Saturday, August 29, 2009

टेस्ट चैम्पियनशिप का आयोजन इतना आसान नहीं

वेस्टइण्डीज क्रिकेट बोर्ड (डब्ल्यूआईसीबी) के अध्यक्ष जुलियन हंट ने खुलासा किया कि बीसीसीआई ने आईसीसी द्वारा प्रस्तावित टेस्ट चैम्पियनशिप की योजना को ठुकरा दिया था। हंट का कहना है आईसीसी ने मौजूदा समय में काम में आ रहे भविष्य दौरा कार्यक्रम के स्थान पर चार साल तक चलने वाली टेस्ट चैम्पियनशिप शुरू करने की योजना बनाई थी लेकिन यह बीसीसीआई के इनकार के कारण खटाई में पड़ गया। बीसीसीआई ने जिस किसी भी कारण से इस चैम्पियनशिप के लिए मना किया हो सच्चाई यही है कि अभी इस तरह की कोई चैम्पियनशिप शुरू नहीं की जा सकती और शुरू हुई भी तो सफल नहीं होगी।

इसके पीछे कई कारण है। पहला तो यह कि 10 टेस्ट टीमों के बीच कोई ऐसी चैम्पियनशिप के लिए चार वर्ष में सभी टीमों को इस एक-दूसरे के खिलाफ अपने देश में और सामने वाली टीम के देश में बराबर बराबर मैच खेलने होंगे। ऐसी स्थिति में भारत को बांग्लादेश के खिलाफ भी उतने ही टेस्ट मैच खेलने होंगे जितना वह आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेले। इस स्थिति में आस्ट्रेलिया और इंग्लैण्ड के बीच हर दो साल में होने वाली एशेज सीरीज में भी पांच मैच खेले जाने की गुंजाइश नहीं बचेगी। क्योंकि टेस्ट चैम्पियनशिप में सभी टीमों को एक दूसरे के खिलाफ बराबर मैच खेलने होंगे और ऐसे में हर टीम किसी दूसरी टीम के साथ चार साल के अंदर पांच मैच घर में और पांच मैच सामने वाली टीम के घर में नहीं खेल सकती। ऐसा हुआ तो एक टीम को चाल साल में कुल 90 मैच खेलने होंगे। यानी एक साल में 22-23 मैच। यह नामुमकिन है। अगर दो-तीन टेस्ट मैचों की सीरीज रखी गई तब तो यह और भी बुरा होगा। इस हालात में ऐशेज और आस्ट्रेलिया-बांग्लादेश सीरीज में क्या अंतर रह जाएगा। सबसे बड़ी बात बांग्लादेश जैसी कमजोर टीम अगर चार साल में इतने टेस्ट मैच खेलेगी तो इसे देखेगा कौन? इस प्रारूप से टेस्ट लोकप्रिय होने के बजाय और भी अलोकप्रिय हो जाएगा।

इससे बचने के लिए टीयर सिस्टम की वकालत की जा रही है। टीयर एक में चोटी की छह टीमें और टीयर दो में चार अन्य। हर चार साल में टीयर एक की फिसड्डी टीम दूसरे टीयर में और दूसरे टीयर की अव्वल टीम टीयर एक में आएगी।
देखने-सुनने में यह अच्छा लगता है लेकिन क्या प्रायोगिक स्तर पर यह मुमकिन है? मान लीजिए कि किसी चैम्पियनशिप में भारत टीयर एक में आखिरी स्थान पर रहता है तो क्या वह इसके बाद अगले चार साल तक फिसड्डी टीमों के खिलाफ खेलता रहे। यही स्थिति किसी भी अच्छी टीम के साथ हो सकती है क्योंकि छह में से कोई न कोई तो आखिरी स्थान पर रहेगा। मान लीजिए कि कभी आस्ट्रेलिया या इंग्लैण्ड दो टीयर में बंट जाएं। तो क्या अगले चार साल एशेज सीरीज ही न हो? अगर टीयर सिस्टम से रेलीगेशन का सिस्टम हटा भी दें तब भी यह कामयाब नहीं होगा। निचले टीयर वाली टीमें हमेशा यह दावा करेगी कि अब उसका स्तर सुधर गया है और वह शीर्ष टीमों को टक्कर दे सकती है।

टेस्ट चैम्पियनशिप वनडे या ट्वंटी 20 विश्व कप की तरह किसी एक देश में एक बार में नहीं निबटाया जा सकता। इसके लिए काफी लम्बे समय की आवश्यकता होगी और लोग लगातार इतना टेस्ट क्रिकेट देख-झेल नहीं सकते।
इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि टेस्ट क्रिकेट की खूबसूरती द्विपक्षीय शृंखलाओं और परंपरागत प्रतिद्वंद्विता में ही बसी है। इसमें छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता। एशेज सीरीज, भारत-पाकिस्तान सीरीज, फ्रैंक वारेल सीरीज, बॉर्डर गावस्कर सीरीज से ही टेस्ट क्रिकेट का भला होगा। इन सीरीजों को लोकप्रिय बनाने की, इनके बेहतर प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है। जो टीमें कमजोर हो रही हैं उसे फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की जाए। दर्शकों को मैदान तक लाने के लिए योजनाएं बनाई जाएं। जिस तरह एशेज शृंखला 100 साल से भी ज्यादा समय से नियमित अंतराल पर खेली जा रही है उसी तरह अन्य शृंखलाएं भी नियमित अंतराल पर हो ताकि उसके आयोजन से पहले अपने आप माहौल बने। भारत और पाकिस्तान या भारत और श्रीलंका आपस में कभी-कभी लगातार खेलते रहते हैं तो कभी लम्बे समय तक इनके बीच मैच ही नहीं होता। इस स्थिति को सुधारने की जरूरत है।

Friday, August 28, 2009

आधे फिट नडाल रोक पाएंगे फेडरर को?

आजकल टेनिस का कोई भी ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट हो पुरुष एकल में रोजर फेडरर ही सबसे प्रबल दावेदार होते हैं। सोमवार से शुरू हो रहा अमरीकी ओपन तो इस स्विस स्टार के लिए और भी खास है। करियर के चरम पर पहुंचने के बाद यही एक ऐसा टूर्नामेंट है जिसमें फेडरर अब तक अपराजेय हैं। वर्ष 2004 से वह फ्लसिंग मीडोज के बादशाह हैं। यहां उन्होंने उस समय भी जीत दर्ज की जब उनके सबसे नजदीकी प्रतिद्वंद्वी स्पेनिश खिलाड़ी राफेल नडाल उन्हें दुनिया के अन्य हर कोने में पीट रहे थे। नडाल इस बार भी अपनी चुनौती के साथ मौजूद रहेंगे लेकिन वह हाल ही में चोट से उबरे हैं और उन्हें भी इस टूर्नामेंट से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है।

ब्रिटेन के एंडी मरे, सर्बिया के नोवाक जोकोविच, अर्जेन्टीना के जुआन मार्टन डेल पोट्रो और अमरीका के एंडी रोडिक कुछ ऐसे नाम हैं जो फेडरर के अभियान को थामने का माद्दा रखते हैं लेकिन फेडरर इन दिनों जैसी फॉर्म में हैं उससे तो यही लगता है कि विश्व नंबर एक के लिए 16वां ग्रैंड स्लैम खिताब अब महज दो सप्ताह से कुछ ज्यादा दिन ही दूर है। हां अगर आधे-अधूरे फिट नडाल कहीं स्विस स्टार के सामने आने में सफल रहे तो नजारा बदल सकता है। लेकिन इसके लिए नडाल को फाइनल तक का सफर तय करना पड़ेगा जो मैच प्रैक्टिस के अभाव में इस समय उनके लिए मुश्किल लग रहा है।

ड्रॉ पर नजर दौड़ाएं को फेडरर का सेमीफाइनल तक का सफल बहुत ही आसान दिख रहा है। हालांकि अंतिम 16 के मुकाबले में उन्हें आस्ट्रेलिया के लेटन हेविट और क्वार्टर फाइनल में रूस के निकोल देवीदेंको से खेलना पड़ेगा लेकिन फेडरर अपने बुरे दिनों में भी इन खिलाड़ियों को हराने का माद्दा रखते हैं। अंतिम चार में फेडरर के सामने जोकोविच होंगे। जोकोविच वर्ष 2008 के आस्ट्रेलियन ओपन के सेमीफाइनल सहित फेडरर को कुल चार बार हरा चुके हैं। हालांकि उन्हें आठ मुकाबलों में हार का सामना भी करना पड़ा है। लेकिन खास बात यह है कि इन दोनों के बीच हुए पिछले आठ मुकाबलों में दोनों को चार-चार जीत मिली है।
वहीं फाइनल में एंडी मरे या नडाल जो भी पहुंचे आंकड़ों के लिहाज से अब तक फेडरर पर भारी साबित हुए हैं। नडाल ने फेडरर के खिलाफ 20 में से 13 मैचों में जीत दर्ज की है तो मरे ने नौ मुकाबलों में छह बार फेडरर को मात दी है। लेकिन यह अमरीकी ओपन है और यहां फेडरर किसी भी आंकड़े को झुठला सकते हैं।

Wednesday, August 26, 2009

बोल्ट जैसे एथलीट किसी 'सिस्टम' की देन नहीं हैं

वैसे तो ज्यादातर खेलों में उन देशों का परिणाम अच्छा रहता है जहां खेलों के लिए आधारभूत ढ़ाचा बेहतर हो। क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस, हॉकी, बेसबॉल, बैडमिंटन, तैराकी, शतरंज, गोल्फ तमाम ऐसे खेल हैं जो इस कैटगरी में फिट बैठते है। लेकिन एक खेल ऐसा है जो 90 फीसदी खिलाड़ी के स्तर पर निर्भर करता है और 10 प्रतिशत सिस्टम पर। चाहे उस देश का सिस्टम कितना भी मजबूत क्यों न हो अगर खिलाड़ी अच्छे नहीं होंगे तो खास अच्छा परिणाम नहीं मिलेगा। वह खेल है एथलेटिक्स (ट्रैक एंड फील्ड दोनों)। सभी खेलों में यह एक मात्र ऐसा खेल है जिसमें जब-तब नए चैम्पियन सामने नहीं आते। इस खेल में मानव के शारीरिक सामर्थ की जितनी आवश्यकता है किसी अन्य खेल में नहीं। तभी तो माइकल जॉनसन, सर्गेई बुबका या ताजा सनसनी यूसेन बोल्ट रोज-रोज पैदा नहीं होते। तभी तो एथलेटिक्स के कई ऐसे विश्व रिकार्ड हैं जो सालों से नहीं टूटे। और वो तभी टूटेंगे जब उसे बनाने वाले पुराने एथलीट से बेहतर कोई नया एथलीट पैदा हो। ये एथलीट किसी सिस्टम से तैयार नहीं किए जा सकते।

एक नजर उन रिकार्डों पर जो 10 साल से ज्यादा से टूटने की वाट जोह रहे हैं। इनमें से कुछ तो 20 या उससे भी ज्यादा समय से कायम हैं।

- 400 मीटर दौड़ का मौजूदा विश्व रिकार्ड 1999 में माइकल जॉनसन ने बनाया था।
- 800 मीटर दौ़ड़ का मौजूदा विश्व रिकार्ड डेनमार्क के विल्सन किपकेटर ने 1997 में बनाया था।
-1000 मीटर दौड़ का विश्व रिकार्ड केन्या के नोह गेनी ने 1999 में बनाया था।
-मोरक्को के हिचाम अल गुरोज ने 10 साल पहले 1500 मीटर एक मील और 2000 मीटर का विश्व रिकार्ड बनाया था।
-3000 मीटर का विश्व रिकार्ड केन्या के डेनियल कोमेन ने 1996 में बनाया था
-25 किलोमीटर पैदल चाल का विश्व रिकार्ड जापान के तोसीहिको सेको ने 1981 में बनाया था
-400 मीटर बाधा दौड़ का विश्व रिकार्ड अमरीका के केविन यंग ने 1992 में बनाया था
-ऊंची कूद का विश्व रिकार्ड क्यूबा के जेवियर सोटोमायोर ने 1993 में बनाया था
-पोल वाल्ट का विश्व रिकार्ड यूक्रेन के सर्गेई बुबका ने 1994 में बनाया था
-लम्बी कूद का विश्व रिकार्ड अमरीका के माइक पावेल ने 1991 में बनाया था
-ट्रिपल जंप का विश्व रिकार्ड ब्रिटेन के जोनाथन एडवर्ड्स ने 1995 में बनाया था
-गोला फेंक का विश्व रिकार्ड अमरीका के रेंडी बर्नेस ने 1990 में बनाया था
-चक्का फेंक का विश्व रिकार्ड जर्मनी (तत्कालीन पूर्वी जर्मनी) के जर्गेन शल्ट ने 1986 में बनाया था।
-हैमर थ्रो का विश्व रिकार्ड स्लोवेनिया के यूरीव सेदिक ने 1986 में बनाया था
-जेवलिन थ्रो का विश्व रिकार्ड चेक गणराज्य के जान जेलेन्जी ने 1996 में बनाया था
-4 गुणा 400 मीटर रिले का विश्व रिकार्ड अमरीकी टीम ने 1993 में बनाया था

सभी रिकार्ड पुरुष वर्ग के हैं। महिला वर्ग में भी यही हाल है

Saturday, August 15, 2009

हर तरफ हार ही हार

15 अगस्त की पूर्व संध्या पर सायना नेहवाल से बड़ी उम्मीदें थी। सोच रहा था कि भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी दूसरी वरीयता प्राप्त चीनी खिलाड़ी लिन वांग से क्वार्टर फाइनल मैच जीत जाएगी तो पांच-छह कॉलम में सजा-धजा कर इस मैच की लीड खबर बनाऊंगा ताकि स्वतंत्रता दिवस पर जब पाठक खेल का पन्ना देखे तो उनका हर्षोउल्लास दोगुना हो जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इससे पहले मिश्रित युगल में वी दीजू और ज्वाला गुट्टा की जोड़ी भी हार कर टूनार्मेंट से बाहर हो चुकी थी। इस तरह हैदराबाद में चल रही विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में भारत की चुनौती समाप्त हो गई और इसके साथ ही इस टूर्नामेंट से स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर किसी सकारात्मक खबर मिलने की उम्मीद भी।

इसके बाद सोचा किसी और खेल में कोई अच्छी खबर हाथ लग जाए ताकि आजादी का जश्न मनाने वाले अपने पाठकों की खुशी में इजाफा कर सकूं। लेकिन बाकी खेलों में भी निराशाजनक परिणाम ही हाथ लगे। शतरंज में तानिया सचदेव बांग्लादेशी खिलाड़ी से हार गईं तो टेनिस में प्रकाश अमृतराज एकल से बाहर हो गए। हालांकि प्रकाश .युगल में जीते। वह भी पाकिस्तान के ऐसाम उल हक कुरैशी के साथ। लेकिन आजादी के पावन मौके पर भारत-पाक संयुक्त कामयाबी की खबर का कनसेप्ट कुछ लगों को कुछ जमा नहीं। वैसे भी प्रकाश की जोड़ी सेमीफाइनल में ही पहुंची कोई खिताब थोड़े ही जीत लिया था (वैसे सायना भी जीतती तो सेमीफाइनल में ही पहुंचती)। गोल्फ के मैदान से भी अच्छी खबर नहीं आई। भारतीय गोल्फर जीव मिल्खा सिंह निराशाजनक प्रदर्शन के साथ संयुक्त 67वें स्थान पर ही रहे। टेबल टेनिस में भी भारतीय टीम की हार की खबर थी।

मन बड़ा दुखी हुआ कि आजादी दिवस पर भारतीयों की हार की खबरों से परिपूर्ण पन्ना देखकर हमारे पाठकों पर क्या बीतेगी। शिक्षा भी ऐसी ही मिली है कि ऐसे दिनों पर सकारात्मक खबरों को तरजीह दो। लेकिन कोई सकारात्मक खबर हो तब न।

काम खत्म करने के बाद बुझे मन के साथ घर लौटा और इस बात पर बार-बार कोफ्त होता रहा कि एक भी सुखद खबर नहीं लगा पाया। घर पर अपने 15 वर्षीय साले (ब्रदर इन लॉ) को यह बात बताई। नींद से परेशान साले ने बात को आगे न बढ़ाने के मूड में एक बात कही कि इन खेलों में हम जीतते ही कब थे जो आज जीत जाते। यह कह कर वह तो सो गया लेकिन उसकी बात बहुत हद तक सच्ची भी है। इन खेलों क्या कुल मिलाकर सभी खेलों में हम जीतते ही कब थे जो आज जीत जाते। इक्का-दुक्का जीत कुछ इक्का दुक्का खेलों में मिलती रही है लेकिन अपने यहां तो खेल के मैदान में सफलता इस कदर कम है कि कांस्य विजेता (तीसरा स्थान पाने वाले) भी हीरो से कम नहीं। और जब तक ये कांस्य विजेता नहीं थे तब तक चौथा स्थान हासिल करने वाले भी हीरो थे। कृप्या मुझे यह याद न दिलाएं कि एक स्वर्ण भी मिला था। लेकिन हम खेल में तब कामयाब होंगे जब हमारे पास इतने स्वर्ण विजेता हों कि कईयों के नाम याद न आए। वाकई खेलों की दुनिया में अभिनव है भारत। बिना मजबूत तर्क और वजह के आश्चर्यजनक रूप से नाकामयाब।

ब्लोग्वानी

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