Friday, March 21, 2008

ओलंपिक खेलः अंतरराष्ट्रीय वर्चस्व की रस्साकसी


ओलंपिक का आयोजन सिर्फ कुछ खेलों और खिलाड़ियों का मेला भर नहीं। इसके मार्फत जहां आयोजक देश दुनियां को अपनी तरक्की, क्षमता और कौशल से अवगत कराने की कोशिश करता है तो वहीं भाग लेने वाले अन्य देश भी यह जतलाने का भरसक प्रयास करते हैं वे किसी से कम नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ओलंपिक में एक ऐसा युद्ध क्षेत्र तैयार होता है जहां बिना गोला बारूद के भीषण लड़ाई लड़ी जाती है।
आधुनिक ओलंपिक की शुरुआत 1896 में ग्रीस की राजधानी एथेंस में हुई। तब से एक-आध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो यह स्पष्ट है कि अंक तालिका के शुरुआती कुछ स्थानों पर वही देश काबिज होते आए हैं जो उस समय दुनिया की बड़ी ताकते रहीं हैं। इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, सोवियत संघ आदि शामिल है। अब तक जितने ओलंपिक खेलों का आयोजन हुआ है उसमें सबसे अधिक 15 दफा अमेरिका ने शीर्ष स्थान पर कब्जा किया।
यह बात विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है कि आधुनिक विश्व के पटल पर खास कर दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने अपना दबदबा बनाए रखा है। उसके इस वर्चस्व को सबसे तगड़ी चुनौती सोवियत संघ से मिली। हथियार, विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक-दूसरे को कड़ी चुनौती देने वाले ये मजबूत राष्ट्र खेलों में भी एक-दूसरे से एक इंच भी पिछड़ना नहीं चाहते थे। यह ओलंपिक ही था जो शीत युद्ध के दौरान इन दोनों को आपस में आमने-सामने की जोर-आजमाइश का मौका प्रदान करता था। सोवियत संघ ने अपनी इन कोशिशों में खासी कामयाबी भी हासिल की और सात बार अमेरिकी को पदक तालिका से शीर्ष स्थान से बेदखल किया। लेकिन 1992 में उसके विधटन के बाद अमेरिका ने अपना रुतबा फिर से हासिल कर लिया।
अब अमेरिका को दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश चीन से तगड़ी चुनौती मिल रही है। हथियारों व तकनीक के मामले में अमेरिकी का तेजी से पीछा कर रहे इस देश के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि वह 2030 तक अर्थव्यवस्था के मामले में अकल सैम को न्यूमरो यूनो की पदवी से हटा देगा। बहरहाल खेल की दुनिया को अमेरिका से आगे निकलने के लिए यह ड्रैगन कंट्री 2030 तक इंतजार नहीं करना चाहता और उसकी पूरी कोशिश है कि इसी वर्ष उसकी अपनी जमीन पर होने वाले ओलंपिक खेलों में वह सबसे ज्यादा सोने का तमगा बटोरे।
एथेंस में हुए पिछले ओलंपिक खेलों में भी वह अमेरिका के काफी करीब पहुंच गया था और तब उसने अमेरिका के 35 के मुकाबले 32 स्वर्ण पदक जीते थे। इसमें टेनिस और 110 मीटर की बाधा दौड़ में स्वर्ण जीतकर चीन ने कहीं बड़ा और महत्वपूर्ण संकेत दिया। ये दोनों खेल ऐसे हैं जिसमें एशियाई देशों की कभी धाक नहीं रही। इनमें अब तक या तो अमेरिकी ने बाजी मारी थी या किसी अन्य पश्चिमी देश ने। इन दोनों स्परर्धाओं में स्वर्ण पर कब्जा जमाकर चीन अमेरिकी इस बात कुली तस्दीक कर दी कि वह हर क्षेत्र में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने का माद्दा रखने लगा है चाहे बात खेलों की हो या कोई और।
हालांकि 2004 से 2008 तक काफी कुछ बदल चुका है। पिछले ओलंपिक खेलों की तैराकी स्पर्धा में अमेरिका से कई तमगे छीनने वाले आस्ट्रेलिया और रूस इस स्पर्धा में अब उतने मजबूत नहीं रहे तो वहीं टेबल टेनिस व बैडमिंटन में कई देश चीन की गुणवत्ता के काफी करीब आ गए हैं।

खैर खेलों के मार्फत देशों की तरक्की मांपने वालों के लिए अगस्त 2008 बेहद अहम है और वे इसका बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। बीजिंग ओलंपिक की अंक तालिका में आखिरी पदक का हिसाब हो जाने के बाद यह तय हो सकेगा कि अंतरराष्ट्रीय जगत का शक्ति संतुलन किस ओर झुक रहा है।

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