Tuesday, March 25, 2008

तिब्बत मसले पर क्यों खामोश हैं भारतीय मार्क्सवादी

तिब्बत मसला कई दशकों से भारत-चीन संबंधों का केंद्र बिंदु रहा है.पिछले कुछ दिनों में चीन की यातनाओं से परेशान रहने वाले तिब्बतियों ने विश्व भर में व्यापक और अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन किया. इसने भारत समेत पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है. लेकिन हमेशा मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर मुखर आवाज़ निकालने वाले भारतीय मार्क्सवादी इस मुद्दे पर चुप हैं. इसी पहलू को केंद्र में रखते हुए गिरीश निकम ने अपनी राय व्यक्त की है. हालांकि उनका यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में लिखा हुआ है जिसका हिन्दी अनुवाद उनकी अनुमति के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ.
गिरीश निकम की कलम से

चीन के ख़िलाफ़ तिब्बतियों द्वारा पूरी दुनिया में किए जा रहे हालिया विरोध प्रदर्शन और चीन द्वारा इसे कुचलने की क्रूर कोशिशों ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है. तिब्बतियों का यह विरोध प्रदर्शन पिछले कई दशकों में सबसे बड़ा है और जिस तरह इसने अंतर्राष्ट्रीय शक्ल अख्तियार किया है उससे साफ ज़ाहिर है कि यह सुनियोजित भी है. चीन कि सरकार इसमे दलाई लामा और उनके समर्थकों का हाथ बता रही है और उसका कहना है कि प्रदर्शनकारी अगस्त में बीजिंग में होने वाले ओलंपिक खेलों में व्यवधान डालना चाहते हैं. हालांकि दलाई लामा ने साफ किया कि वे ओलंपिक खेलों के आयोजन के ख़िलाफ़ नही हैं.
जहाँ तक इस मसले पर भारतीय रुख का सवाल है तो तिब्बत के साथ भारत के सदियों से प्रगाढ़ संबंध रहे हैं. यहाँ तक कि महाभारत में भी इन दोनों क्षेत्रों के बीच मधुर संबंधों का जिक्र किया गया है. वहीं चीन के साथ तिब्बत का संबंध ऐतिहासिक रूप से रक्त रंजित रहा है. इस बात का उल्लेख छठी और सातवीं शताब्दी के इतिहास में भी मिलता है. आधुनिक समय में भारत तिब्बतियों के लिए शरणस्थली सरीखा रहा है. चीन द्वारा सताए जाने पर उन्होंने हमेशा भारत का रुख किया है.
मौजूदा दलाई लामा के बारे में तो सब जानते हैं कि उन्होंने चीन द्वारा प्रताडित किए जाने के बाद सन १९५९ में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में शरण ली और वहीं से निर्वासित जीवन जीते हुए तिब्बत का कार्य भार संभाला. लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम है कि वह भारत में शरण लेने वाले पहले दलाई लामा नहीं हैं. उनके पूर्ववर्ती १३वें दलाई लामा थूबतेन ग्यास्तो ने भी १९०९ से १९१२ के बीच चीन द्वारा परेशान किए जाने के कारण भारत में शरण ली थी.
चीन द्वारा कड़े विरोध के बावजूद जब १९५९ में तत्कालिन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मौजूदा दलाई लामा को भारत में रहने कि इजाज़त दी तब से तिब्बत मसला दोनों देशों के बीच कटुता का कारण रहा है. यह समझना ज़रूरी है कि भारत और चीन के बीच ख़राब संबंधों की वज़ह तिब्बत क्यों है. तिब्बत का दक्षिणी इलाका जो अरुणाचल प्रदेश का तवांग क्षेत्र कहलाता है ब्रिटिशों द्वारा मैकमोहन रेखा खींच कर भारत भारत को सुपुर्द कर दिया गया थाइसे जानना बड़ा रोचक होगा कि यह सब कैसे हुआ. १९१४ में ब्रिटेन, तिब्बत और चीन ने आपस में तिब्बत और चीन कि स्थिति पर एक बैठक की जिसे शिमला वार्ता के नाम से जाना जाता है. हालांकि यह वार्ता उस वक्त टूट गई जब ब्रिटेन ने तिब्बत को बाहरी और भीतरी दो भागों में बांटने पर जोर दिया. ऐसे में बिना चीन की सहमति के ब्रिटेन ने तिब्बत के साथ एक समझौता कर लिया. इसके तहत करीब ९००० वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाला दक्षिणी तिब्बती क्षेत्र तवांग भारत के हिस्से में दे दिया गया और बँटवारे के लिए ने रेखा खींची गई जिसे मैकमोहन रेखा का नाम दिया गया. तिब्बत ने इसे स्वीकार कर लिया और यहीं से यह मुद्दा भारत और चीन के बीच सबसे बड़े विवाद का कारण बन गया. चीन आज भी तवांग इस आधार पर अपना हिस्सा मानता है कि यह उस वक्त स्वायत्त तिब्बत का हिस्सा था और इसे बिना उसकी रजामंदी के भारत को सौंप दिया गया.
हालिया उठे तिब्बत मसले पर भारत सहित पूरी दुनिया से आवाज़ उठ रही है लेकिन भारतीय मार्क्सवादी नेता इसपर साफ साफ कुछ कहने से बच रहे हैं. सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने हालांकि अपना मुंह खोला और तिब्बत की तुलना कश्मीर से कर दी.
सीपीएम जैसी पार्टी के द्वारा जो दुनिया में कहीं भी होने वाले मानवाधिकार उल्लंघन पर भारी आपत्ति करती है तिब्बत जैसे ज्वलनशील मुद्दे पर चुप्पी साधना अचरज की बात है. उनकी यह चुप्पी उन्हें आलोचना के घेरे में ला रही है. यह समझना आसन है कि चीन के कम्युनिस्ट सरकार के साथ लगाव रखने के कारण भारतीय मार्क्सवादी इस मुद्दे पर कुछ बोलने से बच रहे हैं और अगर बोल भी रहे हैं तो यह ध्यान में रखते हुए कि इससे चीन की भावनाएं आहात न हो. भारतीय मार्क्सवादी तिब्बतियों के संपूर्ण विरोध को चीन के चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे हैं. उनका यह रुख १९५९ में समझने लायक था क्योंकि तब सभी ने माना था कि दलाई लामा को भारत में रखवाना अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए का एक सफल ऑपरेशन था. तब से भारतीय मार्क्सवादी यही मानते रहे हैं कि अमेरिका तिब्बत मुद्दे को जानबूझ कर हवा दे रहा है ताकि भारत-चीन संबंधों को ख़राब किया जा सके.
यह अलग बात है कि सीआइए ने १९७२ से इस मुद्दे पर से अपनी दिलचस्पी घटा ली क्योंकि तब अमेरिका के तत्कालिन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन चीन के संबंधों को बेहतर करने की ऐतिहासिक शुरुआत की थी. सीआइए कि भूमिका कम होने के बावजूद अमेरिकी सरकार ने तिब्बत को लगातार समर्थन देना जारी रखा है और यही कारण है कि भारतीय मार्क्सवादी तिब्बत मसले पर अपनी सोच नही बदल पा रहे हैं.
लेकिन अब जब चीन द्वारा तिब्बत में लगातार मानवाधिकार उल्लंघन किया जा रहा है और साथ जिस तरह वह तिब्बतियों कि संस्कृति और धर्म को ख़त्म करने कि कोशिश कर रहे हैं भारतीय मार्क्सवादियों कि चुप्पी उचित नहीं जान पड़ती. इससे वह न सिर्फ़ भारतीयों कि नज़र में संदिग्ध बनेंगे साथ ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी उनकी किरकिरी होगी.
वैसे भी येचुरी द्वारा इस मुद्दे कि तुलना कश्मीर के साथ करना उचित नही है. कश्मीर विवाद सिर्फ़ ६० साल पुराना है वहीं तिब्बत मसला इससे कहीं पहले का और अलग है. कश्मीरी जहाँ भारत के साथ रहने, पाकिस्तान के साथ जाने या स्वतंत्र होने पर विभाजित हैं वहीं तिब्बतियों के लिए ऐसा कोई मसला नही है. यह लगभग तय हो चुका है कि तिब्बत चीन का अंग है. यहाँ तक कि दलाई लामा ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है. उनकी मांग सिर्फ़ इतनी है कि उन्हें ज्यादा स्वायत्तता दी जाए ताकि तिब्बती अपनी सांस्कृतिक विरासत और धर्म को बचा कर रख सके. यह अलग बात है कि तिब्बतियों कि ने पीढ़ी के कुछ लोग दलाई लामा कि बात से विमुख हो रहे हैं और वे पूरी स्वतंत्रता चाहते हैं. इसका प्रमाण पिछले हफ्ते दिल्ली में चीन के दूतावास पर तिब्बतियों के विरोध प्रदर्शन के दौरान भी देखने को मिला था.
ऐसी स्थिति में इस मसले पर भारतीयों मार्क्सवादियों का सतुर्मुर्गी रवैया हैरान करने वाला है. हमारे एक अन्य पड़ोसी देश नेपाल में जब लोकतंत्र के लिए लड़ाई लड़ी जा रही थी तब भारतीय मार्क्सवादियों ने वहाँ एक सकारात्मक भूमिका निभाई. इससे हिंसा पर उतारू नेपाली माओवादी भी लोकतंत्र कि ओर मुखातिब हुए और इसे स्वीकार करने पर रजामंद भी हुए.
इसलिए यह उपायुक्त नही होगा कि भारतीय मार्क्सवादी तिब्बत मसले को चीन कि आंखों से देखे. उन्हें एक स्वतंत्र रुख अपनाना चाहिए और भारत, तिब्बत और चीन के बीच सेतु का काम करना चाहिए. उनका यह कदम उनके कद को ऊंचा करेगा साथ ही उनके आलोचकों को भी यह ज़वाब मिलेगा कि वे चीन का पिछलग्गू होने कि बजाय राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि मानते हैं. उनके लिए यह एक सुनहरा मौका है कि वे अपने प्रति जनता के नजरिये मी बदलाव लायें और अपना जनाधार बढ़ा सकें. तिब्बत मसले पर चुप्पी भारतीय मार्क्सवादियों की छवि को धूमिल करेगी और साथ ही भविष्य में किसी मानवाधिकार मुद्दे पर उठाई गई उनकी आवाज़ को खोखली साबित करेगी.

6 comments:

संजय बेंगाणी said...

गाजा पर आसूँ बहाने के बाद समय मिला तो तिब्बत पर भी बहा लेंगे.
दुसरी समस्या यह है की तिब्बती मुसलिम न हो कर बौद्ध है, और दमनकारी अमेरीका न हो कर पूजनिय चीन है. समझा करो यार.

Arun Arora said...

अब हम, क्या कहे बैंगाणि जी तो सब कुछ कह डाले है,भाइ यहा सिरफ़ जहा मुस्लिम परेशान हो या दूसरे खुश हो वही ध्यान जाता है जी,ये वो लोग है जो चीन को भारत पर आक्रमण के समय भी मुंह मे दही जम कर बैठ जाते है ,कही अगर हिंदुओ और फ़िर यहूदियो को गरियाना हो तो हाजिर है,आप इनसे खामखा की बात क्यो कर रहे है,क्या आप जानते नही ऐसे मौको पर ये लोग खामोश हो जाते है..ऐसे समय जो बोलते है ये सिर्फ़ उनको गरिया सकते है जी हिंदू वादी और हीटलर वादी कह कर..:)

Anonymous said...

इन वामप्ंथीयों का देश चीन है. भारत की खाकर हरामखोर चीन का तलवा चाटते हैं

Unknown said...

संजय जी और अरुण जी की बात को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहता हूँ कि "भाई जहाँ से चन्दा और माल मिलता हो, उसके खिलाफ़ नहीं बोला जाता है, थ्येनाआनमन चौक से प्रेरणा लेकर नन्दीग्राम तो करवा दिया अब क्या चाहते हो यार… गाजा पट्टी पर बोलते-बोलते हलक सूख गया है, लेकिन तसलीमा पर भी बोलती बन्द है, सबसे बड़े फ़्राड हैं मार्क्सवादी…

अनुनाद सिंह said...

धीरज रखिये; दस वर्ष वाद ये ही मार्क्सवादी यह कहते हुए घड़ियाली आंसू बहायेंगे कि " हमने इस्लाम को ठीक से समझने मे गलती की और चीन के प्रति हमारी न्निती चीन के प्रति हमारे मोह का नतीजा थी।"

Siddhartha said...

भारत चाहे तो आज भी अमेरिका, रुस, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, श्रीलंका और अन्य देशों के साथ मिलकर तिब्बत के हित की आवाज उठा सकता है, परन्तु करे क्या भारत; अभी तक भारत की राजगद्दी पर 86 की छाती वाला नहीं पहुंचा।

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