Thursday, April 24, 2008

कप्तानी सबके बस की बात नहीं

इंडियन प्रीमियर लीग ने अपनी शुरुआत के बाद महज छह दिनों में ही कई महत्वपूर्ण संकेत दे दिए। पहला तो यह कि क्रिकेट का यह सबसे छोटा और मनोरंजक संस्करण टेस्ट व वनडे की ही तरह अपने लिए लंबी उम्र लेकर आया है। दूसरा और महत्वपूर्ण संकेत यह है अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट न होने के बावजूद यहां दो टीमों के खिलाड़ियों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा और दर्शकों के रोमांच में कोई कमी नहीं आई है। इस प्रतियोगिता में खेलने वाला हर खिलाड़ी अपनी टीम की जीत के लिए पूरा प्रयास करता हुआ नजर आ रहा है। माइक हसी और मैथ्यू हेडन जैसे बल्लेबाज ब्रेट ली और जेम्स होप्स ( जो राष्ट्रीय टीम में उनके साथी हैं) की गेंदों को सीमारेखा के पार पहुंचाने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं तो हरभजन सिंह राहुल द्रविड़ को आउट कर कुछ उतने ही खुश दिख रहे हैं जितना कि वह एंड्रयू सायमंड्स और रिकी पोंटिंग को आउट कर खुश होते थे।

इस टूर्नामेंट ने जो तीसरा संकेत दिया उस और ध्यान देना सबसे जरूरी और रोचक है। इसने इतना तो साबित कर ही दिया कि क्रके्ट किसी भी रूप में क्यों न खेला जाए कुछ बातें कभी नहीं बदलती। सहवाग टेस्ट खेलें, वनडे खेलें या ट्वंटी २० उनका आक्रामक रवैया हमेशा बरकरार रहता है। श्रीसंथ को आप दुनिया के किसी भी मैदान में पटक दें उनकी हरकतें कैमरे को अपनी ओर खींचनें में कामयाब हो ही जाती है। यही बात आईपीएल की आठ टीमों के कप्तानों पर भी लागू होती हैं। यूं तो आईपीएल के इस सत्र में कई मैच खेले जाने बाकी हैं लेकिन अब तक हुए आठ मैचों के आधार पर ही आप यह सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन अच्छा कप्तान है, कौन औसत और कौन फिसड्डी। कहने के लिए तो डेक्कन चार्जर्स की टीम में सबसे ज्यादा विध्वंसक खिलाड़ी शामिल हैं लेकिन घटिया रणनीति ने दोनों मैचों में उनकी लुटिया डुबो दी। वेणुगोपाल राव जो ऊंचे शॉट लगाने की बजाय अपनी पारी को धीरे-धीरे मजबूती प्रदान करते हैं उन्हें वीवीएस लक्ष्मण ने सलामी बल्लेबाज के तौर पर भेजा और जब गिलक्रस्ट आउट हो गए तो खुद वेणुगोपाल के साथ मिलकर टुक-टुक करने क्रीज पर आ गए। कुल जमा १२० गेंदों की पारी में दो बल्लेबाज मिलकर २०-२५ गेंद जाया कर दें तो आप वैसे ही मुकाबले से बाहर हो जाते हैं। लक्ष्मण ने यह गलती तब की जब उनके पास शाहिद अफरीदी जैसा आक्रामक बल्लेबाज मौजूद था।

लक्ष्मण की तरह ही किंग्स इलेवन पंजाब के कप्तान युवराज सिंह भी रणनीति बनाने में जूझते नजर आ रहे हैं। जब विपक्षी बल्लेबाज उनके गेंदबाजों की धज्जियां उड़ाने लगता है तो पंजाब के इस पुत्तर के होश फाख्ता हो जाते हैं। उन्हें यह नहीं सूझता कि किस फील्डर को कहां रखें और किस गेंदबाज को आक्रमण पर लाएं। मुंबई इंडियंस के कार्यवाहक कप्तान हरभजन सिंह भी इस जिम्मेदारी के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं।

वहीं शुरुआती मैचों में सफल कप्तानों की ओर नजर डालें तो सौरव गांगुली और महेंद्र सिंह धोनी ने दिखा दिया क्यों उनकी गिनती भारत के सबसे बेहतरीन कप्तानों में होती है। इन दोनों के अलावा वीरेंद्र सहवाग ने भी अपनी नेतृत्व क्षमता से सबको कायल किया है। इसकी झलक उन्होंने खिलाड़ियों की नीलामी में ही दिखा दी थी। हालांकि उस वक्त वे आस्ट्रेलिया में थे लेकिन उन्होंने वहां से ही अपने फ्रेंचाइजी जीएमआर को अपनी पसंद बता दी थी। नीलामी में जहां सभी टीमों ने एक से एक धाकड़ बल्लेबाजों को अपना हिस्सा बनाने के लिए पैसे खर्चे तो दिल्ली डेयरडेविल्स ने कसी हुई लाइन लेंथ से गेंदबाजी करने वाले दिग्गजों को अपनी टीम में शामिल किया। सहवाग की सफलता इस बात की ओर भी इशारा करती है कि धोनी को भारतीय टीम की कप्तानी के मामले में जिस व्यक्ति से सबसे बड़ा खतरा है वह युवराज नहीं बल्कि नजफगढ़ का सुल्तान सहवाग है।

इस आलेख में दो अन्य कप्तानों का जिक्र करना भी बेहद जरूरी है। ये नाम हैं राहुल द्रविड़ औऱ शेन वार्न। बेंगलोर रॉयल चैलेंजर्स के कप्तान के तौर पर भी द्रविड़ वैसे ही नजर आ रहे हैं जैसा वे भारतीय टीम की कमान संभालते वक्त नजर आते थे, यानी एक औसत कप्तान। जहां तक शेन वार्न का सवाल है तो दो मैचों में एक में जीत और एक में हार के स्कोर लाइन के साथ उन्होंने यह जरूर साबित किया कि भले ही वह बतौर कप्तान सहवाग से कमतर हों लेकिन युवराज से कहीं अच्छे हैं।

Tuesday, April 22, 2008

क्या प्रियंका के गांधीवाद से पिघलेगा लिट्टे?

गिरीश निकम की कलम से

कुछ सप्ताह पहले राहुल गांधी कर्नाटक में थे जहां कुछ पत्रकारों के साथ उनकी एक अनौपचारिक बैठक हुई। इनमें से एक पत्रकार ने प्रियंका गांधी के राजनीति में प्रवेश पर उनकी राय जाननी चाही। उनका यह सवाल निश्चत रूप में गांधी परिवार के बारे में हो रही मीडिया रिर्पोटिंग से प्रभावित था साथ ही यह सवाल परोक्ष रूप से राहुल और प्रियंका के बीच मौजूद कथित प्रतिद्वंदिता के बारे में भी था। राहुल (जिन्होंने ऑफ द रिकार्ड हुए इस बैठक में खुल कर बात की और कई दिल भी जीते) ने उन्हें बताया कि कैसे ज्यादातर लोगों ने इस मामले में बिल्कुल गलत समझ विकसित कर ली है। उन्होंने कहा, 'आपलोगों को इस बात का बिल्कुल आभास नहीं है कि हमलोग (प्रियंका, वो और उनकी मां) अपनी जिंदगी में किन हालातों से गुजरे हैं।' वह निश्चत तौर पर अपनी दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की नृशंस हत्या की बात कर रहे थे। उन्होंने कहा, 'हमलोग एक दूसरे के बहुत करीब रहे हैं औऱ ऐसे में प्रतिद्वंदिता का तो सवाल ही नहीं उठता।'

अपने पिता की हत्या के बाद वे किस सदमें से गुजरे, किस तरह उनकी मां ने स्थिति को संभाला औऱ कैसे इसके बाद वह, उनकी बहन और उनकी मां एक-दूसरे के काफी करीब आ गए, राहुल इसी बारे में कहना चाह रहे थे। मीडिया ने गांधी परिवार के इस पहलू को कमोबेश किनारे रखते हुए उनकी राजनीति औऱ सत्ता की खोज पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया है। इसलिए अगर राहुल द्वारा अपने परिवार की मनःस्थित के बारे में कही गई बातों को ध्यान में रखते हुए कोई प्रियंका गांधी की पिछले महीने की गई वेल्लोर जेल यात्रा को देखेगा तो वह आसानी से अंदाजा लगा पाएगा कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है। वास्तव में जब राहुल पत्रकारों से बात कर रहे थे तब प्रियंका अपने पिता के हत्यारों के समूह की सदस्य नलिनी से मिलकर आ चुकी थीं। इसलिए जब वह पत्रकारों के सामने बोल रहे थे तब यह बात उनके दिमाग में कहीं न कहीं जरूर रही होगी क्योंकि तब तक प्रियंका नलिनी से मुलाकात के अपने अमुभव उनके साथ बांट चुकी थी।

इस बात का श्रेय गांधी परिवार को जाता है कि उसने इस मुलाकात के जरिए कोई प्रचार हासिल करने की कोशिश नहीं की। यह बात लोगों के सामने तब आई जब नलिनी के वकील ने अदालत से दया की उम्मीद में इसका खुलासा किया।

अब यह गौर करने की बात है कि वह क्या वजह थी जिसने प्रियंका को 38 साल की नलिनी से मुलाकात के लिए प्रेरित किया। इस मुलाकात के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। खुद प्रियंका ने भी बयान जारी कर कहा कि वह पिता की हत्या के बाद मानिसक शांति पाने के प्रयास में निलिनी से मिली। राहुल ने अपनी बहन के इस अभूतपूर्व कदम का विरोध नहीं किया लेकिन यह साफ किया कि इस मामले में उनकी सोच अलग है। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि वह इस तरह की मुलाकात की कोई योजना नहीं बना रहे हैं। हालांकि राहुल और प्रियंका दोनों ने कहा कि वे घृणा, क्रोध और हिंसा को अपनी जिंदगी पर हावी नहीं होने देना चाहते हैं। प्रियंका ने इसमें यह भी जोड़ा कि यह पूरी तरह व्यक्तिगत मुलाकात थी जिसकी पहल उन्होंने खुद की थी। उन्होंने कहा कि पिता की हत्या के बाद शांति प्राप्त करने का उनका तरीका है और इसे सही अर्थों में समझा जाए। सोनिया ने इस मसले पर अब तक चुप्पी साध रखी है हालांकि उन्होंने अपने दुःस्वप्न को अपनी बेटी प्रियंका की तुलना में बहुत पहले ही तब दफना दिया था जब उन्होंने नलिनी की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील करवाया था।

ऐसे में जबकि इस विपदाग्रस्त परिवार के तीनों सदस्यों ने इस मसले पर असाधारण मानवता का परिचय दिया है यह दुखद है कि मीडिया का एक तबका इसकी सराहना करने के बजाय इस खबर के मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया से पिछड़ने के कारण खार खा कर इस मुलाकात की वैधता में कोर-कसर निकालने की कोशिश कर रहा है। दुर्भाग्य से गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी की इस धरती पर घृणा और हिंसा ने गहरी पैठ जमा ली है। ऐसे समय में जब कोई व्यक्तिगत विपदा से उबरने के लिए और अपनी नफरत की भावनाओं को खत्म करने के लिए हत्यारे से मिलकर पूरा जतन करने की कोशिश करता है तो उसके इस प्रयास को नकारात्मक और संशय की दृष्टि से देखा जाता है।

इस मुलाकात पर आई कुछ प्रतिक्रियाएं तो काफी निराशाजनक थी जिसमें भारतीय जनता पार्टी की ओर से आई प्रतिक्रिया सबसे चौंकानेवाली थी। भाजपा के पार्टी प्रवक्ता ने बयान दिया कि 'प्रियंका नलिनी से क्यों मिली यह समझ से बाहर है' । निश्चित रूप से ऐसी पार्टी जो अपनी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ द्वारा प्रचारित नफरत के खाद-बीज पर पली-बढ़ी हो वह ऐसे किसी प्रयास को नहीं समझ सकती जो नफरत, घृणा और हिंसा को समाप्त करने के लिए किए जाते हों।

यह समझना जरूरी है कि नलिनी से मिलने का फैसला कर प्रियंका कोई राजनीतिक लाभ कमाने की कोशिश नहीं कर रही थी। यह एक बेटी द्वारा पिता की हत्या के बाद शांति प्राप्त करने का तरीका था। हालांकि उन्होंने अनजाने में ही सही एक शसक्त राजनीतिक बयान दे दिया कि उनका परिवार और वह खुद किसी को अपने पिता की हत्या पर राजनीतिक रोटिंया नहीं सेंकने देंगी। हालांकि यह अजीब बात है कि कभी निष्कपट रहीं सोनिया गांधी ने अर्जुन सिंह और उनके सहयोगियों को इंद्र कुमार गुजराल की संयुक्त मोर्चा सरकार को केवल इस तर्क के आधार पर गिराने दिया कि डीएमके के नेता राजीव गांधी हत्याकांड में संदिग्ध थे। बहरहाल बाद में विवेकपूर्ण सोनिया ने अपनी भूल सुधारी और डीएमके के साथ गठबंधन किया। अब ऐसा प्रतीत होता है कि सोनिया ने डीएमके प्रमुख और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि के साथ अच्छा तालमेल स्थापित कर लिया है।

नलिनी मामले में तो सोनिया और उनकी दोनों संतानों ने विशाल हृदय का परिचय जरूर दिया लेकिन राजीव हत्याकांड के बाद उनसे एक बड़ी भूल भी हुई। राजीव के साथ 1991 के मई की रात जान गंवाने वाले 15 लोगों के परिवार वालों की मदद के लिए गांधी परिवार हाथ बढ़ाने में विफल रहा। हालिया प्रकाशित रिपोर्टों के अनुसार गांधी परिवार के किसी भी सदस्य ने न तो उनकी मदद करने की और न ही उन तक पहुंचने की कोशिश की। उनमें से कुछ तो कांग्रेस के साधारण कार्यकर्ता थे जिनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार की हालत बेहद खराब हो गई लेकिन इसके बावजूद किसी ने उनकी सुध नहीं ली। यह आश्चर्य की बात है सोनिया और उनकी दोनों संतानों ने इस पहलु को अनदेखा कर दिया। उम्मीद है कि अब वे अपनी गलती को सुधारने की कोशिश करेंगे। हालांकि राजीव की हत्या के बाद गांधी परिवार का खुद शोकाकुल होना इस अनदेखी के पीछे बड़ा कारण हो सकता है।

इस भूल के बावजूद अब प्रियंका ने और पहले सोनिया ने दुनिया को दिखा दिया कि नफरत और अस्वस्थ मानसिकता को खुद के अंदर पनपाना घृणित कार्यों को रोकने के लिए उचित समाधान नहीं हो सकता, चाहे मसला व्यकितगत हो या राजनैतिक। उम्मीद है कि राजीव हत्याकांड की साजिश रचने और इसे कार्यान्वित करने वाला लिट्टे प्रियंका के कदम से पिघलेगा और इसमें अपनी भूमिका को स्वीकारते हुए माफी मांगेगा। यह इस दुखदाई मुद्दे का उचित समापन होगा और हम एक राष्ट्र के तौर पर गांधीगण एक परिवार के तौर पर अपने जख्मों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ पाएंगे। इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

Monday, April 14, 2008

आरक्षण के अध्याय का आखिरी शब्द स्वीकार करें

पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने उच्च शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस आलेख के जरिए लंबे समय से विवादास्पद रहे इस मुद्दे पर शीर्षस्थ अदालत के फैसले की पृष्ठभूमि में अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं गिरीश निकम। हालांकि उनका यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में लिखा लिखा हुआ है जिसका हिंदी अनुवाद उनकी अनुमित के साथ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

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गिरीश निकम की कलम से

हर पुस्तक का एक आखिरी शब्द होता है, हर नाटक का एक आखिरी दृश्य होता है। मतलब जो शुरू हुआ वह कहीं न कहीं समाप्त भी होता है। इसलिए अब उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद केंद्र सरकार और इससे जुड़े उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर चल रह वाद-प्रतिवाद का दौर भी अब समाप्त हो जाएगा। यह अलग बात है कि आरक्षण मसले कानूनी दांवपेंच की बाते होती रहेंगी लेकिन शीर्षस्थ न्यायालय की मुहर लगने से इससे जुड़ी बहस खत्म हो जानी चाहिए। लंबे समय से आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में चल रहे तर्क और कुतर्क ने देश को हिलाकर रख दिया है जिसकी कंपन हिंदीभाषी क्षेत्रों में ज्यादा महसूस की गई। इसने सबसे ज्यादा विद्यार्थी समुदाय को प्रभावित किया है और अब उचित समय आ गया है सब शांत हो जाएं और कोर्ट के फैसले को स्वीकार करें।

पिछले हफ्ते जिस दिन पांच न्यायाधीशों के बेंच ने इस मसले पर अपना फैसला सुनाया उस दिन इस खबर को लेने वाले तमाम वेबसाइटों को आरक्षण का विरोध करने वाले ब्लागरों ने अपनी प्रतिक्रिया से पाट दिया। मार्च 2007 में संप्रग सरकार द्वारा प्रस्तावित आरक्षण विधेयक पर न्यायालय के दो सदस्यीय बेंच द्वारा स्टे लगाने के बाद इन लोगों ने जो धारणा अपने मन में पाल रखी थी वह गलत साबित हो गई। निश्चित तौर पर उन्होंने अपनी जीत की खुशी समय से पहले मना ली थी। तब टीवी कैमरों के सामने उन्होंने जिस तरह अपनी खुशी जाहिर की थी उससे लगता है कि उन्हें विश्वास हो चला था कि सुप्रीम कोर्ट आरक्षण को मंजूरी प्रदान नहीं करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इसलिए यह समझा जा सकता है कि अब वह इतनी तीखी प्रतिक्रिया क्यों जाहिर कर रहे हैं। इन प्रतिक्रियाओं में यह तथ्य देखाना रोचक था कि इनमें से बड़ा वर्ग कोर्ट के फैसले का स्वागत करने के लिए भाजपा को लताड़ रहा था क्योंकि वे इस पार्टी को अबतक अपना रक्षक समझते थे।

कोर्ट के अंतिम फैसले ने न सिर्फ आरक्षण को जायज ठहराया बल्कि इसने आरक्षण के लिए जाति को आधार बनाने की बात को भी सही माना। फैसले के इस पहलू के कारण भी इसके खिलाफ बड़ी तादाद में आवाज उठाई जा रही है। शीर्षस्थ अदालत ने इस दलील को भी मजबूती से खारिज कर दिया कि जातीय आधार पर आरक्षण देने से समाज बंटता है। जो लोग अग्रलिखित अवधारणा के आधार पर तर्क देते हैं वे अक्सर इस देश में हजारों वर्षों से अपनी गहरी जड़ें जमा चुकी जातीय व्यवस्था की अनदेखी करते हैं और इन्हीं में से कई ऐसे लोग है जो जातीय व्यवस्था के असली अनुपालक रहे हैं। यह कोई नहीं कह सकता है कि छोटी जातियों ने जाती व्यवस्था को बनाया है या अमल में लाने की कोशिश की है। जब तक जाति व्यवस्था अगड़ों के हित में रही तबतक उन्होंने इसका स्वागत किया और जब यह उन्हें पीड़ा देने लगी है तब वे इसकी नुख्ताचीनी करने में लग गए हैं।

जहां तक इस तर्क की बात है कि आरक्षण से मेरिट को नुकसान पहुंचता है और इससे अयोग्य व्यक्तियों को फायदा मिलता है तो यह याद दिलाता चलूं कि पिछले वर्ष वीरप्पा मोईली की अध्यक्षता में गठित समिति ने काफी रिसर्च और छान-बीन के बाद इसे आधार हीन करार दिया था।

अब फिर से सु्प्रीम कोर्ट के फैसले की ओर लौटते हैं। जिस आधार पर दो न्यायाधीशों के बेंच ने आरक्षण विधेयक पर रोक लगाई थी उसे ताजा फैसले में कोई जगह नहीं मिली। न्यायाधीश अरिजित पसायत और न्यायाधीश एल एस पंटा यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए कि मंडल कमीशन रिपोर्ट में ओबीसी आरक्षण के लिए पेश किए गए 1931 के जनगणना आंकड़े पर्याप्त होंगे। तब कई लोगों ने (जिसमें मैं भी शामिल हूं) यह तर्क रखा था कि जनगणना आंकड़ों के अपडेशन मात्र से जमीनी हकीकत नहीं बदल जाएगी। इस देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति से बना है और उनके लिए 27 फीसदी आरक्षण उनकी वास्तविक संख्या से काफी कम है। इस बार पांच न्यायधीशों की समिति ने इस मसले पर ज्यादा जोर नहीं दिया। जनजणना आंकड़ों के अपडेशन से तथ्यों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है और साथ ही आरक्षण का विरोध करने वाला तबका जातीय आधार पर जनगणना का भी विरोध करता है तो फिर किसी जाति की वास्तविक संख्या क्या है इस बात का पता कैसे चलेगा?

तो क्या सु्प्रीम कोर्ट के इस फैसले को उचित माना जाए। बिल्कुल माना जाए। हालांकि आरक्षण के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों के लिए यह कभी भी उचित फैसला नहीं हो सकता है लेकिन शीर्षस्थ अदालत इससे ज्यादा क्या कर सकता है। वह भला उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण से कैसे इनकार कर सकता है जबिक इसने नौकरियों के मामले में इसे स्वीकार किया है। यह जरूर याद रखा जाए कि 1993 में इंदर साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद (जिसने केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए आरक्षण का दरवाजा खोला था) नौकरियों में आरक्षण लागू करने के बाद इसे शिक्षण संस्थाओं में लागू करना महज उप परिणाम मात्र था जिसे आज न कल होना ही था। संप्रग सरकार द्वारा इसे लागू करने का जिम्मा उठाने से पहले कई सरकारों ने इस मसले पर टालमटोल का रुख अपनाया। इस बारे में भी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखा गया और प्रस्तुत किया गया कि कोर्ट द्वारा ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर को बाहर रखने का निर्देश देने से सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। अब यह भी कोई ऐसा मसला नहीं है जिस पर कोई हायतौबा मचाए क्योंकि इंदर साहनी मामले के फैसले में ही शीर्षस्थ न्यायालय ने क्रीमी लेयर पर स्पष्ट रूपरेखा तैयार कर दी थी। नौकरियों में आरक्षण देते वक्त भी क्रीमी लेयर को कोटा दायरे से बाहर रखा गया था। उच्च शिक्षा में आरक्षण के लिए विधेयक में क्रीमी लेयर को शामिल करने को लेकर मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के ऊपर संप्रग के कुछ घटक दलों का दबाव था। हालांकि सरकार को यह भान था कि कानूनी तौर पर ऐसा करना संभव नहीं हो पाएगा। अब सोनिया और डा. सिंह यह कहकर खुद को दोषमुक्त कर सकते हैं कि उन्होंने इसके लिए कोशिश की लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हो पाया।

अब क्या यह फैसला किसी एक पार्टी के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद होगा? निश्चित रूप से कांग्रेस और संप्रग के इसके सहयोगी घटक इस पर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने की कोशिश करेंगे। वाम दल भी ज्यादा पीछे नहीं रहने वाले हैं और उन्हें इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। वह इस मामले में वाकई ऐतिहासिक योगदान का दावा कर सकते हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है तो वह ऐसे मसले में खुद को न इधर की और न उधर की वाली स्थिति में पाती है। हालांकि उसने भी न्यायालय के फैसले का स्वागत करने में वक्त जाया नहीं किया।
अब यह फैसला ऐसे वक्त में आया है जब इस साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। सबसे पहले कर्नाटक में चुनाव होंगे और यह देखने वाली बात होगी कि वहां संप्रग को कितना लाभ मिलता है।

असल बात यह है कि जो शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण के खिलाफ थे उन्हें अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। जैसा कि मशहूर अधिवक्ता और आरक्षण के खिलाफ रहने वाले सोली सोराबजी ने कहा कि अब सबों के लिए उचित होगा कि फैसले को स्वीकार किया जाए और लंबे समय से विवादास्पद रहे इस मसले का पटाक्षेप किया जाए। सबों को खुश करना मुमकिन नहीं है लेकिन हर अध्याय का एक समापन होता है। यह हो सकता है कि पांच वर्षों बाद हम इस बात का अध्ययन करें कि आरक्षण अपने उद्देश्य में असफल रहा या इसने वाकई विश्वास से भरे पुरुषों और महिलाओं को समान अवसर प्रदान किया।

Wednesday, April 9, 2008

एनडीटीवी इमेजिन पर मूक रामायण

सोमवार, 8 अप्रैल को रात 9.30 बजे मैं मनोरंजन चैनल एनडीटीवी इमेजिन पर रामायण देख रहा था। इसमें आजकल भगवान राम के वन जाने का प्रसंग दिखाया जा रहा है। सीरीयल में पहले ब्रेक तक तो सब कुछ ठीक रहा लेकिन इसके बाद जो हुआ वह मुझे समझ में नहीं आया। राम के वन जाने की कथा के दौरान टेलिविजन पर दृश्य तो उभर रहे थे लेकिन आवाज के नाम पर सिर्फ रवींद्र जैन का संगीत बज रहा था। कलाकार होंठ तो हिला रहे थे लेकिन उनकी आवाज नहीं आ रही थी। मैंने सोंचा कि कहीं मेरा खटारा टीवी आज फिर तो नहीं खराब हो गया तभी किसी मित्र ने फोन कर बताया कि उसके यहां भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। मैं यह जानना चाहता हूं कि ऐसा तकनीकी खराबी की वजह से हुआ या सीरीयल के निर्माता और चैनल के कर्ताधर्ता जानबूझ कर राम सहित रामायण के तमाम पात्रों को गूंगा बनाने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि इसके बाद जो अगला सीरीयल शुरू हुआ उसमें आवाज की ऐसी कोई समस्या नहीं थी।

Tuesday, April 8, 2008

क्या भगवा ब्रिगेड को अलग-थलग कर पाएंगे मार्क्सवादी?

29 मार्च से 3 अप्रैल तक कोयंबटूर में सीपीआई (एम) का 19वां अधिवेशन संपन्न हुआ। पहली बार ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत की अनुपिस्थिति में हुए इस अधिवेशन में पार्टी की भविष्य की योजनाओं की रूप-रेखा तैयार की गई। इस आलेख में इन्हीं योजनाओं और इसके संभावित परिणामों का जायजा ले रहे हैं गिरीश निकम। हालांकि यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में है जिसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमित के साथ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
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गिरीश निकम की कलम से

तो सीपीआई(एम) अपना एक और मैराथन अधिवेशन कर चुकी है। यह इकलौती ऐसी पार्टी है जो हर तीन साल में एक बार छह दिनों तक संगठनात्मक मुद्दों के साथ-साथ क्षेत्रिय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर एक जगह जमा होकर विचार-मंथन करती है। इसलिए कुछ मायनों कोई भी अन्य पार्टी इन मसलों को उतनी गंभीरता के साथ नहीं लेती है जितना कि मार्क्सवादी लेती हैं। तो क्या यह कहा जा सकता है कि यह दल अंदरूनी लोकतंत्र को कायम रखे हुए है। दूसरी पार्टयों के साथ तुलना करें तो यह बात बिल्कुल सही है। पार्टी की ज्यादातर बैठकें गुप्त होती है और इसमें निचले स्तर के सदस्य को भी अपनी बात सामने रखने की और बड़े से बड़े धुरंघरों की आलोचना करने की आजादी होती है। इन सब के बावजूद कई बुर्जुआ पार्टियों की पंरपराओं के उलट यहां आप अधिवेशन में हुई बातों को मीडिया में लीक होता हुआ नहीं पाएंगे।

चूकि पार्टी में जानकारी लीक करने को बहुत ही गंभीरता से लिया जाता है और ऐसा करने वाले को अक्सर अपनी पार्टी सदस्यता से हाथ भी धोना पड़ता है इसलिए किसी मार्क्सवादी नेता से जानकारी निकलवा पाना पत्रकारों के लिए हमेशा से टेढ़ी खीर रहा है।

उपरोक्त बातों के हिसाब से कोयंबतूर में हुआ सीपीआईएम का 19वां अधिवेशन भी अलग नहीं रहा। हालांकि कुछ अन्य तथ्यों के लिहाज से यह कुछ हद तक पहले से भिन्न जरूर रहा है। खराब स्वास्थ्य के कारण पहली बार पार्टी पोलित ब्यूरो के संस्थापक और वरिष्ठ नेता ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत अधिवेशन में हिस्सा नहीं ले सके। अपने जीवन के 90 बसंत देख चुके इन नेताओं की अनुपस्थिति में यह अधिवेशन सही मायनों में भावी पीढ़ी के नेताओं का अधिवेशन रहा। नेतृत्व की मशाल आगे की ओर बढ़ा दी गई है और यह प्रकाश करात और सीताराम येचुरी की अगुवाई में युवा पीढ़ी के नेताओं की जिम्मेदारी है कि वे आने वाले दिनों में नेतृत्व व रणनीतियों को दशा व दिशा दें।

बसु और सुरजीत ने पार्टी को बहुत ही मजबूत नींव प्रदान की है। विशेषकर वी पी सिंह, संयुक्त मोर्चा और संप्रग सरकारों को बाहर से समर्थन देकर उन्होंने पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति के नक्शे पर मजबूती से उभारा। यह उनकी दूरदर्शिता और राजनीतिक सामंजस्यता का ही नतीजा है कि आज पार्टी अधिवेशन को अभूतपूर्व मीडिया कवरेज मिल रहा है। सीपीएम ने 2004 लोकसभा चुवाओं के बाद तमाम विरोधाभासों के बावजूद जिस तरह कांग्रेस के साथ अपने नाजुक संबंधों का निर्वहन किया है उससे यह पार्टी हमेशा सुखिर्यों में रही। कोयंबतूर अधिवेशन ने जिस तरह मीडिया में उत्सुकता पैदा की है उससे खुद कई कामरेड आश्चर्यचकित हैं। यह सीपीआईएम के 44 सालों के इतिहास में संभवतः सबसे बृहद मीडिया कवरेज रहा है। निश्चत तौर पर कुछ कवरेज सकारात्मक और सही नहीं है। हकीकत यही है कि मीडिया का बड़ा हिस्सा आज भी इस पार्टी को, इसकी कार्यशैली को समझने की ही कोशिश कर रहा है और मीडिया के प्रति सीपीआईएम का जो रुख है उससे इसमें खास मदद नहीं मिलती है।

जहां तक इस अधिवेशन के निष्कर्ष का सवाल है तो यह न सिर्फ मीडिया बल्कि आम आदमी को भी भ्रम में डालने वाला है। हालांकि किसी अहम मुद्दे पर पार्टी को सोच में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है लेकिन भविष्य की योजनाओं के बारे में इसकी जो अभिव्यक्ति है उससे कई तरह की उलझनें पैदा होती हैं। यह उलझने तब तक रहेंगी जब तक पार्टी इसे साफ-साफ नहीं कहती।

कोयंबतूर अधिवेशन के दौरान पार्टी ने जिन चुनौतियों को अपने सामने रखा है उसमें सबसे बड़ी चुनौती है तीसरे विकल्प का निर्माण करना। मीडिया भी यह समझता हुआ प्रतीत होता है इस बार ऐसे तीसरे विकल्प की तैयारी की जा रही है महज चुनावी न हो और जिसका मकसद हर हाल में सत्ता हासिल करना भी न हो। लेकिन क्या इसके लिए मार्क्सवादियों के पास ऐसा समर्थन आधार और ऐसे सहयोगी हैं जिसके बल पर वे तीसरे विक्लप के बारे में सोच रहे हैं। मार्क्सवादियों के हिसाब से यह विकल्प ऐसा हो जो विचारधारा के आधार पर दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक भारतीय जनता पार्टी और नव उदारवाद की ओर बढ़ती मध्यमार्गी कांग्रेस पार्टी से अलग हो। अब मार्क्सवादी यह विश्वास कर रहे हैं या कम से कम उम्मीद कर रहे हैं कि भारतीय राजनीति के इन दोनों घ्रुवों के अलावा तीसरा विक्लप खड़ा किया जा सकता है। लेकिन ऐसे विकल्प के लिए उनका जमीनी आधार क्या होगा? वही तेलगु देशम पार्टी, वही समाजवादी पार्टी, वही जनता दल से टूटकर अलग हुई पार्टियां, वही डीएमके आदि-आदि. यह वास्तव में बहुत बड़ी चुनौती है। मार्क्सवादियों को इन पार्टियों को जो सत्ता में होने पर भाजपा या कांग्रेस जैसी नीतियों पर चलते हैं तीसरे विकल्प के लिए तैयार कर पाना बहुत मुश्किल है।

हालांकि सीपीआई (एम) की दूसरी चुनौती जो तीसरे विकल्प के गठन से ही जुड़ी है सबसे रोचक है। यह चुनौती है भाजपा को अलग-थलग करने की। कुछ उसी तरह जिस तरह 1996 में 13 दिनों के लिए बनी वाजपेयी सरकार को अलग-थलग किया गया था। संप्रग सरकार के गठन के लिए कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के लिए जिस तथ्य ने मार्क्सवादियों को प्रेरित किया था वह बिना शक सांप्रदायिक भाजपा को सत्ता से दूर रखना था। अब मार्क्सवादी इस बात के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं कि भाजपा अपने साझीदारों की संख्यां न बढ़ा सके बल्कि जो भी साझीदार उनके साथ हैं उन्हें भी उनसे अलग किया जाए। अब ऐसे देश में जहां मौकापरस्ती सभी राजनीतिक दलों का मूल मंत्र है और जहां विचारधारा से जुड़ी प्रतिबद्धता चोला बदलने में बाधक सिद्ध होती हो वहां मार्क्सवादियों को छोटे दलों को ऐसी पार्टी को अलग-थलग करने के लिए तैयार करने खासी मशक्कत करनी पड़ेगी जो उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी का लालच देकर अपनी ओर रिझाती है। भाजपा अब फुसलाने की कला में माहिर हो चुकी है। कुछ समय पहले उसने जिस तरह कर्नाटक में जनता दल सेक्यूलर को फुसलाया था उससे यह बात अपने आप प्रमाणित हो जाती है। भाजपा अब भी इन हथकंडों को अपनाने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी। मार्क्सवादियों के लिए अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक औऱ बड़ी बाधा से पार पाना होगा। भारतीय में कई ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां है जो स्वभाविक रूप से कांग्रेस से अलगाव का भाव रखती है क्योंकि इन पार्टियों के लिए कांग्रेस ही सबसे बड़ी साजनीतिक प्रतिद्वंदी है।

इससे भारतीय मार्क्सवादी एक साथ दो नावों की सवारी करते हुए प्रतीत हो रहे । यह एक ऐसी स्थिति है जो सीपीआई (एम) की राजनीतिक क्षमताओं की असली परीक्षा लेगी। इसमें खतरा भी है। क्योंकि भारतीय मार्क्सवादी अभी कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ सकते हैं और ऐसे में क्या वे इन छोटे-छोटे राजनीतिक दलों को भाजपा से दूर रख पाएंगे। हो सकता है ऐसा न हो पाए। ध्यान देने वाली बात है कि करात ने यह भी कहा है कि कांग्रेस के साथ संबंधों को वह इस लोकसभा से आगे भी ले जाना चाहते हैं। अपने इस रुख के कारण वे कांग्रेस से प्रतिद्वंदिता रखने वाले छोटे दलों को कैसे भाजपा के करीब जाने से रोक पाएंगे।
इसलिए मार्क्सवादियों को आम आदमी को अपनी योजनाओं को समझा पाने और उन्हें विश्वास में लेने में खासी मेहनत करनी पड़ेगी क्योंकि आम आदमी उनके इस मारो और भागो वाले रवैये से भ्रमित हो सकते हैं। अगर भ्रम की यह स्थिति जल्द दूर नहीं होती है जिसे दूर करना आसान भी नहीं है तो मार्क्सवादी अनजाने में कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के साथ ही उन्हीं सांप्रदायिक ताकतों को मजबूती प्रदान करेंगे जिन्हें वह अलग-थलग करना चाहते हैं।

90 के दशक में और फिर 2004 में सुरजीत और ज्योति बसु ने केंद्र में कांग्रेस के साथ तालमेल कर राज्य स्तरीय मतभेदों से ऊपर उठते हुए इस देश में राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन राजनीति की मजबूत नींव रखी। अब उनके उत्तराधिकारियों ने अपने लिए बेहद कठिन चुनौतियों का चुनाव किया तो ऐसे में यह देखने वाली बात होगी कि वह इसमें सफल होते हैं या नहीं लेकिन एक बात तय है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और मार्क्सवादियों के बीच या यूं कहें कि दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के बीच का टकराव अब पहले से ज्यादा राजनीतिक और हिंसक शक्ल अख्तियार करेगा।

Sunday, April 6, 2008

इतना भी बोरिंग नहीं है गोल्फ देखना

मैं जब भी अपना टेलिविजन ऑन करता हूं तो पहले आवाज सुनाई देती है और इसके करीब 10-15 सकेंड के बाद तस्वीर उभरती है। पिछले महीने की बात है जब मैंने इसे ऑन किया तो पहली आवाज जो सुनी वह थी व्हाट ए शॉट। क्रिकेट प्रेमी होने के कारण मेरे कान खड़े हो गए और मन में लगा कि हो न हो यह सचिन तेंदुलकर के किसी बेहतरीन शॉट पर किसी कमेंटेटर की प्रतिक्रिया रही होगी लेकिन जब तस्वीर उभरी तो देखा कि यह टिप्पणी किसी महिला गोल्फर के शॉट के ऊपर की गई थी। खेल पत्रकार होने के बावजूद मेरी गोल्फ में कोई रुची नहीं है लेकिन वह महिला गोल्फर काफी खूबसूरत थी इसलिए कुछ देर उस चैनल पर अटक गया। इसके बाद दूसरी गोल्फर ने शॉट लगाया। उसका यह शॉट मुझे इतना बेहतरीन लगा कि इसके आगे पहले वाली गोल्फर की खूबसूरती भी फींकी लगने लगी।

इस एक शॉट ने मेरे अंदर गोल्फ को जानने की जिज्ञासा को काफी तीव्र कर दिया। बस क्या था मैंने अगले दो घंटों तक महला गोल्फरों के बीच इस जंग को देखा। काफी कुछ समझ में न आ पाने के कारण मैं इसका उतना मजा नहीं ले पाया जितना ले सकता था। अगले दिन जब मैं कार्यालय आया तो इंटनेट पर गोल्फ के बारे में कुछ जानकारी जुटाई। अपने एक-दो कलीग से इस बारे में बातचीत की। थोड़ा गोल्फ ज्ञान बढ़ा। रात में फिर एक स्पोर्ट्स चैनल पर गोल्फ देखा। उसके बाद से जब भी टेलिविजन पर गोल्फ देखने का मौका मिलता है मैं नहीं चूकता हूं और जैसे-जैसे मेरी जानकारी बढ़ती जा रही इसे देखने का मजा भी बढ़ता जा रहा है।

मैं अब तक गोल्फ के बारे में जितना जान पाया आप लोगों के साथ भी शेयर करना चाहता हूं। मुमकिन है कि आप में से बहुत से लोग इस बारे में विस्तार से जानकारी रखते हों लेकिन मेरे वो मित्र जो गोल्फ के मूलभूत तथ्यों से अनभिज्ञ होने के कारण इसका मजा नहीं ले पाते हैं उनके लिए मैं इस खेल से जुड़ी कुछ बातें लिखने का प्रयास कर रहा हूं।

1- किसी भी आउटडोर गेम की तरह गोल्फ का भी अपना मैदान होता है जिसे गोल्फ कोर्स कहते हैं। लेकिन हाकी, फुटबाल या रग्बी की तरह इसके मैदान का आकार-प्रकार हमेशा एक जैसा ही हो यह अनिवार्य नहीं है। आज की तारीख में दुनिया में कुल 32000 गोल्फ कोर्स हैं जिसमें आधे से ज्यादा अमेरिका में हैं।

2- वैसे तो एक मानक गोल्फ कोर्स में 18 होल (जिसमें गोल्फर गेंद डालने का प्रयास करता है) होते हैं लेकिन 9 होल वाले गोल्फ कोर्स भी प्रचलन में। यहां गोल्फर 1 से लेकर 9वां होल खेलने के बाद 9वें से पहले होल तक आता है।

3-हर गोल्फर हर होल में कम से कम शॉट में गेंद डालने की कोशिश करता है। सभी १८ होल मिलाकर जो गोल्फर सबसे कम शॉट लेता है वह विजेता होता है।

4- हर होल के लिए शॉटों की संख्या पहले से निर्धारित होती है। यह अमूमन तीन से लेकर पांच तक होती है। किसी-किसी गोल्फ कोर्स में छह शॉट वाले होल भी होते हैं। किसी होल के शॉटों की संख्या टी (पहले शॉट का स्थान) से होल तक की दूरी के हिसाब से तय किया जाता है। 91-224 मीटर के लिए तीन शॉट, 225-434 मीटर के लिए चार शॉट और 435-630 मीटर के लिए पांच शॉट तय किए जाते हैं। इससे ज्यादा दूरी के लिए छह शॉट तय होते हैं। हालांकि शॉटों की संख्यां टी और होल के बीच मौजूद व्यवधानो (बंकर या पानी वाला इलाका) के आधार पर भी तय किया जाता है।

5-मान लें कि किसी होल के लिए तय शॉटों की संख्या 4 है। अगर कोई गोल्फर 4 प्रयास में यानी चार शॉट में गेंद को होल में डालने में सफल रहता है तो उसके प्रदर्शन को पार (par) कहते हैं। अगर उसने तीन शॉट में गेंद को होल में पहुंचा दिया तो उसका प्रदर्शन वन बिलो पार (one below par) (-1) कहलाएगा। one below par प्रदर्शन को बर्डी भा कहा जाता है। इसी तरह उसने अगर दो शॉट में ही ऐसा कर दिया तो यह प्रदर्शन टू बिलो पार (-2) या ईगल कहलाएगा। इसी तरह इसके ठीक उलट यानी चार शॉट वाले होल के लिए अगर कोई पांच शॉट लेता है तो इसे वन अबव पार (one above par) (+1) कहलाएगा। one above par को बोगी भी कहा जाता है। अगर कोई इसके लिए छह शॉट लेता है तो इसे टू अबव पार या डबल बोगी कहते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि गोल्फर कम से कम शॉट में गेंद को होल में डालने का प्रयास करता है इसलिए बर्डी और ईगल अच्छा प्रदर्शन कहा जाता है वहीं बोगी या डबल बोगी खराब खेल माना जाता है। जो गोल्फर ज्यादा बर्डी या ईगल जमाएगा उसके जीतने की संभावना ज्यादा रहेगी।

6-इसी तरह सभी 18 होल का खेल हो जाने के बाद जिस गोल्फर ने सबसे कम शॉट लिए उसे विजेता माना जाएगा। अक्सर 18 होल के लिए कुल 70 से 72 शॉट निर्धारित होते हैं। मान लें किसी गोल्फ कोसर् में 72 शॉट निर्धारित हैं और कोई गोल्फर 65 शॉट में सभी 18 होल में गेंद डालने में सफल रहता है तो उसका स्कोर 7 अंडर- 65 कहलाएगा।


7-किसी होल में गेंद डालने के लिए गोल्फर जहां से पहला शॉट खेलेगा उसे टी (Tee) कहते हैं। उसके बाद गेंद जहां गिरेगी वहां से वह होल की तरफ दूसरा फिर तीसरा (जतनी जरूरत पड़े) शॉट खेलता है। जिस स्थान पर होल होता है उसे ग्रीन एरिया कहते हैं। ग्रीन एरिया बारीक कटी घांस वाला मैदानी भाग होता है। एक बार ग्रीन एरिया में गेंद पहुंच जाने के बाद गोल्फर हवा में शॉट नहीं खेलता है बलिक मैदानी शॉट (All along the ground) खेलकर उसे होल में डालने का प्रयास करता है। इसी मैदानी शॉट को पुटिंग कहते हैं। मशहूर गोल्फर टाइगर वुड्स अपनी शानदार पुटिंग के विश्व विख्यात हैं।



8-अगर किसी होल के लिए 4 शॉट निर्धारित होता है तो गोल्फर प्रयास करता है कि ज्यादा से ज्यादा दो प्रयास में गेंद को ग्रीन एरिया में पहुंचा दिया जाए ताकि बर्डी या ईगल जमाने की संभावना बढ़ सके। आप सोचेंगे कि इसके लिए गोल्फर दो प्रयास या शॉट लेने की कोशिश क्यों करता है क्यों न एक ही ऐसा शॉट खेलने की कोशिश करे जिससे गेंद टी से ग्रीन एरिया में पहुंच जाए। गोल्फर ऐसा इसलिए नहीं करते हैं ताकि गेंद किसी बंकर या पानी वाले हिस्से में न चली जाए। किसी गोल्फ कोर्स में बंकर या पानी वाला हिस्सा व्यवधआन के लिए जानबूझ कर डाला जाता है ताकि गोल्फर की गुणवत्ता की असल परीक्षा हो सके। बंकर या पानी में वाले हिस्से में गेंद जाने से कभी-कभी ऐसी स्थिति बन जाती है कि वहां से गेंद को निकालना नामुमकिन हो जाता है। इससे गोल्फर या तो डिसक्वालीफाई हो सकता है या तो उसे पेनाल्टी शॉट खेलना पड़ सकता है। अब जबिक हर गोल्फर चाहता है कि कम से कम प्रयास में गेंद को होल तक पहुंचाया जाए ऐसे में कौन पेनाल्टी शॉट लेना चाहेगा।


गोल्फ को अच्छी तरह से जानने के लिए ऊपर लिखी सामग्री काफी कम है लेकिन इतनी जानकारी के साथ गोल्फ देखने की शुरुआत की जा सकती है और बाकी बातें धीरे-धीरे अपने आप समझ में आने लगेगी। चलते-चलते मैं आपको गोल्फ के 19वें होल के बारे में बता दूं। वैसे तो हकीकत में कोई 19वां होल नहीं होता है लेकिन गोल्फर इस इस शब्द का इस्तेमाल गोल्फ कोर्स के पास मौजूद बीयर-बार के लिए करते हैं।

Thursday, April 3, 2008

पहले भी सस्ते में ढेर हुई है टीम इंडिया

दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आज अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम में भारतीय पारी सिर्फ 76 रन के स्कोर पर ढेर हो गई लेकिन पिछले आंकड़ों पर गौर करे तो यह दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ या किसी अन्य टीम के खिलाफ भारत का अब तक सबसे खराब बल्लेबाजी प्रदर्शन नहीं है।

टेस्ट क्रिकेट में भारत ने अपना न्यूनतम स्कोर इंग्लैंड के खिलाफ 1974 में ला‌र्ड्स मैदान पर बनाया था। तब अजीत वाडेकर की कप्तानी में खेली टीम इंडिया अपनी दूसरी पारी में सिर्फ 42 रन पर लुढ़क गई थी। गौरतलब है कि उस भारतीय टीम में सुनील गावस्कर और गुंडप्पा विश्वनाथ जैसे बल्लेबाज थे। इंग्लैंड यह मैच एक पारी और 285 रनों से जीतने में सफल रहा था। जहां तक दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ भारत के सबसे कम योग का सवाल है तो वर्ष 1996 में सचिन तेंदुलकर की कप्तानी में भारतीय टीम अपनी दूसरी पारी में सिर्फ 66 रन पर आउट हो गई थी। भारत ने यह मैच 328 रनों से गंवाया। भारत में भारत का न्यूनतम स्कोर 75 रन है जो उसने वेस्टइंडीज के खिलाफ 1987 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान पर बनाया था।

टेस्ट क्रिकेट में भारत का न्यूनतम स्कोर
स्कोर ओवर पारी विरुद्ध मैदान वर्ष
42 17 तीसरी इंग्लैंड लॉ‌र्ड्स 1974
58 21.3 दूसरी आस्ट्रेलिया ब्रिसबेन 1947
58 21.4 दूसरी इंग्लैंड मैनचेस्टर 1952
66 34.1 चौथी दक्षिण अफ्रीका डरबन 1996
67 24.2 तीसरी आस्ट्रेलिया मेलबर्न 1948
75 30.5 पहली वेस्टइंडीज दिल्ली 1987
76 20 पहली दक्षिण अफ्रीका अहमदाबाद 2008
यह आलेख मैंने अपने संस्थान की वेबसाइट जागरण.कॉम के लिए लिखा था सोचा इसे अपने ब्लॉग पर भी डाल दूँ.

Wednesday, April 2, 2008

अपनी ही डाल को काट रहे हैं आडवाणी

भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा माई कंट्री माई लाइफ इन दिनों मीडिया में खूब सुर्खियां बटोर रही है। आडवाणी खुद ही अलग-अलग समाचार चैनलों को साक्षात्कार देकर इसे प्रचारित व प्रसारित करने में जुटे हैं। इन साक्षात्कारों में आडवाणी ने किताब व खुद के बारे में जो बातें कही हैं वह उनके लिए कितना फायदेमंद या नुकसानदायक है उसी का विश्लेषण कर रहे हैं गिरीश निकम। उनका यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में है जिसका हिंदी अनुवाद उनकी अनुमति के साथ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

गिरीश निकम की कलम से

दो सप्ताह पहले मैंने अपने आलेख में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की इस बात पर तारीफ की थी कि उन्होंने अपने कैरियर के इस पड़ाव पर भी आत्मकथा लिखकर बाकी नेताओं के लिए प्रेरणादायी काम किया है। अब जबकि उस किताब के ज्यादा से ज्यादा तथ्य सामने आ रहे हैं और जिस तरह संघ परिवार का यह वयोवृद्ध नेता उसके प्रचार के लिए मीडिया में लगातार साक्षात्कार दे रहा है उससे उनकी ही पार्टी के सहयोगी उनसे कन्नी काटने लगे हैं। इनमें से ही एक नेता आश्चर्य कर रहा था कि प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार माने जाने वाले को ऐसी हरकतों से क्या लाभ मिलेगा, वहीं कांग्रस का एक वरिष्ठ नेता इस बात से बहुत खुश था कि इससे उन्हें आडवाणी को किनारे करने में मदद मिलेगी।

आडवाणी इन साक्षात्कारों के दौरान जैसा मूड दिखा रहे हैं वैसा तो उन्होंने अपनी किताब में भी नहीं दिखाया है और यह उनकी छवि के लिए किताब में लिखे तथ्यों से भी ज्यादा नुकसानदायक है। करण थापड़ के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कांग्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ अपने खराब राजनैतिक संबंधों का जिक्र किया और यह भी कहा कि इस खाई को पाटना बेदह मुश्किल है। लेकिन इस साक्षात्कार के कुछ ही देर बाद वह अपनी पत्नी के साथ सोनिया के घर 10 जनपथ पर उन्हें किताब की एक प्रति भेंट करने चले गए। इससे न तो कांग्रेस अध्यक्ष के साथ उनके संबंधों पर जमी बर्फ को पिघलाने में मदद मिली और न ही किसी ने ऐसा कदम उठाने पर उनकी वाहवाही की। इससे उन्हें अपनी ही पार्टी के सदस्यों से शर्मिंदगी झेलनी पड़ी और साथ ही कांग्रेसियों की आलोचना भी।

वहीं शेखर गुप्ता के साथ वाक द टॉक में उन्होंने यह दावा किया कि उन्हें इस बात का भान नहीं था कि 1999 में जसवंत सिंह विमान अपहर्ताओं की मांग पर आतंकवादियों को छोड़ने कांधार जा रहे हैं। उनके इस दावे को राजग सरकार के दौरान मंत्रीमंडल में उनके सहयोगी और तत्कालीन रक्षा मत्री जार्ज फर्नांडीस ने ही खारिज कर दिया। उन्होंने कहा वरिष्ठ मंत्रियों की जिस बैठक में जसवंत सिंह को आतंकवादियों के साथ कंघार भेजे जाने का फैसला किया गया उसमें आडवाणी भी मौजूद थे। फर्नांडीस और आडवाणी दोनों ही अपने जीवन के अस्सी बसंत देख चुके हैं और इस उम्र में याद्दास्त धोखा देती रहती है लेकिन इस मामले में किसकी याद्दास्त दगा दे रही है यह बहस का मुद्दा बन चुका है। जसवंत सिंह इस मुद्दे पर अभी भी चुप्पी साधे हुए हैं। इससे भी खराब स्थिति आडवाणी के उस बात पर बनती है जिसमें उन्होंने कहा है कि जसवंत सिंह ने इस मसले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से जरूर मंत्रणा की होगी। आडवाणी का यह वक्तव्य वाजपेयी को भी कटघरे में खड़ा देता है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि आडवाणी इस मसले के उत्तरदायित्व से खुद को दूर रखना चाहते हैं।

इस साक्षात्कार के दूसरे हिस्से में आडवाणी ने एक और विवादास्पद बयान दिया है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से इस्तीफा लेना चाहते थे लेकिन उन्होंने इसका विरोध किया। अब आडवाणी कह रहे हैं कि इन दंगों के बाद वह खुद मोदी के इस्तीफे के पक्ष में थे लेकिन गोवा में हुए राष्ट्रीय अधिवेषण के दौरान इस मसले पर विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण उन्होंने इस पर जोर नहीं दिया। इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि इसके बावजूद उन्होंने गुजराज दंगों को लेकर मोदी को क्लीन चिट दे दिया। रोचक बात यह है कि यह क्लीन चिट उसी दिन आया जिस दिन समाचार पत्रों में इंदौर में प्रतिबंधित संगठन सिमी के नोताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद पूछताछ के दौरान उनकी योजनाओं के खुलासे से जुड़ी खबरें छपीं थीं। पूछताछ के दौरान यह बात सामने आई कि ये लोग मोदी और आडवाणी की हत्या की साजिश रच रहे थे क्योंकि ये बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के पीछे इन्हीं नेताओं का हाथ मानते हैं। अब मोदी को क्लीन चिट देने से आडवाणी के खिलाफ इन युवाओं के मत को और बल मिलेगा।

सिमी के इन सदस्यों ने पूछताछ के दौरान बताया कि धीमी न्याय प्रक्रिया और और आजाद भारत के इतिहास की दो सबसे कलंकित घटनाओं बाबरी मस्जिद विध्वंस व गुजरात मामले में गठित समितियों के कार्य की प्रगति के अभाव ने उन्हें इन दोनों नेताओं की हत्या करने के लिए प्रेरित किया। हालांकि इससे सिमी नेताओं की योजना को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन मोदी को अंधा सर्मथन देकर आडवाणी अपना भला नहीं कर सकते। उस हालात में तो बिल्कुल ही नहीं जब वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। यही नहीं इसके बाद दिए एक साक्षात्कार में आडवाणी ने जो किया उसे उनकी पार्टी बिल्कुल सही नहीं मानती। उन्होंने इस साक्षात्कार में मोदी को अपनी उत्तराधिकारी भी नियुक्त कर दिया। यह संघ परिवार के सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत के बिल्कुल उलट है जिस आधार पर वह हमेशा कांग्रेस की आलोचना करता आया है साथ उनके इस कदम ने भाजपा की भावी पीढ़ी के कई नेताओं का भी मूड खराब कर दिया है।

अब आडवाणी जितना बोल रहे हैं वह उतना ही खुद को शर्मिंदगी की स्थिति में पहुंचा रहे हैं क्योंकि इससे वह अपने ही बनाए जाल में उलझते हुए नजर आ रहे हैं। अब जब उनकी पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर चुकी है ऐसे में उनका यह बयान कि वह राजनीति से संन्यास लेने वाले थे भी कुछ अजीब लगता है। एक ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसे आने वाले कठिन चुनाव में अपनी पार्टी सहित राजग का भी नेतृत्व करना है इस तरह का बयान देना कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ने वाला होगा। समय के तकाजे को भी अगर पहचानने की कोशिश करें तो आडवाणी द्वारा किताब के प्रचार के लिए इस तरह के साक्षात्कार देने से उनके लिए नित नई मुसीबतें खड़ी होंगी और इससे न तो उन्हें न उनकी पार्टी को और न ही राजग को मदद मिलेगी।

यह किताब इतिहासकारों और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए फायदेमंद हो सकती है हालांकि उन्हें भी इसमें हकीकत और फसानों में बारीक छटनी करनी होगी। लेकिन भाजपा नेताओं के मन में यह बात बैठती जा रही है कि इससे पार्टी का भला नहीं होना वाला है। एक कांग्रेस नेता का कहना है कि आत्मकथा के जरिए आडवाणी ने बिना सच्चाई के खुद को महिमामंडित करने और वाजपेयी को नीचा दिखाने का प्रयास किया है। उन्होंने कहा यहां तक कि महात्मा गांधी ने भी १९२२ के बाद अपनी आत्मकथा को आगे बढ़ाना बंद कर दिया था क्योंकि उन्हें यह आभास था कि रोजमर्रा की राजनीति में हर सच्चाई को बयान करना बेहद मुश्किल है। इसका मतलब यही है कि आडवाणी ने वह हिम्मत दिखाई जो महात्मा गांधी भी नहीं दिखा सके लेकिन आडवाणी की आत्मकथा पर आई प्रतिक्रियाओं और प्रतिध्वनी के आधार पर कहा जा सकता है कि गांधी ज्यादा विवेकपूर्ण थे।

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