कमाऊ खेल है अगर भारत में फल-फूल रहा होता तो राहुल आज अभिनेता न होते। बेसबाल की बात न ही करें तो बेहतर होगा।
बैडमिंटन में पुलेला गोपीचंद के बाद जो नाम उभरे हैं उनमें चेतन आनंद, अनूप श्रीधर, व सायना नेहवाल शामिल हैं लेकिन एशियाई खेलों, ओलंपिक और ऑल इंग्लैंड टूर्नामेंट में मजबूत दावेदारी पेश करने से पहले इन्हें खुद में फाफी सुधार करना पड़ेगा। यही हाल टेबल टेनिस खिलाड़ी अचिंता शरत कमल का है।
एथलेटिक्स में हमारे पास गर्व करने के लिए पीटी ऊषा व मिल्खा जैसे नाम हैं जो अपने कैरियर के चरम पर ओलंपिक में चौथा स्थान हासिल कर पाए थे। अंजू बाबी जार्ज एक बार विश्व चैंपियनिशप में कांस्य पदक जीतने व एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के बाद अपनी निरंतरता खो बैठीं। भरोत्तोलन में कुछ वर्ष पहले काफी उम्मीदें जगीं थी लेकिन यह खेल डोपिंग के मामलों में पिसता नजर आ रहा है। मुक्केबाजी इन दिनों वापस पटरी पर लौटी है लेकिन इन्हें भी बड़े टूर्नामेंटों में नतीजे देने होंगे।
आखिर में बात निशानेबाजों की। कुछ महीनों पहले अभिनव बिंद्रा ने बयान दिया था निशानेबाज भारत को सबसे ज्यादा गौरव दिलाते हैं लेकिन उन्हें उपयुक्त पहचान नहीं मिलती। लेकिन बिंद्रा साहब हम उन पदकों को गिनने के लिए तैयार नहीं जहां दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों ने भाग न लिया हो। ओलंपिक व एशियाई खेलों में जौहर दिखाओ तब बात बनेगी। राजवर्धन राठौर ने एथेंस में चांदी का तमगा जीता तो उन्हें इसके लिए पर्याप्त पहचान और शोहरत मिली। लेकिन निशानेबाजी को बतौर खेल शोहरत दिलानी है तो एक खिलाड़ी से काम नहीं चलेगा। विलियडर्स में गीत सेठी व पंकज आडवाणी व शतरंज में विश्वनाथन आनंद जरूर अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं तो इनकी लोकप्रियता भी अच्छी खासी है लेकिन यह कभी उस स्तर तक नहीं पहुंच सकती जितना एक मैदानी खेलों के खिलाड़ियों को मिलती है। यह बात सिर्फ भारत में नहीं पूरे विश्व में लागू नहीं होती।
अब क्रिकेट को कोई अंधी नगरी में काना राजा बताए या कुछ और लेकिन सच्चाई यही है कि परिणाम के लिहाज से यही खेल भारत का नंबर एक खेल है पैसा उसी के पीछे भागेगा जो सबसे आगे हो। अगर क्रिकेट व्यावसायिक रूप से सफल है तो इसके पीछे उसकी कामयाबी छुपी हुई है। किसी अन्य खेल को आगे बढना है तो उसे नतीजों के मामले में क्रिकेट को पीछे छोड़ना होगा।

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