20 अक्टूबर को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने अप्रैल 2010 से मार्च 2014 तक के लिए भारत में होने वाले अंतरराष्ट्रीय और घरेलू मैचों (विश्व कप 2011, आईपीएल और चैम्पियंस लीग शामिल नहीं) के टेलिविजन प्रसारण अधिकार निम्बस के चैनल नियो क्रिकेट को 2000 करोड़ रुपये में बेचे। पिछली बार इसी निम्बस ने इसी बीसीसीआई के साथ यही करार 2700 करोड़ रुपये से ज्यादा में किए थे। तो आखिर क्या बात है कि क्रिकेट मार्केटिंग में दुनिया को नए तरीके सिखाने वाली बीसीसीआई की मार्केटिंग कमेटी ने इस बार इतना बड़ा घाटा सहा। इसी कमेटी ने चैम्पियंस लीग टी 20 टूर्नामेंट के अगले 10 साल के प्रसारण अधिकार 4500 करोड़ से भी अधिक में बेचे। भले ही यह 10 साल का करार है लेकिन चैम्पियंस लीग साल में 15-20 दिन ही होंगे।
इसका सीधा मतलब तो यही निकलता है कि भारतीय क्रिकेट के कर्ताधर्ताओं ने यह मान लिया है कि टेस्ट और वनडे क्रिकेट पहले ही तरह बिकाऊ नहीं है। लेकिन क्या वाकई ऐसा है। इसी बीसीसीआई का कहना है कि वह भारत-आस्ट्रेलिया वनडे सीरीज के हर मैच से जितनी कमाई करेगा उतना पैसा उसे आईसीसी पूरे 2011 विश्व कप के लिए नहीं देगी। वनडे तो अब भी बिकाऊ हैं। खास कर वो वनडे जिसमें भारत हिस्सा ले रहा हो। टैम के आंकड़ें गवाह है कि दक्षिण अफ्रीका में हुए चैम्पियंस ट्रॉफी के उन मैचों को जिनमें भारत खेला चैम्पियंस लीग के मैचों से अधिक टीवी दर्शक मिले। मेरे पास तो बोर्ड की मार्केटिंग कमेटी के किसी सदस्य का नम्बर नहीं है लेकिन जिनके पास है क्या वो उनसे पूछ के बताएंगे कि हमारे बोर्ड ने इतना बड़ा घाटा क्यों सहा।
Friday, October 23, 2009
Saturday, August 29, 2009
टेस्ट चैम्पियनशिप का आयोजन इतना आसान नहीं
वेस्टइण्डीज क्रिकेट बोर्ड (डब्ल्यूआईसीबी) के अध्यक्ष जुलियन हंट ने खुलासा किया कि बीसीसीआई ने आईसीसी द्वारा प्रस्तावित टेस्ट चैम्पियनशिप की योजना को ठुकरा दिया था। हंट का कहना है आईसीसी ने मौजूदा समय में काम में आ रहे भविष्य दौरा कार्यक्रम के स्थान पर चार साल तक चलने वाली टेस्ट चैम्पियनशिप शुरू करने की योजना बनाई थी लेकिन यह बीसीसीआई के इनकार के कारण खटाई में पड़ गया। बीसीसीआई ने जिस किसी भी कारण से इस चैम्पियनशिप के लिए मना किया हो सच्चाई यही है कि अभी इस तरह की कोई चैम्पियनशिप शुरू नहीं की जा सकती और शुरू हुई भी तो सफल नहीं होगी।
इसके पीछे कई कारण है। पहला तो यह कि 10 टेस्ट टीमों के बीच कोई ऐसी चैम्पियनशिप के लिए चार वर्ष में सभी टीमों को इस एक-दूसरे के खिलाफ अपने देश में और सामने वाली टीम के देश में बराबर बराबर मैच खेलने होंगे। ऐसी स्थिति में भारत को बांग्लादेश के खिलाफ भी उतने ही टेस्ट मैच खेलने होंगे जितना वह आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेले। इस स्थिति में आस्ट्रेलिया और इंग्लैण्ड के बीच हर दो साल में होने वाली एशेज सीरीज में भी पांच मैच खेले जाने की गुंजाइश नहीं बचेगी। क्योंकि टेस्ट चैम्पियनशिप में सभी टीमों को एक दूसरे के खिलाफ बराबर मैच खेलने होंगे और ऐसे में हर टीम किसी दूसरी टीम के साथ चार साल के अंदर पांच मैच घर में और पांच मैच सामने वाली टीम के घर में नहीं खेल सकती। ऐसा हुआ तो एक टीम को चाल साल में कुल 90 मैच खेलने होंगे। यानी एक साल में 22-23 मैच। यह नामुमकिन है। अगर दो-तीन टेस्ट मैचों की सीरीज रखी गई तब तो यह और भी बुरा होगा। इस हालात में ऐशेज और आस्ट्रेलिया-बांग्लादेश सीरीज में क्या अंतर रह जाएगा। सबसे बड़ी बात बांग्लादेश जैसी कमजोर टीम अगर चार साल में इतने टेस्ट मैच खेलेगी तो इसे देखेगा कौन? इस प्रारूप से टेस्ट लोकप्रिय होने के बजाय और भी अलोकप्रिय हो जाएगा।
इससे बचने के लिए टीयर सिस्टम की वकालत की जा रही है। टीयर एक में चोटी की छह टीमें और टीयर दो में चार अन्य। हर चार साल में टीयर एक की फिसड्डी टीम दूसरे टीयर में और दूसरे टीयर की अव्वल टीम टीयर एक में आएगी।
देखने-सुनने में यह अच्छा लगता है लेकिन क्या प्रायोगिक स्तर पर यह मुमकिन है? मान लीजिए कि किसी चैम्पियनशिप में भारत टीयर एक में आखिरी स्थान पर रहता है तो क्या वह इसके बाद अगले चार साल तक फिसड्डी टीमों के खिलाफ खेलता रहे। यही स्थिति किसी भी अच्छी टीम के साथ हो सकती है क्योंकि छह में से कोई न कोई तो आखिरी स्थान पर रहेगा। मान लीजिए कि कभी आस्ट्रेलिया या इंग्लैण्ड दो टीयर में बंट जाएं। तो क्या अगले चार साल एशेज सीरीज ही न हो? अगर टीयर सिस्टम से रेलीगेशन का सिस्टम हटा भी दें तब भी यह कामयाब नहीं होगा। निचले टीयर वाली टीमें हमेशा यह दावा करेगी कि अब उसका स्तर सुधर गया है और वह शीर्ष टीमों को टक्कर दे सकती है।
टेस्ट चैम्पियनशिप वनडे या ट्वंटी 20 विश्व कप की तरह किसी एक देश में एक बार में नहीं निबटाया जा सकता। इसके लिए काफी लम्बे समय की आवश्यकता होगी और लोग लगातार इतना टेस्ट क्रिकेट देख-झेल नहीं सकते।
इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि टेस्ट क्रिकेट की खूबसूरती द्विपक्षीय शृंखलाओं और परंपरागत प्रतिद्वंद्विता में ही बसी है। इसमें छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता। एशेज सीरीज, भारत-पाकिस्तान सीरीज, फ्रैंक वारेल सीरीज, बॉर्डर गावस्कर सीरीज से ही टेस्ट क्रिकेट का भला होगा। इन सीरीजों को लोकप्रिय बनाने की, इनके बेहतर प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है। जो टीमें कमजोर हो रही हैं उसे फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की जाए। दर्शकों को मैदान तक लाने के लिए योजनाएं बनाई जाएं। जिस तरह एशेज शृंखला 100 साल से भी ज्यादा समय से नियमित अंतराल पर खेली जा रही है उसी तरह अन्य शृंखलाएं भी नियमित अंतराल पर हो ताकि उसके आयोजन से पहले अपने आप माहौल बने। भारत और पाकिस्तान या भारत और श्रीलंका आपस में कभी-कभी लगातार खेलते रहते हैं तो कभी लम्बे समय तक इनके बीच मैच ही नहीं होता। इस स्थिति को सुधारने की जरूरत है।
इसके पीछे कई कारण है। पहला तो यह कि 10 टेस्ट टीमों के बीच कोई ऐसी चैम्पियनशिप के लिए चार वर्ष में सभी टीमों को इस एक-दूसरे के खिलाफ अपने देश में और सामने वाली टीम के देश में बराबर बराबर मैच खेलने होंगे। ऐसी स्थिति में भारत को बांग्लादेश के खिलाफ भी उतने ही टेस्ट मैच खेलने होंगे जितना वह आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेले। इस स्थिति में आस्ट्रेलिया और इंग्लैण्ड के बीच हर दो साल में होने वाली एशेज सीरीज में भी पांच मैच खेले जाने की गुंजाइश नहीं बचेगी। क्योंकि टेस्ट चैम्पियनशिप में सभी टीमों को एक दूसरे के खिलाफ बराबर मैच खेलने होंगे और ऐसे में हर टीम किसी दूसरी टीम के साथ चार साल के अंदर पांच मैच घर में और पांच मैच सामने वाली टीम के घर में नहीं खेल सकती। ऐसा हुआ तो एक टीम को चाल साल में कुल 90 मैच खेलने होंगे। यानी एक साल में 22-23 मैच। यह नामुमकिन है। अगर दो-तीन टेस्ट मैचों की सीरीज रखी गई तब तो यह और भी बुरा होगा। इस हालात में ऐशेज और आस्ट्रेलिया-बांग्लादेश सीरीज में क्या अंतर रह जाएगा। सबसे बड़ी बात बांग्लादेश जैसी कमजोर टीम अगर चार साल में इतने टेस्ट मैच खेलेगी तो इसे देखेगा कौन? इस प्रारूप से टेस्ट लोकप्रिय होने के बजाय और भी अलोकप्रिय हो जाएगा।
इससे बचने के लिए टीयर सिस्टम की वकालत की जा रही है। टीयर एक में चोटी की छह टीमें और टीयर दो में चार अन्य। हर चार साल में टीयर एक की फिसड्डी टीम दूसरे टीयर में और दूसरे टीयर की अव्वल टीम टीयर एक में आएगी।
देखने-सुनने में यह अच्छा लगता है लेकिन क्या प्रायोगिक स्तर पर यह मुमकिन है? मान लीजिए कि किसी चैम्पियनशिप में भारत टीयर एक में आखिरी स्थान पर रहता है तो क्या वह इसके बाद अगले चार साल तक फिसड्डी टीमों के खिलाफ खेलता रहे। यही स्थिति किसी भी अच्छी टीम के साथ हो सकती है क्योंकि छह में से कोई न कोई तो आखिरी स्थान पर रहेगा। मान लीजिए कि कभी आस्ट्रेलिया या इंग्लैण्ड दो टीयर में बंट जाएं। तो क्या अगले चार साल एशेज सीरीज ही न हो? अगर टीयर सिस्टम से रेलीगेशन का सिस्टम हटा भी दें तब भी यह कामयाब नहीं होगा। निचले टीयर वाली टीमें हमेशा यह दावा करेगी कि अब उसका स्तर सुधर गया है और वह शीर्ष टीमों को टक्कर दे सकती है।
टेस्ट चैम्पियनशिप वनडे या ट्वंटी 20 विश्व कप की तरह किसी एक देश में एक बार में नहीं निबटाया जा सकता। इसके लिए काफी लम्बे समय की आवश्यकता होगी और लोग लगातार इतना टेस्ट क्रिकेट देख-झेल नहीं सकते।
इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि टेस्ट क्रिकेट की खूबसूरती द्विपक्षीय शृंखलाओं और परंपरागत प्रतिद्वंद्विता में ही बसी है। इसमें छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता। एशेज सीरीज, भारत-पाकिस्तान सीरीज, फ्रैंक वारेल सीरीज, बॉर्डर गावस्कर सीरीज से ही टेस्ट क्रिकेट का भला होगा। इन सीरीजों को लोकप्रिय बनाने की, इनके बेहतर प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है। जो टीमें कमजोर हो रही हैं उसे फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की जाए। दर्शकों को मैदान तक लाने के लिए योजनाएं बनाई जाएं। जिस तरह एशेज शृंखला 100 साल से भी ज्यादा समय से नियमित अंतराल पर खेली जा रही है उसी तरह अन्य शृंखलाएं भी नियमित अंतराल पर हो ताकि उसके आयोजन से पहले अपने आप माहौल बने। भारत और पाकिस्तान या भारत और श्रीलंका आपस में कभी-कभी लगातार खेलते रहते हैं तो कभी लम्बे समय तक इनके बीच मैच ही नहीं होता। इस स्थिति को सुधारने की जरूरत है।
Friday, August 28, 2009
आधे फिट नडाल रोक पाएंगे फेडरर को?
आजकल टेनिस का कोई भी ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट हो पुरुष एकल में रोजर फेडरर ही सबसे प्रबल दावेदार होते हैं। सोमवार से शुरू हो रहा अमरीकी ओपन तो इस स्विस स्टार के लिए और भी खास है। करियर के चरम पर पहुंचने के बाद यही एक ऐसा टूर्नामेंट है जिसमें फेडरर अब तक अपराजेय हैं। वर्ष 2004 से वह फ्लसिंग मीडोज के बादशाह हैं। यहां उन्होंने उस समय भी जीत दर्ज की जब उनके सबसे नजदीकी प्रतिद्वंद्वी स्पेनिश खिलाड़ी राफेल नडाल उन्हें दुनिया के अन्य हर कोने में पीट रहे थे। नडाल इस बार भी अपनी चुनौती के साथ मौजूद रहेंगे लेकिन वह हाल ही में चोट से उबरे हैं और उन्हें भी इस टूर्नामेंट से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है।
ब्रिटेन के एंडी मरे, सर्बिया के नोवाक जोकोविच, अर्जेन्टीना के जुआन मार्टन डेल पोट्रो और अमरीका के एंडी रोडिक कुछ ऐसे नाम हैं जो फेडरर के अभियान को थामने का माद्दा रखते हैं लेकिन फेडरर इन दिनों जैसी फॉर्म में हैं उससे तो यही लगता है कि विश्व नंबर एक के लिए 16वां ग्रैंड स्लैम खिताब अब महज दो सप्ताह से कुछ ज्यादा दिन ही दूर है। हां अगर आधे-अधूरे फिट नडाल कहीं स्विस स्टार के सामने आने में सफल रहे तो नजारा बदल सकता है। लेकिन इसके लिए नडाल को फाइनल तक का सफर तय करना पड़ेगा जो मैच प्रैक्टिस के अभाव में इस समय उनके लिए मुश्किल लग रहा है।
ड्रॉ पर नजर दौड़ाएं को फेडरर का सेमीफाइनल तक का सफल बहुत ही आसान दिख रहा है। हालांकि अंतिम 16 के मुकाबले में उन्हें आस्ट्रेलिया के लेटन हेविट और क्वार्टर फाइनल में रूस के निकोल देवीदेंको से खेलना पड़ेगा लेकिन फेडरर अपने बुरे दिनों में भी इन खिलाड़ियों को हराने का माद्दा रखते हैं। अंतिम चार में फेडरर के सामने जोकोविच होंगे। जोकोविच वर्ष 2008 के आस्ट्रेलियन ओपन के सेमीफाइनल सहित फेडरर को कुल चार बार हरा चुके हैं। हालांकि उन्हें आठ मुकाबलों में हार का सामना भी करना पड़ा है। लेकिन खास बात यह है कि इन दोनों के बीच हुए पिछले आठ मुकाबलों में दोनों को चार-चार जीत मिली है।
वहीं फाइनल में एंडी मरे या नडाल जो भी पहुंचे आंकड़ों के लिहाज से अब तक फेडरर पर भारी साबित हुए हैं। नडाल ने फेडरर के खिलाफ 20 में से 13 मैचों में जीत दर्ज की है तो मरे ने नौ मुकाबलों में छह बार फेडरर को मात दी है। लेकिन यह अमरीकी ओपन है और यहां फेडरर किसी भी आंकड़े को झुठला सकते हैं।
ब्रिटेन के एंडी मरे, सर्बिया के नोवाक जोकोविच, अर्जेन्टीना के जुआन मार्टन डेल पोट्रो और अमरीका के एंडी रोडिक कुछ ऐसे नाम हैं जो फेडरर के अभियान को थामने का माद्दा रखते हैं लेकिन फेडरर इन दिनों जैसी फॉर्म में हैं उससे तो यही लगता है कि विश्व नंबर एक के लिए 16वां ग्रैंड स्लैम खिताब अब महज दो सप्ताह से कुछ ज्यादा दिन ही दूर है। हां अगर आधे-अधूरे फिट नडाल कहीं स्विस स्टार के सामने आने में सफल रहे तो नजारा बदल सकता है। लेकिन इसके लिए नडाल को फाइनल तक का सफर तय करना पड़ेगा जो मैच प्रैक्टिस के अभाव में इस समय उनके लिए मुश्किल लग रहा है।
ड्रॉ पर नजर दौड़ाएं को फेडरर का सेमीफाइनल तक का सफल बहुत ही आसान दिख रहा है। हालांकि अंतिम 16 के मुकाबले में उन्हें आस्ट्रेलिया के लेटन हेविट और क्वार्टर फाइनल में रूस के निकोल देवीदेंको से खेलना पड़ेगा लेकिन फेडरर अपने बुरे दिनों में भी इन खिलाड़ियों को हराने का माद्दा रखते हैं। अंतिम चार में फेडरर के सामने जोकोविच होंगे। जोकोविच वर्ष 2008 के आस्ट्रेलियन ओपन के सेमीफाइनल सहित फेडरर को कुल चार बार हरा चुके हैं। हालांकि उन्हें आठ मुकाबलों में हार का सामना भी करना पड़ा है। लेकिन खास बात यह है कि इन दोनों के बीच हुए पिछले आठ मुकाबलों में दोनों को चार-चार जीत मिली है।
वहीं फाइनल में एंडी मरे या नडाल जो भी पहुंचे आंकड़ों के लिहाज से अब तक फेडरर पर भारी साबित हुए हैं। नडाल ने फेडरर के खिलाफ 20 में से 13 मैचों में जीत दर्ज की है तो मरे ने नौ मुकाबलों में छह बार फेडरर को मात दी है। लेकिन यह अमरीकी ओपन है और यहां फेडरर किसी भी आंकड़े को झुठला सकते हैं।
Wednesday, August 26, 2009
बोल्ट जैसे एथलीट किसी 'सिस्टम' की देन नहीं हैं
वैसे तो ज्यादातर खेलों में उन देशों का परिणाम अच्छा रहता है जहां खेलों के लिए आधारभूत ढ़ाचा बेहतर हो। क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस, हॉकी, बेसबॉल, बैडमिंटन, तैराकी, शतरंज, गोल्फ तमाम ऐसे खेल हैं जो इस कैटगरी में फिट बैठते है। लेकिन एक खेल ऐसा है जो 90 फीसदी खिलाड़ी के स्तर पर निर्भर करता है और 10 प्रतिशत सिस्टम पर। चाहे उस देश का सिस्टम कितना भी मजबूत क्यों न हो अगर खिलाड़ी अच्छे नहीं होंगे तो खास अच्छा परिणाम नहीं मिलेगा। वह खेल है एथलेटिक्स (ट्रैक एंड फील्ड दोनों)। सभी खेलों में यह एक मात्र ऐसा खेल है जिसमें जब-तब नए चैम्पियन सामने नहीं आते। इस खेल में मानव के शारीरिक सामर्थ की जितनी आवश्यकता है किसी अन्य खेल में नहीं। तभी तो माइकल जॉनसन, सर्गेई बुबका या ताजा सनसनी यूसेन बोल्ट रोज-रोज पैदा नहीं होते। तभी तो एथलेटिक्स के कई ऐसे विश्व रिकार्ड हैं जो सालों से नहीं टूटे। और वो तभी टूटेंगे जब उसे बनाने वाले पुराने एथलीट से बेहतर कोई नया एथलीट पैदा हो। ये एथलीट किसी सिस्टम से तैयार नहीं किए जा सकते।
एक नजर उन रिकार्डों पर जो 10 साल से ज्यादा से टूटने की वाट जोह रहे हैं। इनमें से कुछ तो 20 या उससे भी ज्यादा समय से कायम हैं।
- 400 मीटर दौड़ का मौजूदा विश्व रिकार्ड 1999 में माइकल जॉनसन ने बनाया था।
- 800 मीटर दौ़ड़ का मौजूदा विश्व रिकार्ड डेनमार्क के विल्सन किपकेटर ने 1997 में बनाया था।
-1000 मीटर दौड़ का विश्व रिकार्ड केन्या के नोह गेनी ने 1999 में बनाया था।
-मोरक्को के हिचाम अल गुरोज ने 10 साल पहले 1500 मीटर एक मील और 2000 मीटर का विश्व रिकार्ड बनाया था।
-3000 मीटर का विश्व रिकार्ड केन्या के डेनियल कोमेन ने 1996 में बनाया था
-25 किलोमीटर पैदल चाल का विश्व रिकार्ड जापान के तोसीहिको सेको ने 1981 में बनाया था
-400 मीटर बाधा दौड़ का विश्व रिकार्ड अमरीका के केविन यंग ने 1992 में बनाया था
-ऊंची कूद का विश्व रिकार्ड क्यूबा के जेवियर सोटोमायोर ने 1993 में बनाया था
-पोल वाल्ट का विश्व रिकार्ड यूक्रेन के सर्गेई बुबका ने 1994 में बनाया था
-लम्बी कूद का विश्व रिकार्ड अमरीका के माइक पावेल ने 1991 में बनाया था
-ट्रिपल जंप का विश्व रिकार्ड ब्रिटेन के जोनाथन एडवर्ड्स ने 1995 में बनाया था
-गोला फेंक का विश्व रिकार्ड अमरीका के रेंडी बर्नेस ने 1990 में बनाया था
-चक्का फेंक का विश्व रिकार्ड जर्मनी (तत्कालीन पूर्वी जर्मनी) के जर्गेन शल्ट ने 1986 में बनाया था।
-हैमर थ्रो का विश्व रिकार्ड स्लोवेनिया के यूरीव सेदिक ने 1986 में बनाया था
-जेवलिन थ्रो का विश्व रिकार्ड चेक गणराज्य के जान जेलेन्जी ने 1996 में बनाया था
-4 गुणा 400 मीटर रिले का विश्व रिकार्ड अमरीकी टीम ने 1993 में बनाया था
सभी रिकार्ड पुरुष वर्ग के हैं। महिला वर्ग में भी यही हाल है
एक नजर उन रिकार्डों पर जो 10 साल से ज्यादा से टूटने की वाट जोह रहे हैं। इनमें से कुछ तो 20 या उससे भी ज्यादा समय से कायम हैं।
- 400 मीटर दौड़ का मौजूदा विश्व रिकार्ड 1999 में माइकल जॉनसन ने बनाया था।
- 800 मीटर दौ़ड़ का मौजूदा विश्व रिकार्ड डेनमार्क के विल्सन किपकेटर ने 1997 में बनाया था।
-1000 मीटर दौड़ का विश्व रिकार्ड केन्या के नोह गेनी ने 1999 में बनाया था।
-मोरक्को के हिचाम अल गुरोज ने 10 साल पहले 1500 मीटर एक मील और 2000 मीटर का विश्व रिकार्ड बनाया था।
-3000 मीटर का विश्व रिकार्ड केन्या के डेनियल कोमेन ने 1996 में बनाया था
-25 किलोमीटर पैदल चाल का विश्व रिकार्ड जापान के तोसीहिको सेको ने 1981 में बनाया था
-400 मीटर बाधा दौड़ का विश्व रिकार्ड अमरीका के केविन यंग ने 1992 में बनाया था
-ऊंची कूद का विश्व रिकार्ड क्यूबा के जेवियर सोटोमायोर ने 1993 में बनाया था
-पोल वाल्ट का विश्व रिकार्ड यूक्रेन के सर्गेई बुबका ने 1994 में बनाया था
-लम्बी कूद का विश्व रिकार्ड अमरीका के माइक पावेल ने 1991 में बनाया था
-ट्रिपल जंप का विश्व रिकार्ड ब्रिटेन के जोनाथन एडवर्ड्स ने 1995 में बनाया था
-गोला फेंक का विश्व रिकार्ड अमरीका के रेंडी बर्नेस ने 1990 में बनाया था
-चक्का फेंक का विश्व रिकार्ड जर्मनी (तत्कालीन पूर्वी जर्मनी) के जर्गेन शल्ट ने 1986 में बनाया था।
-हैमर थ्रो का विश्व रिकार्ड स्लोवेनिया के यूरीव सेदिक ने 1986 में बनाया था
-जेवलिन थ्रो का विश्व रिकार्ड चेक गणराज्य के जान जेलेन्जी ने 1996 में बनाया था
-4 गुणा 400 मीटर रिले का विश्व रिकार्ड अमरीकी टीम ने 1993 में बनाया था
सभी रिकार्ड पुरुष वर्ग के हैं। महिला वर्ग में भी यही हाल है
Saturday, August 15, 2009
हर तरफ हार ही हार
15 अगस्त की पूर्व संध्या पर सायना नेहवाल से बड़ी उम्मीदें थी। सोच रहा था कि भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी दूसरी वरीयता प्राप्त चीनी खिलाड़ी लिन वांग से क्वार्टर फाइनल मैच जीत जाएगी तो पांच-छह कॉलम में सजा-धजा कर इस मैच की लीड खबर बनाऊंगा ताकि स्वतंत्रता दिवस पर जब पाठक खेल का पन्ना देखे तो उनका हर्षोउल्लास दोगुना हो जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इससे पहले मिश्रित युगल में वी दीजू और ज्वाला गुट्टा की जोड़ी भी हार कर टूनार्मेंट से बाहर हो चुकी थी। इस तरह हैदराबाद में चल रही विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में भारत की चुनौती समाप्त हो गई और इसके साथ ही इस टूर्नामेंट से स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर किसी सकारात्मक खबर मिलने की उम्मीद भी।
इसके बाद सोचा किसी और खेल में कोई अच्छी खबर हाथ लग जाए ताकि आजादी का जश्न मनाने वाले अपने पाठकों की खुशी में इजाफा कर सकूं। लेकिन बाकी खेलों में भी निराशाजनक परिणाम ही हाथ लगे। शतरंज में तानिया सचदेव बांग्लादेशी खिलाड़ी से हार गईं तो टेनिस में प्रकाश अमृतराज एकल से बाहर हो गए। हालांकि प्रकाश .युगल में जीते। वह भी पाकिस्तान के ऐसाम उल हक कुरैशी के साथ। लेकिन आजादी के पावन मौके पर भारत-पाक संयुक्त कामयाबी की खबर का कनसेप्ट कुछ लगों को कुछ जमा नहीं। वैसे भी प्रकाश की जोड़ी सेमीफाइनल में ही पहुंची कोई खिताब थोड़े ही जीत लिया था (वैसे सायना भी जीतती तो सेमीफाइनल में ही पहुंचती)। गोल्फ के मैदान से भी अच्छी खबर नहीं आई। भारतीय गोल्फर जीव मिल्खा सिंह निराशाजनक प्रदर्शन के साथ संयुक्त 67वें स्थान पर ही रहे। टेबल टेनिस में भी भारतीय टीम की हार की खबर थी।
मन बड़ा दुखी हुआ कि आजादी दिवस पर भारतीयों की हार की खबरों से परिपूर्ण पन्ना देखकर हमारे पाठकों पर क्या बीतेगी। शिक्षा भी ऐसी ही मिली है कि ऐसे दिनों पर सकारात्मक खबरों को तरजीह दो। लेकिन कोई सकारात्मक खबर हो तब न।
काम खत्म करने के बाद बुझे मन के साथ घर लौटा और इस बात पर बार-बार कोफ्त होता रहा कि एक भी सुखद खबर नहीं लगा पाया। घर पर अपने 15 वर्षीय साले (ब्रदर इन लॉ) को यह बात बताई। नींद से परेशान साले ने बात को आगे न बढ़ाने के मूड में एक बात कही कि इन खेलों में हम जीतते ही कब थे जो आज जीत जाते। यह कह कर वह तो सो गया लेकिन उसकी बात बहुत हद तक सच्ची भी है। इन खेलों क्या कुल मिलाकर सभी खेलों में हम जीतते ही कब थे जो आज जीत जाते। इक्का-दुक्का जीत कुछ इक्का दुक्का खेलों में मिलती रही है लेकिन अपने यहां तो खेल के मैदान में सफलता इस कदर कम है कि कांस्य विजेता (तीसरा स्थान पाने वाले) भी हीरो से कम नहीं। और जब तक ये कांस्य विजेता नहीं थे तब तक चौथा स्थान हासिल करने वाले भी हीरो थे। कृप्या मुझे यह याद न दिलाएं कि एक स्वर्ण भी मिला था। लेकिन हम खेल में तब कामयाब होंगे जब हमारे पास इतने स्वर्ण विजेता हों कि कईयों के नाम याद न आए। वाकई खेलों की दुनिया में अभिनव है भारत। बिना मजबूत तर्क और वजह के आश्चर्यजनक रूप से नाकामयाब।
इसके बाद सोचा किसी और खेल में कोई अच्छी खबर हाथ लग जाए ताकि आजादी का जश्न मनाने वाले अपने पाठकों की खुशी में इजाफा कर सकूं। लेकिन बाकी खेलों में भी निराशाजनक परिणाम ही हाथ लगे। शतरंज में तानिया सचदेव बांग्लादेशी खिलाड़ी से हार गईं तो टेनिस में प्रकाश अमृतराज एकल से बाहर हो गए। हालांकि प्रकाश .युगल में जीते। वह भी पाकिस्तान के ऐसाम उल हक कुरैशी के साथ। लेकिन आजादी के पावन मौके पर भारत-पाक संयुक्त कामयाबी की खबर का कनसेप्ट कुछ लगों को कुछ जमा नहीं। वैसे भी प्रकाश की जोड़ी सेमीफाइनल में ही पहुंची कोई खिताब थोड़े ही जीत लिया था (वैसे सायना भी जीतती तो सेमीफाइनल में ही पहुंचती)। गोल्फ के मैदान से भी अच्छी खबर नहीं आई। भारतीय गोल्फर जीव मिल्खा सिंह निराशाजनक प्रदर्शन के साथ संयुक्त 67वें स्थान पर ही रहे। टेबल टेनिस में भी भारतीय टीम की हार की खबर थी।
मन बड़ा दुखी हुआ कि आजादी दिवस पर भारतीयों की हार की खबरों से परिपूर्ण पन्ना देखकर हमारे पाठकों पर क्या बीतेगी। शिक्षा भी ऐसी ही मिली है कि ऐसे दिनों पर सकारात्मक खबरों को तरजीह दो। लेकिन कोई सकारात्मक खबर हो तब न।
काम खत्म करने के बाद बुझे मन के साथ घर लौटा और इस बात पर बार-बार कोफ्त होता रहा कि एक भी सुखद खबर नहीं लगा पाया। घर पर अपने 15 वर्षीय साले (ब्रदर इन लॉ) को यह बात बताई। नींद से परेशान साले ने बात को आगे न बढ़ाने के मूड में एक बात कही कि इन खेलों में हम जीतते ही कब थे जो आज जीत जाते। यह कह कर वह तो सो गया लेकिन उसकी बात बहुत हद तक सच्ची भी है। इन खेलों क्या कुल मिलाकर सभी खेलों में हम जीतते ही कब थे जो आज जीत जाते। इक्का-दुक्का जीत कुछ इक्का दुक्का खेलों में मिलती रही है लेकिन अपने यहां तो खेल के मैदान में सफलता इस कदर कम है कि कांस्य विजेता (तीसरा स्थान पाने वाले) भी हीरो से कम नहीं। और जब तक ये कांस्य विजेता नहीं थे तब तक चौथा स्थान हासिल करने वाले भी हीरो थे। कृप्या मुझे यह याद न दिलाएं कि एक स्वर्ण भी मिला था। लेकिन हम खेल में तब कामयाब होंगे जब हमारे पास इतने स्वर्ण विजेता हों कि कईयों के नाम याद न आए। वाकई खेलों की दुनिया में अभिनव है भारत। बिना मजबूत तर्क और वजह के आश्चर्यजनक रूप से नाकामयाब।
Saturday, July 18, 2009
सचिन अगर आस्ट्रेलियाई होते तो टेस्ट में अब तक 55 शतक जमा चुके होते
पोंटिंग ने इंग्लैण्ड के खिलाफ वर्तमान एशेज सीरीज के पहले टेस्ट मैच में शतक जमाकर अपने शतकों की संख्या 38 तक पहुंचा दी है। क्रिकेटिया हलकों में इस बात पर बहस भी छिड़ गई है कि कहीं पोंटिंग सचिन तेंदुलकर से भी महान बल्लेबाज तो नहीं। मैं ऐसा नहीं मानता। क्योंकि सिर्फ आंकड़े किसी बल्लेबाज के महानता की असली तस्वीर बयां नहीं करते। लेकिन अगर आंकड़ेबाजी पर ही चलें तो मैं यहां कुछ ऐसे आंकड़े दे रहा हूं जो वास्तविक तो मुमकिन नहीं हो सकते है लेकिन इन पर विचार कर सचिन और पोंटिंग के बीच के अंतर को समझा जा सकता है। सिर्फ इतना सोचें कि अगर सचिन एक आस्ट्रेलियाई क्रिकेट होते और पोंटिंग भारतीय तो दोनों का रिकार्ड कैसा रहता। तब सचिन पोंटिंग से इतने आगे होते कि उनके रिकार्ड को चुनौती मिलना असंभव होता। इस विश्लेषण में मैंने दोनों खिलाड़ियों की काबिलियत का आंकलन नहीं किया है। बस देश बदलने की स्थिति में मिले मौकों के आधार पर कौन कहां खड़ा होता यह जानने की कोशिश की है।
स्थित एक-सचिन अगर आस्ट्रेलियाई होते
सचिन के पहले टेस्ट मैच के बाद से
आज तक भारत के कुल टेस्ट मैच- 173
इतने दिनों में सचिन के कुल टेस्ट मैच- 159
सचिन की प्रतिशत अनुपस्थिति- 8.09
इसी दरम्यान आस्ट्रेलिया के कुल टेस्ट- 226
अगर सचिन आस्ट्रेलियाई होते तो
8.09 प्रतिशत अनुपस्थिति दर के हिसाब
से उनके कुल टेस्ट मैचों की संख्या होती- 207
सचिन ने भारत के लिए 159 टेस्ट मैचों में
261 पारी खेली है यानी प्रति टेस्ट उनके
पारियों की संख्या हुई- 1.64
इस हिसाब से सचिन अगर आस्ट्रेलियाई
होते तो उनके पारियों की संख्या होती- 339
भारत के लिए खेली 261 पारियों में सचिन
27 बार नाबाद रहे हैं। यानी प्रति पारी उनके
नाबाद रहने की दर है- 0.10
इस लिहाज से 339 पारियों में वह नाबाद रहते - 34
सचिन ने भारत के लिए 261 पारियों में 27 बार
नाबाद रहते हुए 54.59 की औसत से 12773 रन
बनाए हैं। इस लिहाज अगर वह आस्ट्रेलियाई रहते
तो 339 पारियों में 34 बार नाबाद रहते हुए
54.59 की औसत से रन बनाते - 16649
सचिन ने 261 पारियों में 42 शतक बनाए हैं।
यानी हर 6.21 पारी में एक शतक इस
लिहाज से अगर वह आस्ट्रेलियाई होते तो
339 पारियों में उनके शतकों की संख्या होती- 55
इसी तरह उनके अद्धर्शतकों की संख्या होती- 69
अब देखते हैं कि पोंटिंग अगर भारतीय होते तो क्या होता
पोंटिंग के पहले टेस्ट मैच से अब तक
आस्ट्रेलिया के कुल टेस्ट मैच- 155
इतने दिनों में पोंटिंग के कुल मैच- 132
पोंटिंग की प्रतिशत अनुपस्थिति- 14.84
इतने दिनों में भारत ने टेस्ट खेले- 135
अगर पोंटिंग भारतीय होते तो अपनी
अनुपस्थिति दर के हिसाब से टेस्ट खेले होते- 115
आस्ट्रेलिया के लिए प्रति टेस्ट पोंटिंग के
पारियों की संख्या हुई- 1.66
तो अगर वह भारतीय होते तो 115 टेस्ट में
उनके पारियों की संख्या हुई होती - 190
आस्ट्रेलिया के लिए वह 222 पारियों में 26
बार नाबाद रहे हैं। इस लिहाज से अगर वह
भारतीय होते तो उनकी नाबाद पारियों की
संख्या होती - 21
आस्ट्रेलिया के लिए पोंटिंग ने 56.68 की
औसत से रन बनाए हैं। अगर वह भारतीय होते
तो उपरोक्त निष्कर्षों के आधार पर इसी औसत
से उनके रन होते - 9578
पोटिंग ने आस्ट्रेलिया के लिए 222 पारियों में
38 शतक लगाए है। अगर वह भारतीय होते तो
इसी दर से 190 पारियों में उनके शतकों की
संख्या होती - 32
इसी तरह उनके अद्धर्शतकों की संख्या होती - 39
तो देखा आपने कि इस स्थित में सचिन कितने आगे पहुंच गए होते। तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारतीय पोंटिंग आस्ट्रेलियाई सचिन का रिकार्ड भी तोड़ पाएगा। लेकिन हमारे भारतीय सचिन ने कम मौकों के बावजूद ऐसे मुकाम तय किए हैं जहां पहुंचने में ज्यादा मौके पाने वाले आस्ट्रेलियाई पोंटिंग को अभी भी बहुत मेहनत करनी होगी।
स्थित एक-सचिन अगर आस्ट्रेलियाई होते
सचिन के पहले टेस्ट मैच के बाद से
आज तक भारत के कुल टेस्ट मैच- 173
इतने दिनों में सचिन के कुल टेस्ट मैच- 159
सचिन की प्रतिशत अनुपस्थिति- 8.09
इसी दरम्यान आस्ट्रेलिया के कुल टेस्ट- 226
अगर सचिन आस्ट्रेलियाई होते तो
8.09 प्रतिशत अनुपस्थिति दर के हिसाब
से उनके कुल टेस्ट मैचों की संख्या होती- 207
सचिन ने भारत के लिए 159 टेस्ट मैचों में
261 पारी खेली है यानी प्रति टेस्ट उनके
पारियों की संख्या हुई- 1.64
इस हिसाब से सचिन अगर आस्ट्रेलियाई
होते तो उनके पारियों की संख्या होती- 339
भारत के लिए खेली 261 पारियों में सचिन
27 बार नाबाद रहे हैं। यानी प्रति पारी उनके
नाबाद रहने की दर है- 0.10
इस लिहाज से 339 पारियों में वह नाबाद रहते - 34
सचिन ने भारत के लिए 261 पारियों में 27 बार
नाबाद रहते हुए 54.59 की औसत से 12773 रन
बनाए हैं। इस लिहाज अगर वह आस्ट्रेलियाई रहते
तो 339 पारियों में 34 बार नाबाद रहते हुए
54.59 की औसत से रन बनाते - 16649
सचिन ने 261 पारियों में 42 शतक बनाए हैं।
यानी हर 6.21 पारी में एक शतक इस
लिहाज से अगर वह आस्ट्रेलियाई होते तो
339 पारियों में उनके शतकों की संख्या होती- 55
इसी तरह उनके अद्धर्शतकों की संख्या होती- 69
अब देखते हैं कि पोंटिंग अगर भारतीय होते तो क्या होता
पोंटिंग के पहले टेस्ट मैच से अब तक
आस्ट्रेलिया के कुल टेस्ट मैच- 155
इतने दिनों में पोंटिंग के कुल मैच- 132
पोंटिंग की प्रतिशत अनुपस्थिति- 14.84
इतने दिनों में भारत ने टेस्ट खेले- 135
अगर पोंटिंग भारतीय होते तो अपनी
अनुपस्थिति दर के हिसाब से टेस्ट खेले होते- 115
आस्ट्रेलिया के लिए प्रति टेस्ट पोंटिंग के
पारियों की संख्या हुई- 1.66
तो अगर वह भारतीय होते तो 115 टेस्ट में
उनके पारियों की संख्या हुई होती - 190
आस्ट्रेलिया के लिए वह 222 पारियों में 26
बार नाबाद रहे हैं। इस लिहाज से अगर वह
भारतीय होते तो उनकी नाबाद पारियों की
संख्या होती - 21
आस्ट्रेलिया के लिए पोंटिंग ने 56.68 की
औसत से रन बनाए हैं। अगर वह भारतीय होते
तो उपरोक्त निष्कर्षों के आधार पर इसी औसत
से उनके रन होते - 9578
पोटिंग ने आस्ट्रेलिया के लिए 222 पारियों में
38 शतक लगाए है। अगर वह भारतीय होते तो
इसी दर से 190 पारियों में उनके शतकों की
संख्या होती - 32
इसी तरह उनके अद्धर्शतकों की संख्या होती - 39
तो देखा आपने कि इस स्थित में सचिन कितने आगे पहुंच गए होते। तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारतीय पोंटिंग आस्ट्रेलियाई सचिन का रिकार्ड भी तोड़ पाएगा। लेकिन हमारे भारतीय सचिन ने कम मौकों के बावजूद ऐसे मुकाम तय किए हैं जहां पहुंचने में ज्यादा मौके पाने वाले आस्ट्रेलियाई पोंटिंग को अभी भी बहुत मेहनत करनी होगी।
Tuesday, June 16, 2009
तो गोलू के बाथरूम जाने से हार गया भारत
भारतीय टीम ट्वंटी 20 विश्व कप से बाहर हुई तो इसके सबसे बड़े कारणों में धोनी की घटिया बल्लेबाजी, फील्डरों के खराब प्रदर्शन के साथ-साथ गोलू का भारतीय पारी के दौरान बाथरूम जाना भी रहा। क्या कहा आपने, ये गोलू कौन है ----, गोलू को नहीं जानते ----। गोलू 12 साल का वह बालक है जो भारतीय पारी के दौरान अगर बाथरूम गया तो विकेट गिरने की संभावना कफी बढ़ जाती है। गोलू खुद तो ऐसा नहीं मानता लेकिन उसके भैया और तमाम दोस्त यही बात कहते हैं।
आप और हम भी शायद उस गोलू की तरह या उसके भैया और दोस्तों के जैसे हैं जो भारत के मैचों के दौरान तमाम किस्म के टोटके करते हैं। कभी-कभी तो इसक खुमार मैच खत्म होने के दो-तीन दिन बाद तक भी रहता है। भारत मैच हारा और अगले दिन परचून की दुकान जाते वक्त पड़ोसी मिल जाता है और कहता क्यों भाई साहब हरवा ही दिया आपने इंडिया को। इस पर जवाब होता है अरे भाई साबह मैंने नहीं गोलू (भोलू, संदीप, रमेश, सुरेश भी हो सकते हैं जिम्मेदार) ने हरवा दिया। युवराज बैटिंग कर रहा था और वह बाथरूम जाने की जिद करने लगा। आप तो जानते ही हैं वह बाथरूम जाता है तो क्या होता है। वह लौटा नहीं कि युवी स्टंप आउठ होकर पैवेलियन लौट चुका था। वह क्रीज पर थोड़ी देर और टिक जाता तो मैच का नक्शा बदल जाता।
आश्चर्य की बात है कि इस तरह के टोटकों में यकीन रखने वाले कोई अनपढ़ या गंवार नहीं होते। वह पत्रकार, बैंकर, आईएएस अफसर से लेकर मल्टीनेशनल कम्पनियों का कोई कर्मचारी भी हो सकता है। जिस पर रौब जमा उससे तो टोटके करवा लिए और नहीं जमा तो मन में सैकड़ों गालियां दे डाली। साला जाता भी नहीं---- पूरा मैच देखेगा और इंडिया की वाट लगा के ही दम लेगा। हालांकि मजा तब आता है जब ऐसे लोग खुद किसी दूसरे के टोटके का पात्र बन जाते हैं। तब इन्हें बड़ा अजीब लगता है। सोचते हैं कि मैं तो मैच जिताऊ प्लेयर हूं कोई बाहरी (आस्ट्रेलियाई ग्रेग चैपल की तरह) मुझे क्या नसीहत देगा। ऐसा लगता है कि धोनी, युवराज, इरफान जहीर की मेहनत तो बस यूं ही है मैच तो यही जिताते हैं तीन घंटे एक ही कुर्सी पर बैठ कर, पेशाब दबा कर, पानी न पीकर या बहुत पानी पी कर। ताज्जुब है।
ऐसा नहीं ये टोटके सिर्फ आम जन ही करते हैं। ये क्रिकेटर भी कम नहीं भाई साहब। कोई बाएं पैर में पहले पैड बांधता है तो कोई लाल रुमाल लेकर क्रीज पर जाता है, कोई ग्लव्स में स्क्वैश की गेंद रखता है तो कोई मैच के दौरान टी-शर्ट बदलता है। कितनी जायज है ये टोटकेबाजी या किसी के ऊपर शुभ-अशुभ का ठप्पा लगा देना।
क्रिकेट मैच तो हल्की-फुल्की बात है लेकिन ये आदत जिन्दगी के गम्भीर क्षणों में भी पीछा नहीं छोड़ती। वो ऑफिस में आया इसलिए मेरी नौकरी गई। सवेरे उसका चेहरा देख लिया तो दिन खराब हो गया। फलां साला है ही मनहूस--- आदि-आदि। ये कोई हंसी-मजाक नहीं। क्या ऐसी सोच को क्रिकेट में जायज और गम्भीर मसलों पर नाजायज है। गलत तो गलत ही है चाहे किसी भी अवसर पर क्यों न हो। आपका क्या कहना है?
आप और हम भी शायद उस गोलू की तरह या उसके भैया और दोस्तों के जैसे हैं जो भारत के मैचों के दौरान तमाम किस्म के टोटके करते हैं। कभी-कभी तो इसक खुमार मैच खत्म होने के दो-तीन दिन बाद तक भी रहता है। भारत मैच हारा और अगले दिन परचून की दुकान जाते वक्त पड़ोसी मिल जाता है और कहता क्यों भाई साहब हरवा ही दिया आपने इंडिया को। इस पर जवाब होता है अरे भाई साबह मैंने नहीं गोलू (भोलू, संदीप, रमेश, सुरेश भी हो सकते हैं जिम्मेदार) ने हरवा दिया। युवराज बैटिंग कर रहा था और वह बाथरूम जाने की जिद करने लगा। आप तो जानते ही हैं वह बाथरूम जाता है तो क्या होता है। वह लौटा नहीं कि युवी स्टंप आउठ होकर पैवेलियन लौट चुका था। वह क्रीज पर थोड़ी देर और टिक जाता तो मैच का नक्शा बदल जाता।
आश्चर्य की बात है कि इस तरह के टोटकों में यकीन रखने वाले कोई अनपढ़ या गंवार नहीं होते। वह पत्रकार, बैंकर, आईएएस अफसर से लेकर मल्टीनेशनल कम्पनियों का कोई कर्मचारी भी हो सकता है। जिस पर रौब जमा उससे तो टोटके करवा लिए और नहीं जमा तो मन में सैकड़ों गालियां दे डाली। साला जाता भी नहीं---- पूरा मैच देखेगा और इंडिया की वाट लगा के ही दम लेगा। हालांकि मजा तब आता है जब ऐसे लोग खुद किसी दूसरे के टोटके का पात्र बन जाते हैं। तब इन्हें बड़ा अजीब लगता है। सोचते हैं कि मैं तो मैच जिताऊ प्लेयर हूं कोई बाहरी (आस्ट्रेलियाई ग्रेग चैपल की तरह) मुझे क्या नसीहत देगा। ऐसा लगता है कि धोनी, युवराज, इरफान जहीर की मेहनत तो बस यूं ही है मैच तो यही जिताते हैं तीन घंटे एक ही कुर्सी पर बैठ कर, पेशाब दबा कर, पानी न पीकर या बहुत पानी पी कर। ताज्जुब है।
ऐसा नहीं ये टोटके सिर्फ आम जन ही करते हैं। ये क्रिकेटर भी कम नहीं भाई साहब। कोई बाएं पैर में पहले पैड बांधता है तो कोई लाल रुमाल लेकर क्रीज पर जाता है, कोई ग्लव्स में स्क्वैश की गेंद रखता है तो कोई मैच के दौरान टी-शर्ट बदलता है। कितनी जायज है ये टोटकेबाजी या किसी के ऊपर शुभ-अशुभ का ठप्पा लगा देना।
क्रिकेट मैच तो हल्की-फुल्की बात है लेकिन ये आदत जिन्दगी के गम्भीर क्षणों में भी पीछा नहीं छोड़ती। वो ऑफिस में आया इसलिए मेरी नौकरी गई। सवेरे उसका चेहरा देख लिया तो दिन खराब हो गया। फलां साला है ही मनहूस--- आदि-आदि। ये कोई हंसी-मजाक नहीं। क्या ऐसी सोच को क्रिकेट में जायज और गम्भीर मसलों पर नाजायज है। गलत तो गलत ही है चाहे किसी भी अवसर पर क्यों न हो। आपका क्या कहना है?
Monday, June 15, 2009
उफ्फ ये क्रिकेट की अनिश्चितताएं
क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है---- इसका इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि मौजूदा ट्वंटी विश्व कप में अब तक एक भी मैच नहीं हारने वाली श्रीलंका की टीम अगर मंगलवार को न्यूजीलैण्ड से एक रन से भी हारती है तो वह टूर्नामेंट से बाहर हो जाएगी।
श्रीलंका ने ग्रुप ऑफ डेथ माने जाने वाले ग्रुप सी में अपने दोनों मैच जीते (आस्ट्रेलिया और वेस्टइण्डीज के खिलाफ)। इसके बाद सुपर एट में ग्रुप एफ में उसने पाकिस्तान और आयरलैण्ड को भी हराया। लेकिन अब स्थितियां ऐसी बन गई कि न्यूजीलैण्ड के खिलाफ होने वाला उसका मैच अचानक ही करो या मरो वाला हो गया।
ग्रुप एफ में पाकिस्तान ने सोमवार को आयरलैण्ड पर बड़ी जीत दर्ज की। इससे पहले वह श्रीलंका से हार गया था जबकि न्यूजीलैण्ड से जीता था। आयरलैण्ड से मैच के बाद पाक टीम का नेट रन रेट 1.185 हो गया जो कि श्रीलंका (0.700) और न्यूजीलैण्ड (0.093) दोनों से बेहतर है। फिलहाल पाकिस्तान और श्रीलंका के सुपर एट में दो-दो जीत से चार अंक हैं जबकि न्यूजीलैण्ड के पास एक जीत (आयरलैण्ड के खिलाफ) से दो अंक हैं।
अभी न्यूजीलैण्ड का नेट रन रेट श्रीलंका से बेहतर है। अगर वह श्रीलंका के खिलाफ मैच जीत जाता है तो ग्रुप एफ से पाकिस्तान, श्रीलंका और आयरलैण्ड तीनों के चार-चार अंक हो जाएंगे। ऐसे में नेट रन रेट से पहली दो टीमों का फैसला होगा और पाकिस्तान और न्यूजीलैण्ड सेमीफाइनल में पहुंच जाएं। बेचारा श्रीलंका जो अब तक चार में चार में से चारों मैच में जीत दर्ज की टूर्नामेंट से बाहर हो जाएगा। मैं नहीं चाहता ऐसा हो क्योंकि प्रदर्शन के लिहाज से श्रीलंकाई टीम ज्यादा डीजर्विंग है लेकिन ट्वंटी 20 में कुछ भी अनुमान लगाना असंभव है।
पिछले ट्वंटी 20 विश्व कप में दक्षिण अफ्रीका के साथ भी ऐसा ही हुआ था जिसने अपने पहले चार मैच जीते लेकिन भारत के खिलाफ एक मैच हारने के बाद वह टूर्नामेंट से बाहर हो गया। वह रन रेट के आधार पर भारत और न्यूजीलैण्ड से पिछड़ गया।
श्रीलंका ने ग्रुप ऑफ डेथ माने जाने वाले ग्रुप सी में अपने दोनों मैच जीते (आस्ट्रेलिया और वेस्टइण्डीज के खिलाफ)। इसके बाद सुपर एट में ग्रुप एफ में उसने पाकिस्तान और आयरलैण्ड को भी हराया। लेकिन अब स्थितियां ऐसी बन गई कि न्यूजीलैण्ड के खिलाफ होने वाला उसका मैच अचानक ही करो या मरो वाला हो गया।
ग्रुप एफ में पाकिस्तान ने सोमवार को आयरलैण्ड पर बड़ी जीत दर्ज की। इससे पहले वह श्रीलंका से हार गया था जबकि न्यूजीलैण्ड से जीता था। आयरलैण्ड से मैच के बाद पाक टीम का नेट रन रेट 1.185 हो गया जो कि श्रीलंका (0.700) और न्यूजीलैण्ड (0.093) दोनों से बेहतर है। फिलहाल पाकिस्तान और श्रीलंका के सुपर एट में दो-दो जीत से चार अंक हैं जबकि न्यूजीलैण्ड के पास एक जीत (आयरलैण्ड के खिलाफ) से दो अंक हैं।
अभी न्यूजीलैण्ड का नेट रन रेट श्रीलंका से बेहतर है। अगर वह श्रीलंका के खिलाफ मैच जीत जाता है तो ग्रुप एफ से पाकिस्तान, श्रीलंका और आयरलैण्ड तीनों के चार-चार अंक हो जाएंगे। ऐसे में नेट रन रेट से पहली दो टीमों का फैसला होगा और पाकिस्तान और न्यूजीलैण्ड सेमीफाइनल में पहुंच जाएं। बेचारा श्रीलंका जो अब तक चार में चार में से चारों मैच में जीत दर्ज की टूर्नामेंट से बाहर हो जाएगा। मैं नहीं चाहता ऐसा हो क्योंकि प्रदर्शन के लिहाज से श्रीलंकाई टीम ज्यादा डीजर्विंग है लेकिन ट्वंटी 20 में कुछ भी अनुमान लगाना असंभव है।
पिछले ट्वंटी 20 विश्व कप में दक्षिण अफ्रीका के साथ भी ऐसा ही हुआ था जिसने अपने पहले चार मैच जीते लेकिन भारत के खिलाफ एक मैच हारने के बाद वह टूर्नामेंट से बाहर हो गया। वह रन रेट के आधार पर भारत और न्यूजीलैण्ड से पिछड़ गया।
गनीमत है ये क्रिकेट नहीं चलाते
हमारी क्रिकेट टीम ट्वंटी 20 विश्व कप के सेमीफाइनल की होड़ से बाहर हो गई। क्या इससे रातों-रात टीम इण्डिया गई गुजरी हो गई? क्या धोनी चतुर कप्तान से फिसड्डी कप्तान हो गए? क्या गौतम गम्भीर, रोहित शर्मा, जहीर खान, हरभजन सिंह जैसे क्रिकेटर अब क्रिकेटर न हो कर कबाड़ हो गए? क्या अब भारतीय टीम को वापस देश लाने के बजाय प्रशांत महासागर में डूबो देना चाहिए (करीब 15 साल पहले विशन सिंह बेदी शारजाह में भारतीय टीम की हार पर ऐसा कहा था) ?
उपरोक्त लिखे किसी जवाल का जवाब हां नहीं है। और गनीमत है कि जो इनका जवाब हां में देते हैं वो इस देश की क्रिकेट नहीं चलाते। भारतीय टीम हारी जाहिर है खराब खेली इसलिए हारी लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि टीम ही खराब हो गई। क्रिकेट फॉर्म का खेल है और दुर्भाग्य है हमारे कई खिलाड़ी एक साथ आउट ऑफ फॉर्म हो गए। गम्भीर टच में नहीं थे, सहवाग के अचानक लौटने से रोहित को ओपनिंग करनी पड़ गई। रैना पहली बार इंग्लैण्ड गए थे। जहीर-ईशांत अपनी लय में नहीं थे (याद रखे कुछ ही दिन पहले इन्हें दुनिया की सबसे खतरनाक तेज गेंदबाज जोड़ी कहा जा रहा था)। धोनी की कप्तानी पहले जैसे ही रही हां वह बल्लेबाजी में जरूर खराब साबित हुए। उन्होंने इन दिनों शॉट खेलने की क्षमता खो दी है। लेकिन यह वापस आ सकती है। पिछले विश्व कप में उन्होंने जिस बल्लेबाज को क्रीज पर भेजा उसने रन बनाए, जिस गेंदबाज के हाथ में गेंद दी उसने विकेट लिए। इस बार ऐसा नहीं हुआ। होता है ऐसा।
हम भी ऑफिस में रोज एक जैसा काम नहीं करते। कभी यहां कभी वहा गलती होती रहती है जिसे हम ठीक करते रहते हैं। क्रिकेट में इतनी सी गलती से बल्लेबाज आउट हो जाते हैं और वह हमारी तरह इसे बदल नहीं सकते।
मुमकिन है कल धोनी के घर कुछ बेवकूफ क्रिकेट प्रशंसक पत्थरबाजी कर दे। कहीं जहीर का पुतला फूंका जाए तो कहीं रोहित शर्मा के नाम की हाय-हाय हो। लेकिन यह कितना जायज है। धोनी को बदल कर किसे कप्तान बना देंगे। है कोई विकल्प। गम्भीर से बेहतर ओपनर कौन है हमारे पास। क्या कोई अन्य भारतीय ट्वंटी 20 क्रिकेट में रोहित शर्मा से बेहतर यूटीलिटी प्लेयर है। समय है इस हार को पचाने का। ज्यादा शोर-शराबे से कुछ होगा नहीं। नाहक ही टीम पर अतिरिक्त दबाव बढ़ेगा। और यह कोई वह विश्व कप नहीं जो चार साल में एक बार होता है। अगला ट्वंटी 20 विश्व कप अगले ही साल होना है।
कुछ दिन बाद भारत को वेस्टइण्डीज जाना है चार वनडे की सीरीज खेलने। सितंबर में चैम्पियंस ट्रॉफी भी होगी। अक्टूबर में आस्ट्रेलियाई टीम भारत आ रही है सात वनडे खेलने। और भी कई मैच हैं। हमें टीम का मनोबल सिर्फ इस हार की वजह से गिरने नहीं देना चाहिए।
उपरोक्त लिखे किसी जवाल का जवाब हां नहीं है। और गनीमत है कि जो इनका जवाब हां में देते हैं वो इस देश की क्रिकेट नहीं चलाते। भारतीय टीम हारी जाहिर है खराब खेली इसलिए हारी लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि टीम ही खराब हो गई। क्रिकेट फॉर्म का खेल है और दुर्भाग्य है हमारे कई खिलाड़ी एक साथ आउट ऑफ फॉर्म हो गए। गम्भीर टच में नहीं थे, सहवाग के अचानक लौटने से रोहित को ओपनिंग करनी पड़ गई। रैना पहली बार इंग्लैण्ड गए थे। जहीर-ईशांत अपनी लय में नहीं थे (याद रखे कुछ ही दिन पहले इन्हें दुनिया की सबसे खतरनाक तेज गेंदबाज जोड़ी कहा जा रहा था)। धोनी की कप्तानी पहले जैसे ही रही हां वह बल्लेबाजी में जरूर खराब साबित हुए। उन्होंने इन दिनों शॉट खेलने की क्षमता खो दी है। लेकिन यह वापस आ सकती है। पिछले विश्व कप में उन्होंने जिस बल्लेबाज को क्रीज पर भेजा उसने रन बनाए, जिस गेंदबाज के हाथ में गेंद दी उसने विकेट लिए। इस बार ऐसा नहीं हुआ। होता है ऐसा।
हम भी ऑफिस में रोज एक जैसा काम नहीं करते। कभी यहां कभी वहा गलती होती रहती है जिसे हम ठीक करते रहते हैं। क्रिकेट में इतनी सी गलती से बल्लेबाज आउट हो जाते हैं और वह हमारी तरह इसे बदल नहीं सकते।
मुमकिन है कल धोनी के घर कुछ बेवकूफ क्रिकेट प्रशंसक पत्थरबाजी कर दे। कहीं जहीर का पुतला फूंका जाए तो कहीं रोहित शर्मा के नाम की हाय-हाय हो। लेकिन यह कितना जायज है। धोनी को बदल कर किसे कप्तान बना देंगे। है कोई विकल्प। गम्भीर से बेहतर ओपनर कौन है हमारे पास। क्या कोई अन्य भारतीय ट्वंटी 20 क्रिकेट में रोहित शर्मा से बेहतर यूटीलिटी प्लेयर है। समय है इस हार को पचाने का। ज्यादा शोर-शराबे से कुछ होगा नहीं। नाहक ही टीम पर अतिरिक्त दबाव बढ़ेगा। और यह कोई वह विश्व कप नहीं जो चार साल में एक बार होता है। अगला ट्वंटी 20 विश्व कप अगले ही साल होना है।
कुछ दिन बाद भारत को वेस्टइण्डीज जाना है चार वनडे की सीरीज खेलने। सितंबर में चैम्पियंस ट्रॉफी भी होगी। अक्टूबर में आस्ट्रेलियाई टीम भारत आ रही है सात वनडे खेलने। और भी कई मैच हैं। हमें टीम का मनोबल सिर्फ इस हार की वजह से गिरने नहीं देना चाहिए।
Sunday, June 14, 2009
न्यूजीलैण्ड टीम का साइकोलॉजिकल बैरियर
अगर आपने 1986 में शारजाह में हुए आस्ट्रेलेशिया कप का फाइनल देखा नहीं होगा तो इसके बारे में सुना जरूर होगा। भारत और पाकिस्तान के बीच हुए इस मैच के आखिरी ओवर की आखिरी गेंद पर पाकिस्तान को जीत के लिए चार रन की दरकार थी। भारतीय गेंदबाज चेतन शर्मा ने फुलटॉस गेंद डाली और जावेद मियांदाद ने इसपर छक्का जड़ दिया। इस मैच के बाद भारतीयों का दिल ऐसा टूटा कि आने वाले कुछ सालों तक भारतीय टीम पाकिस्तान के खिलाफ नजदीकी मैच जीत ही नहीं पाती थी। यानी भारतीय टीम पाकिस्तान के खिलाफ एक साइकोलोजिकल बैरियर से ग्रस्त हो गई।
कुछ ऐसा ही साइकोलोजिकल बैरियर पाकिस्तान टीम को भारत के खिलाफ विश्व कप मैचों में है। किसी भी क्रिकेट विश्व कप में दोनों टीमों की तैयारी या फॉर्म कैसी भी क्यों न हो आपसी मुकाबले में जीत भारत की ही होती है। यह सिलसिला 1992 वनडे विश्व कप से शुरू हुआ और दक्षिण अफ्रीका में हुए पिछले ट्वंटी 20 विश्व कप तक जारी था।
इसी तरह के एक मनोवैज्ञानिक अवरोध से न्यूजीलैण्ड की टीम भी ग्रस्त है। आज की तारीख में वह पाकिस्तान से अच्छी और बेहतर फॉर्म वाली ट्वंटी 20 टीम थी लेकिन 13 जून को हुए मैच में उसे पाकिस्तान ने आसानी से मात दे दी। पाकिस्तान के खिलाफ हथियार डाल देने का कीवी टीम का सिलसिला 1992 विश्व कप के सेमीफाइनल के बाद शुरू हुआ। इस विश्व कप में मार्टन क्रो की कप्तानी में न्यूजीलैण्ड की टीम बेहतरीन प्रदर्शन कर रही थी। उसने लगातार सात लीग मैच जीते। आठवें और आखिरी लीग मैच में न्यूजीलैण्ड का सामना पाकिस्तान से था। कहा जाता है कि न्यूजीलैण्ड यह मैच जानबूझ कर हार गया। अगर वह यह मैच जीतता तो सेमीफाइनल में उसका सामना आस्ट्रेलिया से आस्ट्रेलिया में होता और हार की स्थिति में उसे अपने देश में पाकिस्तान से ही भिड़ना था। पाकिस्तान की टीम उस विश्व कप में तब तक अच्छा खेल पाने में असफल रही थी औऱ क्रो भरोसा था कि वह इमरान की टीम को सेमीफाइनल में आसानी से हरा देगी। सेमीफाइनल में न्यूजीलैण्ड ने पहले बल्लेबाजी करते हुए 262 रन का सम्मानजनक स्कोर बनाया। उस समय 250 से ऊपर का स्कोर मैच जिताऊ माना जाता था। जवाब में पाकिस्तान की टीम 140 रन पर चार विकेट गंवाकर काफी दबाव में थी क्योंकि तब तक ओवर भी काफी निकल गए थे। यहीं से इंजमाम उल हक ने ऐसी पारी खेली जिसे उनके प्रशंसक आज भी याद रखे हुए हैं। उन्होंने 37 गेंदों पर 60 रन ठोक डाले और पाकिस्तान को जीत दिला न्यूजीलैण्ड का सपना चकनाचूर कर दिया।
इस हार के बाद कीवी टीम कभी भी विश्व कप में पाकिस्तान के खिलाफ मैच नहीं जीत पाई है। उसे 1996 और 1999 वन विश्व कप में पाक ने बुरी तरह हराया। 2003 और 2007 विश्व कप में इन दोनों का सामना नहीं हुआ। पिछले ट्वंटी 20 विश्व में और इस ट्वंटी 20 विश्व कप में पाकिस्तान न्यूजीलैण्ड के खिलाफ भारी पड़ा।
क्रिकेट में किसी टीम या या कुछ खिलाड़ियों के और भी ऐसे साइकोलॉजिकल बैरियर रहे हैं। कुछ ने इससे पार पा लिया तो कुछ अभी भी इससे जूझ रहे हैं। जैसे शेन वार्न अपने अंतरराष्ट्रीय कैरियर में सचिन तेंदुलकर के सामने सफल नहीं हुए। पाकिस्तानी बल्लेबाजों को वेंकटेश प्रसाद से हमेशा दिक्कत हुई। ट्वंटी 20 में भारत न्यूजीलैण्ड से नहीं जीत पाता है। मिस्बाह उल हक पाकस्तानी टीम को जीत के करीब ले जाकर आउट हो जाते हैं खास कर भारत के खिलाफ।
वैसे तो इंग्लैण्ड की टीम भी इन दिनों भारत के खिलाफ कोई बड़ा मैच नहीं जीत सकी है। यह सिलसिला 1999 वन-डे विश्व कप से शुरू हुआ था। देखने वाली बात है कि लॉर्ड्स में आज क्या होगा। याद रखिए भारत आज हारा तो बाहर। फिर सब मिलकर फीफा कनफेडरेशन कप फुटबाल देखेंगे। ब्राजील और इटली के जलवे।
कुछ ऐसा ही साइकोलोजिकल बैरियर पाकिस्तान टीम को भारत के खिलाफ विश्व कप मैचों में है। किसी भी क्रिकेट विश्व कप में दोनों टीमों की तैयारी या फॉर्म कैसी भी क्यों न हो आपसी मुकाबले में जीत भारत की ही होती है। यह सिलसिला 1992 वनडे विश्व कप से शुरू हुआ और दक्षिण अफ्रीका में हुए पिछले ट्वंटी 20 विश्व कप तक जारी था।
इसी तरह के एक मनोवैज्ञानिक अवरोध से न्यूजीलैण्ड की टीम भी ग्रस्त है। आज की तारीख में वह पाकिस्तान से अच्छी और बेहतर फॉर्म वाली ट्वंटी 20 टीम थी लेकिन 13 जून को हुए मैच में उसे पाकिस्तान ने आसानी से मात दे दी। पाकिस्तान के खिलाफ हथियार डाल देने का कीवी टीम का सिलसिला 1992 विश्व कप के सेमीफाइनल के बाद शुरू हुआ। इस विश्व कप में मार्टन क्रो की कप्तानी में न्यूजीलैण्ड की टीम बेहतरीन प्रदर्शन कर रही थी। उसने लगातार सात लीग मैच जीते। आठवें और आखिरी लीग मैच में न्यूजीलैण्ड का सामना पाकिस्तान से था। कहा जाता है कि न्यूजीलैण्ड यह मैच जानबूझ कर हार गया। अगर वह यह मैच जीतता तो सेमीफाइनल में उसका सामना आस्ट्रेलिया से आस्ट्रेलिया में होता और हार की स्थिति में उसे अपने देश में पाकिस्तान से ही भिड़ना था। पाकिस्तान की टीम उस विश्व कप में तब तक अच्छा खेल पाने में असफल रही थी औऱ क्रो भरोसा था कि वह इमरान की टीम को सेमीफाइनल में आसानी से हरा देगी। सेमीफाइनल में न्यूजीलैण्ड ने पहले बल्लेबाजी करते हुए 262 रन का सम्मानजनक स्कोर बनाया। उस समय 250 से ऊपर का स्कोर मैच जिताऊ माना जाता था। जवाब में पाकिस्तान की टीम 140 रन पर चार विकेट गंवाकर काफी दबाव में थी क्योंकि तब तक ओवर भी काफी निकल गए थे। यहीं से इंजमाम उल हक ने ऐसी पारी खेली जिसे उनके प्रशंसक आज भी याद रखे हुए हैं। उन्होंने 37 गेंदों पर 60 रन ठोक डाले और पाकिस्तान को जीत दिला न्यूजीलैण्ड का सपना चकनाचूर कर दिया।
इस हार के बाद कीवी टीम कभी भी विश्व कप में पाकिस्तान के खिलाफ मैच नहीं जीत पाई है। उसे 1996 और 1999 वन विश्व कप में पाक ने बुरी तरह हराया। 2003 और 2007 विश्व कप में इन दोनों का सामना नहीं हुआ। पिछले ट्वंटी 20 विश्व में और इस ट्वंटी 20 विश्व कप में पाकिस्तान न्यूजीलैण्ड के खिलाफ भारी पड़ा।
क्रिकेट में किसी टीम या या कुछ खिलाड़ियों के और भी ऐसे साइकोलॉजिकल बैरियर रहे हैं। कुछ ने इससे पार पा लिया तो कुछ अभी भी इससे जूझ रहे हैं। जैसे शेन वार्न अपने अंतरराष्ट्रीय कैरियर में सचिन तेंदुलकर के सामने सफल नहीं हुए। पाकिस्तानी बल्लेबाजों को वेंकटेश प्रसाद से हमेशा दिक्कत हुई। ट्वंटी 20 में भारत न्यूजीलैण्ड से नहीं जीत पाता है। मिस्बाह उल हक पाकस्तानी टीम को जीत के करीब ले जाकर आउट हो जाते हैं खास कर भारत के खिलाफ।
वैसे तो इंग्लैण्ड की टीम भी इन दिनों भारत के खिलाफ कोई बड़ा मैच नहीं जीत सकी है। यह सिलसिला 1999 वन-डे विश्व कप से शुरू हुआ था। देखने वाली बात है कि लॉर्ड्स में आज क्या होगा। याद रखिए भारत आज हारा तो बाहर। फिर सब मिलकर फीफा कनफेडरेशन कप फुटबाल देखेंगे। ब्राजील और इटली के जलवे।
Saturday, June 13, 2009
क्या इंग्लैण्ड के खिलाफ योजना बदलेंगे धोनी?
सुपर एट चरण में भारत की शुरुआत अच्छी नहीं रही और उसे वेस्टइण्डीज के हाथों हार का सामना करना पड़ा। इस हार से इतना तो तय हो गया कि जिस योजना के साथ भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी टूर्नामेंट में उतरे वह सफल नहीं हो रही है। अब इंग्लैण्ड के खिलाफ रविवार को होने वाले मैच में धोनी को नई योजना या यूं कहें कि प्लान बी के साथ उतरना होगा नहीं तो गत विजेता भारत टूर्नामेंट के बीच में ही सेमीफाइनल की होड़ से बाहर हो सकता है।
धोनी की योजना की सबसे बड़ी खामी रही कि वह अब तक हुए मैचों में पांच विशेषज्ञ गेंदबाजों के साथ उतरे। इससे भारत के बल्लेबाजी क्रम की गहराई कम हुई और बल्लेबाजों के ऊपर विकेट बचाने का अतिरिक्त दबाव भी आया। सबसे ज्यादा दबाव में तो खुद कप्तान ही दिखे जिन्होंने कैरेबियाई टीम के खिलाफ 23 गेंदें झेल कर सिर्फ 11 रन बनाए। उनके अलावा गौतम गंभीर भी वह तेजी नहीं दिखा सके जिसके लिए वह जाने जाते हैं। ट्वंटी 20 मूलत: बल्लेबाजों का खेल है और यहां उन्हें खुलकर खेलने की आजादी मिलनी ही चाहिए। अगल विकेट बचाने का दबाव आया तो जाहिर है रन रेट कम होगा।
अब भारत को फिर से सात बल्लेबाजों की थ्योरी अपनानी होगी। इसके लिए हरभजन या प्रज्ञान ओझा में से एक को अंतिम एकादश से बाहर कर दिनेश कार्तिक को टीम में शामिल करना होगा। यह मुश्किल फैसला हो सकता है लेकिन टीम के हित में ऐसा करना बेहद जरूरी हो गया है। साथ ही ईशांत शर्मा के स्थान पर प्रवीण कुमार को मौका दिया जाना चाहिए। प्रवीण आईपीएल में बेहद सफल रहे थे और वह जरूरत पडऩे पर कुछ रन भी बना सकते हैं। सुरेश रैना, युवराज सिंह, रोहित शर्मा और यूसुफ पठान मिलकर चार ओवर तो डाल ही सकते हैं।
इसके आलावा धोनी एक और बड़ी गलती जो कर रहे हैं वह है उनका बल्लेबाजी क्रम में ऊपर आना। पहले बांग्लादेश के खिलाफ हुए ग्रुप मैच में और फिर वेस्टइण्डीज के खिलाफ मैच में धोनी ने जरूरत से ज्यादा गेंदें व्यर्थ की। वनडे मैचों में संकट के समय उनकी ऐसी बल्लेबाजी तो जायज है लेकिन ट्वंटी 20 क्रिकेट में ऐसे प्रदर्शन से टीम को खासा नुकसान उठाना पड़ रहा है। धोनी पिछले करीब दो साल निचले मध्यक्रम में बल्लेबाजी के लिए आते हैं और सिंगल, डबल के सहारे अपनी पारी को आगे बढ़ाते हैं। अब वह भले ही ऊपर बल्लेबाजी के लिए आ रहे हों लेकिन सिंगल-डबल वाली उनकी आदत गई नहीं। खुद नीचे आने के साथ-साथ उन्हें बल्लेबाजी क्रम में भी बदलाव करने चाहिए।
गंभीर के साथ ओपनिंग जिम्मेदारी यूसुफ पठान को सौंपी जाए। क्योंकि गंभीर अभी तक पुरानी रंगत में नहीं लौटे हैं ऐसे में यूसुफ के साथ रहने से टीम का रन रेट अच्छा रहेगा। तीसरे नंबर पर रैना और चौथे नंबर पर युवराज बल्लेबाजी करें। पांचवें नंबर पर रोहित शर्मा को मौका मिले। छठे नंबर पर कार्तिक और सातवें नंबर पर धोनी आएं। अगर धोनी यूसुफ को मध्य क्रम में इस्तेमाल करना चाहते हैं तो इरफान पठान से ओपनिंग कराई जा सकती है।
टीम में सात बल्लेबाज होने से भारत को किसी बड़े स्कोर का पीछा करने में भी ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी। आश्चर्य की बात तो यह है कि जब भारत पिछले विश्व कप समेत तमाम टूर्नामेंट में इस फॉर्मूले के साथ कामयाब हुआ तो यहां इसमें बदलाव की क्या जरूरत थी। पांच गेंदबाजों की थ्योरी उस टीम के लिए अच्छी है जिसके पास क्वालिटी ऑलराउंडर हों लेकिन भारत के साथ ऐसा नहीं है। यहां तक ऑलराउंडरों से भरपूर दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैण्ड ने भी सात बल्लेबाजों के साथ उतरने पर ही भरोसा किया।
धोनी की योजना की सबसे बड़ी खामी रही कि वह अब तक हुए मैचों में पांच विशेषज्ञ गेंदबाजों के साथ उतरे। इससे भारत के बल्लेबाजी क्रम की गहराई कम हुई और बल्लेबाजों के ऊपर विकेट बचाने का अतिरिक्त दबाव भी आया। सबसे ज्यादा दबाव में तो खुद कप्तान ही दिखे जिन्होंने कैरेबियाई टीम के खिलाफ 23 गेंदें झेल कर सिर्फ 11 रन बनाए। उनके अलावा गौतम गंभीर भी वह तेजी नहीं दिखा सके जिसके लिए वह जाने जाते हैं। ट्वंटी 20 मूलत: बल्लेबाजों का खेल है और यहां उन्हें खुलकर खेलने की आजादी मिलनी ही चाहिए। अगल विकेट बचाने का दबाव आया तो जाहिर है रन रेट कम होगा।
अब भारत को फिर से सात बल्लेबाजों की थ्योरी अपनानी होगी। इसके लिए हरभजन या प्रज्ञान ओझा में से एक को अंतिम एकादश से बाहर कर दिनेश कार्तिक को टीम में शामिल करना होगा। यह मुश्किल फैसला हो सकता है लेकिन टीम के हित में ऐसा करना बेहद जरूरी हो गया है। साथ ही ईशांत शर्मा के स्थान पर प्रवीण कुमार को मौका दिया जाना चाहिए। प्रवीण आईपीएल में बेहद सफल रहे थे और वह जरूरत पडऩे पर कुछ रन भी बना सकते हैं। सुरेश रैना, युवराज सिंह, रोहित शर्मा और यूसुफ पठान मिलकर चार ओवर तो डाल ही सकते हैं।
इसके आलावा धोनी एक और बड़ी गलती जो कर रहे हैं वह है उनका बल्लेबाजी क्रम में ऊपर आना। पहले बांग्लादेश के खिलाफ हुए ग्रुप मैच में और फिर वेस्टइण्डीज के खिलाफ मैच में धोनी ने जरूरत से ज्यादा गेंदें व्यर्थ की। वनडे मैचों में संकट के समय उनकी ऐसी बल्लेबाजी तो जायज है लेकिन ट्वंटी 20 क्रिकेट में ऐसे प्रदर्शन से टीम को खासा नुकसान उठाना पड़ रहा है। धोनी पिछले करीब दो साल निचले मध्यक्रम में बल्लेबाजी के लिए आते हैं और सिंगल, डबल के सहारे अपनी पारी को आगे बढ़ाते हैं। अब वह भले ही ऊपर बल्लेबाजी के लिए आ रहे हों लेकिन सिंगल-डबल वाली उनकी आदत गई नहीं। खुद नीचे आने के साथ-साथ उन्हें बल्लेबाजी क्रम में भी बदलाव करने चाहिए।
गंभीर के साथ ओपनिंग जिम्मेदारी यूसुफ पठान को सौंपी जाए। क्योंकि गंभीर अभी तक पुरानी रंगत में नहीं लौटे हैं ऐसे में यूसुफ के साथ रहने से टीम का रन रेट अच्छा रहेगा। तीसरे नंबर पर रैना और चौथे नंबर पर युवराज बल्लेबाजी करें। पांचवें नंबर पर रोहित शर्मा को मौका मिले। छठे नंबर पर कार्तिक और सातवें नंबर पर धोनी आएं। अगर धोनी यूसुफ को मध्य क्रम में इस्तेमाल करना चाहते हैं तो इरफान पठान से ओपनिंग कराई जा सकती है।
टीम में सात बल्लेबाज होने से भारत को किसी बड़े स्कोर का पीछा करने में भी ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी। आश्चर्य की बात तो यह है कि जब भारत पिछले विश्व कप समेत तमाम टूर्नामेंट में इस फॉर्मूले के साथ कामयाब हुआ तो यहां इसमें बदलाव की क्या जरूरत थी। पांच गेंदबाजों की थ्योरी उस टीम के लिए अच्छी है जिसके पास क्वालिटी ऑलराउंडर हों लेकिन भारत के साथ ऐसा नहीं है। यहां तक ऑलराउंडरों से भरपूर दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैण्ड ने भी सात बल्लेबाजों के साथ उतरने पर ही भरोसा किया।
Thursday, June 11, 2009
धोनी और सहवाग में मनमुटाव नई बात नहीं
इस ट्वंटी 20 विश्व कप में भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी और उप कप्तान वीरेन्द्र सहवाग के बीच मनमुटाव की अटकलों ने भारतीय टीम के शुरुआती प्रदर्शन से भी ज्यादा सुर्खियां बटोरी। अंततः चोटिल सहवाग वापस स्वदेश लौट गए और उनके स्थान पर दिनेश कार्तिक टीम इंडिया से जुड़ गए।
धोनी ने सहवाग के मुद्दे पर संवाददाता सम्मेलनों में जिस तरह जवाब दिया उससे मीडिया का इन दोनों के संबंध में खटास का अनुमान लगाना बिल्कुल जायज था। धोनी को इस पर गुस्सा होने की बजाय स्थिति साफ करनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। हां उन्होंने अगले प्रेस कांफ्रेंस में पूरी टीम की यूनिटी परेड कराकर ड्रामेबाजी जरूर की।
अब मुद्दे की बात की जाए। जिन लोगों को धोनी और सहवाग के बीच अनबन की खबर से अचरज हो रहा हो तो उन्हें पता होना चाहिए कि इन दोनों के संबंध कभी बहुत मधुर नहीं रहे हैं।
पिछले ट्वंटी 20 विश्व कप को ही याद कीजिए। जिस फाइनल मुकाबले में भारत ने पाकिस्तान को हराकर खिताब जीता था उस मैच में धोनी ने सौ फीसदी फिट सहवाग को अंतिम एकादश में शामिल नहीं किया था। इसके अलावा भी उन्होंने इस टूनार्मेंट के एक और मैच में भी सहवाग को टीम में नहीं लिया था। इसके बाद भी धोनी ने आगे हुए कई मैचों में सहवाग को टीम में शामिल नहीं किया। इस बीच सहवाग ने भारतीय टेस्ट टीम में भी अपनी जगह गंवा दी। हालांकि तब धोनी टेस्ट टीम के कप्तान नहीं थे। भारतीय टीम के 2007-08 के आस्ट्रेलियाई दौरे पर तत्कालीन कप्तान अनिल कुम्बले सहवाग की टेस्ट टीम में वापसी कराई। पर्थ के ऐतिहासिक टेस्ट में दो छोटी लेकिन अच्छी पारियां खेलने के बाद सहवाग ने एडीलेड टेस्ट में शानदार शतक जड़ा और वह इसके बाद त्रिकोणीय वनडे सीरीज में भी टीम में लौट गए। लेकिन तब तक भी धोनी का सहवाग पर पूरा भरोसा नहीं जमा था और उन्होंने कुछ मैचों में उन्हें अंतिम एकादश में नहीं रखा।
धोनी का सहवाग पर अविश्वास करने की जो प्रमुख कारण हैं उनमें एक सहवाग का फिटनेस पर पूरा ध्यान नहीं देना भी है। साथ ही वह बल्लेबाजी के वक्त कई बार गैर जिम्मेदार भी हो जाते हैं। लेकिन यही सबसे बड़ी वजह नहीं जान पड़ती है। यह ऐसा बहाना लगता है जिसे धोनी सहवाग के खिलाफ इस्तेमाल करने की ताक में रहते हैं। नहीं तो धोनी उस आर.पी.सिंह के पक्ष में कप्तानी से इस्तीफा देने की धमकी कैसे दे दते जिनकी फिटनेस और फील्डिंग टीम में सबसे खराब है (यह वाकया कुछ दिनों पहले ही हुआ था जब चयनकर्ताओं ने आरपी के स्थान पर इरफान पठान को टीम में रखा था और धोनी नाराज हो गए थे)।
सहवाग-धोनी के अनबन के पीछे सबसे बड़ा कारण सहवाग का उपकप्तान होना है। अगर धोनी काफी लोकप्रिय हैं तो सहवाग उनसे पीछे नहीं। धोनी अगर चतुर कप्तान माने जाते हैं तो यह खूबी सहवाग में भी है (हालांकि पिछले एक-दो अवसरों पर मिले मौकों को नहीं भुना सके)। सहवाग से पहले धोनी के परम मित्र युवराज सिंह टीम के उप कप्तान थे। लेकिन एक समय उन्होंने टीम पर ध्यान देने से ज्यादा अन्य बातों को तरजीह देना शुरू कर दिया था लिहाजा चयनकर्ताओं ने उनकी उपकप्तानी छीन ली थी।
कहा यह भी जा रहा है कि सहवाग ने अपनी चोट छिपाई लेकिन इस तर्क में दम नजर नहीं आ रहा है। सहवाग आईपीएल टूर्नामेंट से ही चोटिल हैं और यह बात तह उन्होंने छिपाई नहीं थी। वह इस चोट के कारण दिल्ली डेयर डेविल्स के लिए कई मैच नहीं खेल पाए थे। यह भले हो सकता है कि भारतीय टीम के फीजियो ने सहवाग की चोट का गलत आकलन किया हो। उन्हें लगा कि सहवाग जल्द ठीक हो जाएंगे लेकिन वह नहीं हुए। ऐसा तो होता रहता है। जहीर खान के साथ भी ऐसा ही हुआ था।
मामला यह भी है कि सहवाग आजकल सलामी बल्लेबाजी नहीं करना चाहते हैं और यह बात धोनी को पसंद नहीं। सहवाग की इच्छा नंबर तीन पर बल्लेबाजी करने थी लेकिन धोनी ने खुद नंबर तीन पर आना शुरू कर दिया। यह बात अलग है कि आईपीएल में उन्होंने अपनी टीम चेन्नई सुपर किंग्स के लिए सुरेश रैना को नंबर तीन का जिम्मा सौंपा था जिसमें वह काफी सफल भी रहे थे। यही रैना इस विश्व कप में अब तक ठीक से अभ्यास भी नहीं कर पाए।
धोनी निंसदेंह अच्छे कप्तान रहे हैं। लेकिन इस बार उन्होंने गलत कदम उठा दिया है। सहवाग मुद्दे को वह काफी व्यक्तिगत स्तर पर ले जा रहे हैं जिससे आगे चलकर उनका और टीम का ही नुकसान होने वाला है।
धोनी ने सहवाग के मुद्दे पर संवाददाता सम्मेलनों में जिस तरह जवाब दिया उससे मीडिया का इन दोनों के संबंध में खटास का अनुमान लगाना बिल्कुल जायज था। धोनी को इस पर गुस्सा होने की बजाय स्थिति साफ करनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। हां उन्होंने अगले प्रेस कांफ्रेंस में पूरी टीम की यूनिटी परेड कराकर ड्रामेबाजी जरूर की।
अब मुद्दे की बात की जाए। जिन लोगों को धोनी और सहवाग के बीच अनबन की खबर से अचरज हो रहा हो तो उन्हें पता होना चाहिए कि इन दोनों के संबंध कभी बहुत मधुर नहीं रहे हैं।
पिछले ट्वंटी 20 विश्व कप को ही याद कीजिए। जिस फाइनल मुकाबले में भारत ने पाकिस्तान को हराकर खिताब जीता था उस मैच में धोनी ने सौ फीसदी फिट सहवाग को अंतिम एकादश में शामिल नहीं किया था। इसके अलावा भी उन्होंने इस टूनार्मेंट के एक और मैच में भी सहवाग को टीम में नहीं लिया था। इसके बाद भी धोनी ने आगे हुए कई मैचों में सहवाग को टीम में शामिल नहीं किया। इस बीच सहवाग ने भारतीय टेस्ट टीम में भी अपनी जगह गंवा दी। हालांकि तब धोनी टेस्ट टीम के कप्तान नहीं थे। भारतीय टीम के 2007-08 के आस्ट्रेलियाई दौरे पर तत्कालीन कप्तान अनिल कुम्बले सहवाग की टेस्ट टीम में वापसी कराई। पर्थ के ऐतिहासिक टेस्ट में दो छोटी लेकिन अच्छी पारियां खेलने के बाद सहवाग ने एडीलेड टेस्ट में शानदार शतक जड़ा और वह इसके बाद त्रिकोणीय वनडे सीरीज में भी टीम में लौट गए। लेकिन तब तक भी धोनी का सहवाग पर पूरा भरोसा नहीं जमा था और उन्होंने कुछ मैचों में उन्हें अंतिम एकादश में नहीं रखा।
धोनी का सहवाग पर अविश्वास करने की जो प्रमुख कारण हैं उनमें एक सहवाग का फिटनेस पर पूरा ध्यान नहीं देना भी है। साथ ही वह बल्लेबाजी के वक्त कई बार गैर जिम्मेदार भी हो जाते हैं। लेकिन यही सबसे बड़ी वजह नहीं जान पड़ती है। यह ऐसा बहाना लगता है जिसे धोनी सहवाग के खिलाफ इस्तेमाल करने की ताक में रहते हैं। नहीं तो धोनी उस आर.पी.सिंह के पक्ष में कप्तानी से इस्तीफा देने की धमकी कैसे दे दते जिनकी फिटनेस और फील्डिंग टीम में सबसे खराब है (यह वाकया कुछ दिनों पहले ही हुआ था जब चयनकर्ताओं ने आरपी के स्थान पर इरफान पठान को टीम में रखा था और धोनी नाराज हो गए थे)।
सहवाग-धोनी के अनबन के पीछे सबसे बड़ा कारण सहवाग का उपकप्तान होना है। अगर धोनी काफी लोकप्रिय हैं तो सहवाग उनसे पीछे नहीं। धोनी अगर चतुर कप्तान माने जाते हैं तो यह खूबी सहवाग में भी है (हालांकि पिछले एक-दो अवसरों पर मिले मौकों को नहीं भुना सके)। सहवाग से पहले धोनी के परम मित्र युवराज सिंह टीम के उप कप्तान थे। लेकिन एक समय उन्होंने टीम पर ध्यान देने से ज्यादा अन्य बातों को तरजीह देना शुरू कर दिया था लिहाजा चयनकर्ताओं ने उनकी उपकप्तानी छीन ली थी।
कहा यह भी जा रहा है कि सहवाग ने अपनी चोट छिपाई लेकिन इस तर्क में दम नजर नहीं आ रहा है। सहवाग आईपीएल टूर्नामेंट से ही चोटिल हैं और यह बात तह उन्होंने छिपाई नहीं थी। वह इस चोट के कारण दिल्ली डेयर डेविल्स के लिए कई मैच नहीं खेल पाए थे। यह भले हो सकता है कि भारतीय टीम के फीजियो ने सहवाग की चोट का गलत आकलन किया हो। उन्हें लगा कि सहवाग जल्द ठीक हो जाएंगे लेकिन वह नहीं हुए। ऐसा तो होता रहता है। जहीर खान के साथ भी ऐसा ही हुआ था।
मामला यह भी है कि सहवाग आजकल सलामी बल्लेबाजी नहीं करना चाहते हैं और यह बात धोनी को पसंद नहीं। सहवाग की इच्छा नंबर तीन पर बल्लेबाजी करने थी लेकिन धोनी ने खुद नंबर तीन पर आना शुरू कर दिया। यह बात अलग है कि आईपीएल में उन्होंने अपनी टीम चेन्नई सुपर किंग्स के लिए सुरेश रैना को नंबर तीन का जिम्मा सौंपा था जिसमें वह काफी सफल भी रहे थे। यही रैना इस विश्व कप में अब तक ठीक से अभ्यास भी नहीं कर पाए।
धोनी निंसदेंह अच्छे कप्तान रहे हैं। लेकिन इस बार उन्होंने गलत कदम उठा दिया है। सहवाग मुद्दे को वह काफी व्यक्तिगत स्तर पर ले जा रहे हैं जिससे आगे चलकर उनका और टीम का ही नुकसान होने वाला है।
Sunday, June 7, 2009
देश के नाम पर
खेल की दुनिया में ‘प्रोफेसनल अप्रोच’ का बड़ा महत्व है। यानी आप चाहे देश के लिए खेलें या किसी क्लब के लिए अपना शत प्रतिशत योगदान दें। विश्व में विभिन्न खेलों के कई ऐसे खिलाड़ी हैं जो इस ‘प्रोफेसनल अप्रोच’ वाले मंत्र को गहरे आत्मसात किए होते हैं। कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो देश के लिए कमतर और क्लब के लिए बेहतर प्रदर्शन करते हैं। लेकिन भारत के कुछ खिलाड़ी ऐसे हैं जिनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन तभी सामने आता है जब वे देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हों। टेनिस में लिएंडर पेस और क्रिकेट में सौरव गांगुली कुछ ऐसे ही नाम हैं। मौजूदा समय में युवराज सिंह और वीरेन्द्र सहवाग भी ऐसे ही क्रिकेटर हैं जिनका असली रंग तभी निखरता है जब हो तिरंगे के नीचे खेल रहे हों न कि किंग्स इलेवन पंजाब या दिल्ली डेयर डेविल्स के झंडे तले।
हाल ही संपन्न इंडियन प्रीमियर लीग के दूसरे संस्करण में यह दोनों बल्लेबाज कुछ खास नहीं कर पाए। लेकिन ट्वंटी 20 विश्व कप में भारत के पहले ही मैच में युवराज फॉर्म में लौट आए। उनके 18 गेंदों पर चार छक्कों की मदद से बनाए 41 रन ने बांग्लादेश के उटलफेर की सारी मंशाओं पर पानी फेर दिया। सहवाग चोटिल होने के कारण इस मैच में नहीं खेल सके लेकिन इतना तय है कि मौका मिलने पर वह भी आईपीएल के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करेंगे।
देश के नाम पर अच्छा खेलने की इन खिलाड़ियों की इस खासियत से चयनकर्ता भी परिचित हैं। तभी तो घरेलू क्रिकेट में इनके औसत प्रदर्शन के बावजूद इन्हें अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में जौहर दिखाने का मौका मिलता रहता है। याद कीजिए भारत के पिछले आस्ट्रेलियाई दौरे के लिए सहवाग की वापसी को। उस समय सहवाग भारतीय टीम से बाहर थे और उन्होंने उन दिनों में घरेलू क्रिकेट में भी कोई कमाल नहीं दिखाया था। लेकिन तात्कालीन कप्चान अनिल कुम्बले की मांग पर सहवाग टीम में वापस आए। इसके बाद जो हुआ वह अपने आप में इतिहास है। युवराज के साथ भी ऐसा ही है। पंजाब की रणजी टीम या किंग्स इलेवन पंजाब के लिए उन्होंने अब तक कोई ऐसी पारी नहीं खेली है जिसे दर्शक लम्बे समय तक याद रखें। लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में उन्होंने कई कभी न भूलने वाली पारियां खेली हैं।
इसके पीछे जो सबसे बड़ा कारण नजर आता है वह यह है कि भारत और भारतीयों को अच्छा करने की प्रेरणा प्रोफेशनल कारणों से नहीं बल्कि इमोशनल कारणों से मिलती है। जाहिर है जो भावनात्मक उबाल देश के नाम पर आ सकता है वह क्लब या राज्य के नाम पर नहीं आ सकता है।
हाल ही संपन्न इंडियन प्रीमियर लीग के दूसरे संस्करण में यह दोनों बल्लेबाज कुछ खास नहीं कर पाए। लेकिन ट्वंटी 20 विश्व कप में भारत के पहले ही मैच में युवराज फॉर्म में लौट आए। उनके 18 गेंदों पर चार छक्कों की मदद से बनाए 41 रन ने बांग्लादेश के उटलफेर की सारी मंशाओं पर पानी फेर दिया। सहवाग चोटिल होने के कारण इस मैच में नहीं खेल सके लेकिन इतना तय है कि मौका मिलने पर वह भी आईपीएल के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करेंगे।
देश के नाम पर अच्छा खेलने की इन खिलाड़ियों की इस खासियत से चयनकर्ता भी परिचित हैं। तभी तो घरेलू क्रिकेट में इनके औसत प्रदर्शन के बावजूद इन्हें अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में जौहर दिखाने का मौका मिलता रहता है। याद कीजिए भारत के पिछले आस्ट्रेलियाई दौरे के लिए सहवाग की वापसी को। उस समय सहवाग भारतीय टीम से बाहर थे और उन्होंने उन दिनों में घरेलू क्रिकेट में भी कोई कमाल नहीं दिखाया था। लेकिन तात्कालीन कप्चान अनिल कुम्बले की मांग पर सहवाग टीम में वापस आए। इसके बाद जो हुआ वह अपने आप में इतिहास है। युवराज के साथ भी ऐसा ही है। पंजाब की रणजी टीम या किंग्स इलेवन पंजाब के लिए उन्होंने अब तक कोई ऐसी पारी नहीं खेली है जिसे दर्शक लम्बे समय तक याद रखें। लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में उन्होंने कई कभी न भूलने वाली पारियां खेली हैं।
इसके पीछे जो सबसे बड़ा कारण नजर आता है वह यह है कि भारत और भारतीयों को अच्छा करने की प्रेरणा प्रोफेशनल कारणों से नहीं बल्कि इमोशनल कारणों से मिलती है। जाहिर है जो भावनात्मक उबाल देश के नाम पर आ सकता है वह क्लब या राज्य के नाम पर नहीं आ सकता है।
Friday, March 27, 2009
टीम इंडिया पर उसी के हथियार से हमला
पाटा विकेट। तेज गेंदबाज बेअसर। फिर दोनों छोर से स्पिन आक्रमण। ललचाती गेंदों पर आसमानी शॉट खेलने के चक्कर में अपने विकेट गंवाता बल्लेबाज। ये कुछ ऐसे नजारे हैं जो टीम इंडिया के टेस्ट मैचों में अक्सर दिखाई देते हैं। नेपियर के मैक्लीन पार्क में भारत और न्यूजीलैण्ड के बीच चल रहे दूसरे टेस्ट मैच के दूसरे दिन भी यह नजारा दिखा। लेकिन पहले और अब में एक बड़ा अंतर यह रहा कि गेंदबाजी पर विपक्षी टीम थी और विकेट फेंक रहे थे भारतीय बल्लेबाज।
स्पिन आक्रमण के खिलाफ भारतीय बल्लेबाजों की मजबूती जग जाहिर है लेकिन न्यूजीलैण्ड के कप्तान डेनियल विटोरी जो खुद भी एक उम्दा लेफ्ट आर्म स्पिनर हैं भारतीयों के खिलाफ उसी के हथियार के इस्तेमाल की रणनीति अपना रहे हैं। भारतीय टीम जब न्यूजीलैण्ड रवाना हुई तब उसे सबसे ज्यादा डर वहां की उछाल और स्विंग की मददगार पिचों से था। स्पिन की चुनौती की उम्मीद तो उसे बिल्कुल भी नहीं रही होगी। लेकिन जब रफ्तार की योजना फेल हो गई तो कीवियों के कप्तान ने भारतीयों को फिरकी के जाल में फांसने की योजना बनाई।
टीम इंडिया के बल्लेबाजों को यह बात टेस्ट मैच शुरू होते ही समझ जानी चाहिए थी क्योंकि न्यूजीलैण्ड इस मैच में दो स्पिनरों (विटोरी और जीतन पटेल) के साथ उतरा था। वहीं भारतीय थिंक टैंक ने सिर्फ एक स्पिनर (हरभजन सिंह) को खिलाने का फैसला किया। अब विटोरी का यह फैसला रंग लाता दिख रहा है। इसे कम से कम शुरुआती सफलता तो मिल ही गई। वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर दोनों ही स्पिन के खिलाफ धाकड़ खिलाड़ी माने जाते हैं लेकिन ये दोनों खुद को विटोरी के बुने जाल में फंसने से नहीं रोक सके। सहवाग विटोरी को लगातार दूसरा छक्का जडऩे के प्रयास में विकेटकीपर ब्रैंडन मैकुलम को कैच थमा बैठे तो गंभीर इन फील्ड के ऊपर से शॉट खेलने के प्रयास में पटेल का शिकार बन गए। नाइट वाचमैन ईशांत शर्मा ने कुछ देर तो हौसला दिखाया लेकिन शाम ढलते-ढलते विटोरी ने उन्हें भी पैवेलियन में हवा खाने भेज दिया।
अब स्पिन के खिलाफ भारतीयों की प्रतिष्ठा दाव पर है। सचिन और राहुल द्रविड़ क्रीज पर हैं जबकि अगला नंबर वीवीएस लक्ष्मण का है। ये सभी स्पिन के खिलाफ धुरंधर बल्लेबाज हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भारत को संकट से उबार ले जाएंगे। लेकिन भारत अभी भी कीवी टीम से पहली पारी के आधार पर 500 से ज्यादा रनों से पीछे है और इसका दबाव इन बल्लेबाजों पर भी पड़ सकता है। मैच के तीसरे दिन भारतीय किस तरह इस चुनौती का सामना करते हैं यह देखने वाली बात होगी।
स्पिन आक्रमण के खिलाफ भारतीय बल्लेबाजों की मजबूती जग जाहिर है लेकिन न्यूजीलैण्ड के कप्तान डेनियल विटोरी जो खुद भी एक उम्दा लेफ्ट आर्म स्पिनर हैं भारतीयों के खिलाफ उसी के हथियार के इस्तेमाल की रणनीति अपना रहे हैं। भारतीय टीम जब न्यूजीलैण्ड रवाना हुई तब उसे सबसे ज्यादा डर वहां की उछाल और स्विंग की मददगार पिचों से था। स्पिन की चुनौती की उम्मीद तो उसे बिल्कुल भी नहीं रही होगी। लेकिन जब रफ्तार की योजना फेल हो गई तो कीवियों के कप्तान ने भारतीयों को फिरकी के जाल में फांसने की योजना बनाई।
टीम इंडिया के बल्लेबाजों को यह बात टेस्ट मैच शुरू होते ही समझ जानी चाहिए थी क्योंकि न्यूजीलैण्ड इस मैच में दो स्पिनरों (विटोरी और जीतन पटेल) के साथ उतरा था। वहीं भारतीय थिंक टैंक ने सिर्फ एक स्पिनर (हरभजन सिंह) को खिलाने का फैसला किया। अब विटोरी का यह फैसला रंग लाता दिख रहा है। इसे कम से कम शुरुआती सफलता तो मिल ही गई। वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर दोनों ही स्पिन के खिलाफ धाकड़ खिलाड़ी माने जाते हैं लेकिन ये दोनों खुद को विटोरी के बुने जाल में फंसने से नहीं रोक सके। सहवाग विटोरी को लगातार दूसरा छक्का जडऩे के प्रयास में विकेटकीपर ब्रैंडन मैकुलम को कैच थमा बैठे तो गंभीर इन फील्ड के ऊपर से शॉट खेलने के प्रयास में पटेल का शिकार बन गए। नाइट वाचमैन ईशांत शर्मा ने कुछ देर तो हौसला दिखाया लेकिन शाम ढलते-ढलते विटोरी ने उन्हें भी पैवेलियन में हवा खाने भेज दिया।
अब स्पिन के खिलाफ भारतीयों की प्रतिष्ठा दाव पर है। सचिन और राहुल द्रविड़ क्रीज पर हैं जबकि अगला नंबर वीवीएस लक्ष्मण का है। ये सभी स्पिन के खिलाफ धुरंधर बल्लेबाज हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भारत को संकट से उबार ले जाएंगे। लेकिन भारत अभी भी कीवी टीम से पहली पारी के आधार पर 500 से ज्यादा रनों से पीछे है और इसका दबाव इन बल्लेबाजों पर भी पड़ सकता है। मैच के तीसरे दिन भारतीय किस तरह इस चुनौती का सामना करते हैं यह देखने वाली बात होगी।
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