Sunday, March 30, 2008

तिब्बत मसले पर अमेरिकी सुर आलाप रही है भाजपा

तिब्बत मसला आज की तारीख में पूरे विश्व में ज्वलनशील मुद्दा बन चुका है। पश्चिमी देश इसे चीन द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन का मामला बता रहे हैं तो चीन इसे अपना घरेलू मामला ठहरा रहा है। भारत में इस मसले पर राय बंटी हुई है। राजनीतिक हलकों में भारतीय जनता पार्टी यह चाहती है कि सरकार चीन की निंदा करे तो कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार किसी को नाराज न करने वाला रुख अपना रही है। वहीं मार्क्सवादी खेमे का मानना है कि पश्चिमी जगत इस मसले को इसलिए हवा दे रहा है ताकि भारत-चीन संबंध खराब हो। इसी खेमे की एक मजबूत आवाज रहे हैं नीलोत्पल बसु। इस आलेख के जरिए वह तिब्बत मसले पर अपनी बात सामने रख रहे हैं। उनकी राय को इस ब्लॉग पर लगाने यह अर्थ बिल्कुल न निकाला जाए कि मैं उनसे सहमत हूं। लेकिन अगर कोई मसला है तो उस पर सभी पक्षों की दलील सुन कर ही हमें किसी नतीजे पर पहुंचना चाहिए और इसी प्रयास में मैं बसु के अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूं। सौजन्य http://indiainteracts.com/
इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

नीलोत्पल बसु की कलम से

तिब्बत में पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है उस पर पश्चिमी दुनिया गला फाड़ कर चीख रही है और अनुमान के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी उनके सुर में सुर मिला रही है। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत भाजपा के तमाम वरिष्ठ नेता तिब्बत में हो रही घटनाओं के लिए चीन की निंदा करने में लगे हैं। चीन के खिलाफ नफरत और क्रोध से परिपूर्ण अपनी आवाज उठाते हुए ये नेता इसे चीन की सेना का बर्बर हिंसक कार्रवाही बता रही है। ये नेता यहीं नहीं रुके। इन्होंने भारत सरकार की भी यह कहते हुए आलोचना की है कि सरकार खुले तौर पर चीन को खुश करने की कोशिश कर रही है और उसने भारत के राष्ट्रीय सम्मान और स्वतंत्र विदेश नीति की परवाह नहीं की।
अजीब बात यह है कि इससे विदेश नीति पर भाजपा के विचार पश्चिमी शक्तियों के अधीन प्रतीत होती है और विडंबना यह है कि वे इसे स्वतंत्र विदेश नीति कहते हैं। भाजपा का कहना है कि तिब्बत के साथ भारत के प्राचीन संबंधों के आधार पर सरकार को चीन की आलोचना करनी चाहिए लेकिन अपने पश्चिमी आकाओं को खुश करने के प्रयास में वह तिब्बत मसले पर भारत की आधिकारिक स्थिति को भूल रहे हैं जिसके अनुसार भारत यह मानता है कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है और भारत चीन के अंदरूनी मसले में हस्तक्षेप नहीं करेगा। भारत का यह स्टैंड तब भी कायम था जब साउथ ब्लॉक में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।
इस मुद्दे पर पर भारपाई रुख अमेरिकी रुख का प्रतिविंब है। अमेरिकी सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव की अध्यक्ष नेन्सी पेलोसी ने अपने हालिया धर्मशाला दौरे पर इसे साफ-साफ जाहिर भी किया। धर्म गुरु दलाई लामा के प्रति अमेरिका के सहयोगात्मक रवैये को जाहिर करने के लिए किए गए इस दौर पर उन्होंने कहा कि मेरा मानना है कि अगर हमने तिब्बत में चीन की कार्रवाही के खलाफ आवाज नहीं उठाई तो हम विश्व में कहीं भी हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में बोलने का हक खो बैठेंगे। पेलोसी ने इस मुद्दे पर पश्चिमी देशों द्वारा चीन की आलोचना को भी जायज ठहराया। लेकिन यही पेलोसी और उनके पश्चिमी मित्र नैतिकता के ये वचन इराक, अबु गरीब जेल, ग्वान्तानामो बे के घोर अमानवीय यातना गृहों और गाजा पट्टी के बारे में नहीं बोर सकते हैं।
हममे से ऐसे लोग जो पश्चिमी मीडिया की गलत सूचनाओं के आदि हैं वह 14 मार्च को ल्हासा में हुए दंगों का सही चित्र से वाकिफ नहीं होंगे। इन दंगों में 22 लोग मारे गए और यह कहीं से भी तिब्बतियों के लोकतांतत्रिक आंदोलनों जैसा नहीं था जो चीन के हान कम्युनिस्ट शासन से आजादी चाहते हैं। अब इस घटना के वीडियो फुटेज उपलब्ध हैं और इसे देखने से साफ जाहिर है कि यह हिंसा कुछ उग्रवादी प्रवृति के भक्षुओं द्वारा निर्दोष तिब्बतियों के खिलाफ जानबूझ कर फैलाई गई थी। इसी प्रकार की हिंसक घटनाएं चीन के अन्य प्रांतों गांसू और सिचुआन में भी हुई।
भारतीय मीडिया के पास भी इस बात के पर्याप्त साक्ष्य है कि तिब्बतियों ने दिल्ली में भूख हड़ताल और धरना प्रदर्शन के साथ जिस तरह चीनी दूतावास पर इसलिए हमला किया ताकि उन्हें पश्चिमी मीडिया में व्यापक कवरेज मिल सके। यही नहीं दलाई लामा के प्रेस कांफ्रेस की टाइमिंग भी पश्चिमी देशों के प्राइम टाइम को ध्यान में रख कर तय की गई।
आखिर में यह जानना जरूरी है कि उनकी मांग क्या है? अब यह साबित हो चुका है कि तिब्बत में हुई हिंसा को किसी भी सूरत में न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता तब पश्चिमी दुनिया यह मांग करने लगी है कि चीन की सरकार को दलाई लामा के साथ वार्ता करनी चाहिए। उनके पास इस मांग को रखने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा क्योंकि कोई भी सरकार इस तथ्य को स्वीकार करने से इनकार नहीं कर सकती कि स्वायत्तता प्राप्त तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है। हालिया कुछ वर्षों में तिब्बत के विकास के लिए अभूतपूर्व काम करने के अलावा चीन ने इस मसले के राजनीतिक समाधान के लिए छह दौर की वार्ताएं भी की हैं। दलाई लामा भी इस तथ्य को स्वीकार करने पर जोर देते हैं कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है। वह यह भी कहते हैं कि तिब्बत को चीन से अलग करने की मांग गैरवाजिब है और इस मसले का कोई स्वीकार्य हल निकाला जाए।
ऐसे हालात में इस मुद्दे पर पश्चिमी ताकतों और भारत में उनके भाजपाई मित्रों द्वारा रोना-धोना मचाना साफ तौर पर दिखावा है। इन देशों द्वारा चीन को जबरन शैतान करार देना और ओलंपिक खेल के आयोजन में बाधा पहुंचाने की कोशिश करना वर्तमान अंतरराष्ट्रीय माहौल को खराब करेगा। सेनर काउंसिल को इस प्रकार की अप्रिय प्रगति को रोकने की कोशिश करनी चाहिए।
आखिर में यह जिक्र करना जरूरी है कि चीन कि सरकार ने सीमा से बाहर जाते हुए तिब्बत मुद्दे पर भारतीय रुख की सराहना करते हुए कहा है कि भारत चीन के अंदरूनी मसले में हस्तक्षेप न करने के अपने रुख पर कायम है। हमें पश्चिमी देशों और उनके मीडिया के झूठे नैतिकतावाद से सचेत रहना चाहिए और क्योंकि कश्मीर मसले पर हम भी उनके इस रुख का शिकार हुए हैं। क्या इस बात को आडवाणी जी और राजनाथ सिंह जी सुन रहे हैं?

Tuesday, March 25, 2008

तिब्बत मसले पर क्यों खामोश हैं भारतीय मार्क्सवादी

तिब्बत मसला कई दशकों से भारत-चीन संबंधों का केंद्र बिंदु रहा है.पिछले कुछ दिनों में चीन की यातनाओं से परेशान रहने वाले तिब्बतियों ने विश्व भर में व्यापक और अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन किया. इसने भारत समेत पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है. लेकिन हमेशा मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर मुखर आवाज़ निकालने वाले भारतीय मार्क्सवादी इस मुद्दे पर चुप हैं. इसी पहलू को केंद्र में रखते हुए गिरीश निकम ने अपनी राय व्यक्त की है. हालांकि उनका यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में लिखा हुआ है जिसका हिन्दी अनुवाद उनकी अनुमति के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ.
गिरीश निकम की कलम से

चीन के ख़िलाफ़ तिब्बतियों द्वारा पूरी दुनिया में किए जा रहे हालिया विरोध प्रदर्शन और चीन द्वारा इसे कुचलने की क्रूर कोशिशों ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है. तिब्बतियों का यह विरोध प्रदर्शन पिछले कई दशकों में सबसे बड़ा है और जिस तरह इसने अंतर्राष्ट्रीय शक्ल अख्तियार किया है उससे साफ ज़ाहिर है कि यह सुनियोजित भी है. चीन कि सरकार इसमे दलाई लामा और उनके समर्थकों का हाथ बता रही है और उसका कहना है कि प्रदर्शनकारी अगस्त में बीजिंग में होने वाले ओलंपिक खेलों में व्यवधान डालना चाहते हैं. हालांकि दलाई लामा ने साफ किया कि वे ओलंपिक खेलों के आयोजन के ख़िलाफ़ नही हैं.
जहाँ तक इस मसले पर भारतीय रुख का सवाल है तो तिब्बत के साथ भारत के सदियों से प्रगाढ़ संबंध रहे हैं. यहाँ तक कि महाभारत में भी इन दोनों क्षेत्रों के बीच मधुर संबंधों का जिक्र किया गया है. वहीं चीन के साथ तिब्बत का संबंध ऐतिहासिक रूप से रक्त रंजित रहा है. इस बात का उल्लेख छठी और सातवीं शताब्दी के इतिहास में भी मिलता है. आधुनिक समय में भारत तिब्बतियों के लिए शरणस्थली सरीखा रहा है. चीन द्वारा सताए जाने पर उन्होंने हमेशा भारत का रुख किया है.
मौजूदा दलाई लामा के बारे में तो सब जानते हैं कि उन्होंने चीन द्वारा प्रताडित किए जाने के बाद सन १९५९ में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में शरण ली और वहीं से निर्वासित जीवन जीते हुए तिब्बत का कार्य भार संभाला. लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम है कि वह भारत में शरण लेने वाले पहले दलाई लामा नहीं हैं. उनके पूर्ववर्ती १३वें दलाई लामा थूबतेन ग्यास्तो ने भी १९०९ से १९१२ के बीच चीन द्वारा परेशान किए जाने के कारण भारत में शरण ली थी.
चीन द्वारा कड़े विरोध के बावजूद जब १९५९ में तत्कालिन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मौजूदा दलाई लामा को भारत में रहने कि इजाज़त दी तब से तिब्बत मसला दोनों देशों के बीच कटुता का कारण रहा है. यह समझना ज़रूरी है कि भारत और चीन के बीच ख़राब संबंधों की वज़ह तिब्बत क्यों है. तिब्बत का दक्षिणी इलाका जो अरुणाचल प्रदेश का तवांग क्षेत्र कहलाता है ब्रिटिशों द्वारा मैकमोहन रेखा खींच कर भारत भारत को सुपुर्द कर दिया गया थाइसे जानना बड़ा रोचक होगा कि यह सब कैसे हुआ. १९१४ में ब्रिटेन, तिब्बत और चीन ने आपस में तिब्बत और चीन कि स्थिति पर एक बैठक की जिसे शिमला वार्ता के नाम से जाना जाता है. हालांकि यह वार्ता उस वक्त टूट गई जब ब्रिटेन ने तिब्बत को बाहरी और भीतरी दो भागों में बांटने पर जोर दिया. ऐसे में बिना चीन की सहमति के ब्रिटेन ने तिब्बत के साथ एक समझौता कर लिया. इसके तहत करीब ९००० वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाला दक्षिणी तिब्बती क्षेत्र तवांग भारत के हिस्से में दे दिया गया और बँटवारे के लिए ने रेखा खींची गई जिसे मैकमोहन रेखा का नाम दिया गया. तिब्बत ने इसे स्वीकार कर लिया और यहीं से यह मुद्दा भारत और चीन के बीच सबसे बड़े विवाद का कारण बन गया. चीन आज भी तवांग इस आधार पर अपना हिस्सा मानता है कि यह उस वक्त स्वायत्त तिब्बत का हिस्सा था और इसे बिना उसकी रजामंदी के भारत को सौंप दिया गया.
हालिया उठे तिब्बत मसले पर भारत सहित पूरी दुनिया से आवाज़ उठ रही है लेकिन भारतीय मार्क्सवादी नेता इसपर साफ साफ कुछ कहने से बच रहे हैं. सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने हालांकि अपना मुंह खोला और तिब्बत की तुलना कश्मीर से कर दी.
सीपीएम जैसी पार्टी के द्वारा जो दुनिया में कहीं भी होने वाले मानवाधिकार उल्लंघन पर भारी आपत्ति करती है तिब्बत जैसे ज्वलनशील मुद्दे पर चुप्पी साधना अचरज की बात है. उनकी यह चुप्पी उन्हें आलोचना के घेरे में ला रही है. यह समझना आसन है कि चीन के कम्युनिस्ट सरकार के साथ लगाव रखने के कारण भारतीय मार्क्सवादी इस मुद्दे पर कुछ बोलने से बच रहे हैं और अगर बोल भी रहे हैं तो यह ध्यान में रखते हुए कि इससे चीन की भावनाएं आहात न हो. भारतीय मार्क्सवादी तिब्बतियों के संपूर्ण विरोध को चीन के चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे हैं. उनका यह रुख १९५९ में समझने लायक था क्योंकि तब सभी ने माना था कि दलाई लामा को भारत में रखवाना अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए का एक सफल ऑपरेशन था. तब से भारतीय मार्क्सवादी यही मानते रहे हैं कि अमेरिका तिब्बत मुद्दे को जानबूझ कर हवा दे रहा है ताकि भारत-चीन संबंधों को ख़राब किया जा सके.
यह अलग बात है कि सीआइए ने १९७२ से इस मुद्दे पर से अपनी दिलचस्पी घटा ली क्योंकि तब अमेरिका के तत्कालिन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन चीन के संबंधों को बेहतर करने की ऐतिहासिक शुरुआत की थी. सीआइए कि भूमिका कम होने के बावजूद अमेरिकी सरकार ने तिब्बत को लगातार समर्थन देना जारी रखा है और यही कारण है कि भारतीय मार्क्सवादी तिब्बत मसले पर अपनी सोच नही बदल पा रहे हैं.
लेकिन अब जब चीन द्वारा तिब्बत में लगातार मानवाधिकार उल्लंघन किया जा रहा है और साथ जिस तरह वह तिब्बतियों कि संस्कृति और धर्म को ख़त्म करने कि कोशिश कर रहे हैं भारतीय मार्क्सवादियों कि चुप्पी उचित नहीं जान पड़ती. इससे वह न सिर्फ़ भारतीयों कि नज़र में संदिग्ध बनेंगे साथ ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी उनकी किरकिरी होगी.
वैसे भी येचुरी द्वारा इस मुद्दे कि तुलना कश्मीर के साथ करना उचित नही है. कश्मीर विवाद सिर्फ़ ६० साल पुराना है वहीं तिब्बत मसला इससे कहीं पहले का और अलग है. कश्मीरी जहाँ भारत के साथ रहने, पाकिस्तान के साथ जाने या स्वतंत्र होने पर विभाजित हैं वहीं तिब्बतियों के लिए ऐसा कोई मसला नही है. यह लगभग तय हो चुका है कि तिब्बत चीन का अंग है. यहाँ तक कि दलाई लामा ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है. उनकी मांग सिर्फ़ इतनी है कि उन्हें ज्यादा स्वायत्तता दी जाए ताकि तिब्बती अपनी सांस्कृतिक विरासत और धर्म को बचा कर रख सके. यह अलग बात है कि तिब्बतियों कि ने पीढ़ी के कुछ लोग दलाई लामा कि बात से विमुख हो रहे हैं और वे पूरी स्वतंत्रता चाहते हैं. इसका प्रमाण पिछले हफ्ते दिल्ली में चीन के दूतावास पर तिब्बतियों के विरोध प्रदर्शन के दौरान भी देखने को मिला था.
ऐसी स्थिति में इस मसले पर भारतीयों मार्क्सवादियों का सतुर्मुर्गी रवैया हैरान करने वाला है. हमारे एक अन्य पड़ोसी देश नेपाल में जब लोकतंत्र के लिए लड़ाई लड़ी जा रही थी तब भारतीय मार्क्सवादियों ने वहाँ एक सकारात्मक भूमिका निभाई. इससे हिंसा पर उतारू नेपाली माओवादी भी लोकतंत्र कि ओर मुखातिब हुए और इसे स्वीकार करने पर रजामंद भी हुए.
इसलिए यह उपायुक्त नही होगा कि भारतीय मार्क्सवादी तिब्बत मसले को चीन कि आंखों से देखे. उन्हें एक स्वतंत्र रुख अपनाना चाहिए और भारत, तिब्बत और चीन के बीच सेतु का काम करना चाहिए. उनका यह कदम उनके कद को ऊंचा करेगा साथ ही उनके आलोचकों को भी यह ज़वाब मिलेगा कि वे चीन का पिछलग्गू होने कि बजाय राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि मानते हैं. उनके लिए यह एक सुनहरा मौका है कि वे अपने प्रति जनता के नजरिये मी बदलाव लायें और अपना जनाधार बढ़ा सकें. तिब्बत मसले पर चुप्पी भारतीय मार्क्सवादियों की छवि को धूमिल करेगी और साथ ही भविष्य में किसी मानवाधिकार मुद्दे पर उठाई गई उनकी आवाज़ को खोखली साबित करेगी.

Monday, March 24, 2008

जमीन पर दौड़ते जहाजों का रोमांच

भले ही यह कारों की दौड़ हो लेकिन जब रफ्तार ३५० किलोमीटर प्रति घंटे से ज्यादा हो और वाहन की तकनीक एक उड़न खटोले से कम न हो तो इसे जमीन पर हवाई जहाजों की दौड़ मानना ग़लत नही होगा. हम बात फार्मूला वन रेस की कर रहे हैं जिसे टेलीविजन पर देखने मात्र से तन और मन रोमांच से भर जाता है. आपने निश्चित तौर पर दोपहिया वाहन की सवारी की होगी. जब कांटा ८० के पार जाता है तो शरीर मे अजीब सी गुदगुदी शुरू हो जाती है. तो कल्पना कीजिये उन चालकों का जो जहाज की रफ्तार से कार दौडाते हैं.
इस साल रफ़्तार का यह रोमांचक सफर ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न मे शुरू होकर मलेशिया तक का अपना सफर पूरा कर चुका है. अगर आपने यह दोनों रेस न देखी हो तो निराश होने की कोई ज़रूरत नही अभी इस साल कुल १६ रेस बचे हुए हैं. ११ टीमों के २२ ड्राइवरों के बीच एक-एक इंच के लिए होने वाली इस ज़द्दोज़हद का अगला पड़ाव होगा बहरीन जहाँ ये शूरमा एक दूसरे को पीछे छोड़ने की कोशिश करेंगे. हमारे-आपके लिए यहाँ एक भारतीय पहलू भी मौजूद है. ११ टीमों मे एक टीम है फोर्स इंडिया जिसके मालिक हैं विजय माल्या. हालांकि उनकी टीम अभी प्रतिस्पर्धी नही है लेकिन अच्छी कोशिश ज़रूर कर रही है.
वैसे तो आज भारत मे भी इस खेल को चाहने वाले और जानने वाले बहुत से लोग हैं लेकिन अगर आप इसके कुछ मूलभूत तथ्यों से अनभिज्ञ हैं तो मैं उसकी जानकारी आगे देने कि कोशिश कर रहा हूँ.
१- जैसा मैं पहले ही कह चुका कि इस साल फार्मूला वन मे कुल ११ टीमें भाग ले रही हैं. हालांकि अलग-अलग साल टीमों कि संख्या घट-बढ़ सकती है.
२- हर रेस मे एक टीम का दो ड्राइवर भाग लेता है. (इन दोनों ड्राइवरों के अलावा भी सभी टीमों के पास टेस्ट ड्राइवर भी होते हैं).
३-हर साल दो खिताब दाव पर लगे होते हैं एक है ड्राइवर चैंपियनशिप और दूसरा कंसट्रकटर चैंपियनशिप. मतलब साल कि सभी रेसों मे जो ड्राइवर सबसे ज्यादा अंक जुटाता है उसे ड्राइवर चैंपियनशिप का खिताब मिलता है और सबसे ज्यादा अंक जुटाने वाली टीम (दोनों ड्राइवरों के संयुक्त अंक) कंसट्रकटर चैंपियनशिप का खिताब जीतती है.
४- मुख्य रेस रविवार को होती है. इससे पहले शुक्रवार और शनिवार को क्वालीफाईंग रेस होती है जिसके ज़रिये कौन सा ड्राइवर मुख्य रेस के दिन किस स्थान से शुरुआत करेगा इसका फैसला होता है. दोनों क्वालीफाईंग रेस को मिलाकर जो ड्राइवर सबसे कम समय लेता है उसे पहला स्थान मिलता है. इसे पोल पोजीशन भी कहते हैं. इसी तरह बाकि स्थानों का निर्धारण भी होता है.
५- हर ड्राइवर १, २, या ३ बार तेल लेने के लिए रेस की लेन से बाहर आकर रुकता है. इसे पिट स्टॉप कहते हैं. यह सभी टीमों की रणनीति का अहम् हिस्सा होता है और वे इसपे खास ध्यान रखते हैं.
६- पूरे ट्रैक के एक चक्कर को एक लैप कहते हैं. अलग-अलग रेसों मे लैपों की लम्बाई और संख्यां अलग-अलग होती है.
७- जो ड्राइवर सबसे पहले रेस पूरी करता है उसे पहला स्थान मिलता है. रेस ख़त्म होते वक्त चालकों को एक झंडा दिखाया जाता है जिसे चेकर्ड फ्लैग कहते हैं.
८- किसी रेस मे पहले स्थान पर आने वाले ड्राइवर को १० (दस) अंक मिलते हैं, दूसरे को ८, तीसरे को ६, चौथे को ५, पांचवे को ४, छठे को ३, सातवे को २, आठवे को १ अंक मिलता है. मतलव यह हुआ कि २२ ड्राइवरों मे से सिर्फ़ ८ को अंक मिलते हैं. और इस प्रकार साल की सभी रेसों को मिलाकर नतीजों का निर्धारण होता है.
९-किसी एक रेस मे पहले तीन स्थान पर आने को पोडियम फिनिश कहते हैं. जैसा कि आपने ओलंपिक मे देखा होगा.

ये तो रही फार्मूला वन की मुख्य-मुख्य बातें. और भी कई तथ्य हैं जो इस खेल के रोमांच को बढाती है. इन बातों को आप रेस देखते-देखते अपने आप जान जायेंगे. लेकिन हर खेल की तरह यह खेल भी विवादों से अछूता नही रहा है. हालांकि इसकी मुख्य संस्था एफआईऐ यानि इंटरनेशनल ऑटोमोबाइल फेडरेशन ने इन सब से बचने के लिए कई कड़े नियम बना रखें हैं लेकिन फ़िर भी कुछ अप्रिय घटनाये होती रहती हैं. पिछले साल फरारी और मक्लौरेन के बीच जासूसी विवाद ने काफी तुल पकड़ा था. साथ ही मक्लौरेन के दोनों ड्राइवरों लेविस हैमिल्टन और फर्नांडो अलोंसो की आपसी अनबन ने भी मीडिया में सुर्खियाँ बटोरी थी. इस साल अलोंसो अपनी पुरानी टीम रेनोल्ट की तरफ़ से रेस कर रहे हैं.

Sunday, March 23, 2008

सिर्फ व्यावसायिक नहीं है क्रिकेट की सफलता

कुछ दिनों पहले एनडीटीवी पर भारत में क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता पर हुई एक परिचर्चा में मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर व विश्लेषक हर्षा भोगले ने कहा कि हमारे देश में इस खेल की सफलता व्यावसायिक है न कि खेल से जुड़ी। उन्होंने कहा कि हमने क्रिकेट के बाजार पर अधिपत्य कायम किया है न कि क्रिकेट फील्ड पर।
अंतरराष्ट्रीय परिदृष्य में भोगले का वक्तव्य तो बिल्कुल सही है क्योंकि हमारी टीम वेस्टइंडीज व आस्ट्रेलिया की तरह लगातार दस वर्षों तक अजेय नहीं रही और न ही भारत से बाहर हमारी टीम किसी टूर्नामेंट या सीरीज में बतौर फेविरट उतरी। लेकन देश में किसी अन्य मैदानी खेलों की तुलना में क्रिकेट टीम द्वारा दिए गए नतीजों को आंके तो इस खेल के प्रति हमारा उत्साह और जुनून कहीं से गैर वाजिव नहीं है। पिछले 20 सालों में अलग-अलग कप्तानों के नेतृत्व में खेलने वाली टीम इंडिया ने वनडे में करीब 55 फीसदी मैच जीते हैं तो टेस्ट मैचों में हमारा प्रदर्शन दिनों-दिन सुधर रहा है। ट्वंटी 20 क्रिकेट में हम पहले ही प्रयास में विश्व विजेता बन गए।
खेलों में सफलता से साथ खुद को जोड़ने की इच्छा रखने वाले भारतवासी अगर क्रिकेट की ओर ताकते हैं तो इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए। भले ही यहां हम विश्व विजेता नहीं है लेकिन फुटबाल और हाकी की तरह इस खेल में मैच शुरू होने से पहले दर्शकों को यह नहीं लगता है कि कुछ भी हो हमारी टीम हारेगी ही। यह सच है कि हमारी टीम केन्या या बांग्लादेश से भी हार जाती है लेकिन यही टीम आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका की टीमों को धूल चटाने का माद्दा भी रखती है।
बड़े मैदान से हटकर अपेक्षाकृत छोटे मैदान यानी कोर्ट गेमों की तरफ भी देखें तो सब जगह हमारे खिलाड़ी दोयम दर्जे के ही नजर आते हैं। टेनिस में पिछले कई वर्षों में लिएंडर पेस, महेश भूपित और सानिया मिर्जा के अलावा कोई प्रभावी नाम सामने नहीं आया। बास्केटबाल में हमारी टीम में कहां खड़ी है यह बताने की जरूरत नहीं वालीबाल में हम सुधार कर रहे हैं लेकिन अभी भी आर्जेंटीना, ब्राजील और आस्ट्रेलिया से काफी पीछे हैं। रग्बी में जो पहला नाम हमारे सामने आता है वह है फिल्म अभिनेता राहुल बोस। रग्बी जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी लोकप्रिय और कमाऊ खेल है अगर भारत में फल-फूल रहा होता तो राहुल आज अभिनेता न होते। बेसबाल की बात न ही करें तो बेहतर होगा।
बैडमिंटन में पुलेला गोपीचंद के बाद जो नाम उभरे हैं उनमें चेतन आनंद, अनूप श्रीधर, व सायना नेहवाल शामिल हैं लेकिन एशियाई खेलों, ओलंपिक और ऑल इंग्लैंड टूर्नामेंट में मजबूत दावेदारी पेश करने से पहले इन्हें खुद में फाफी सुधार करना पड़ेगा। यही हाल टेबल टेनिस खिलाड़ी अचिंता शरत कमल का है।
एथलेटिक्स में हमारे पास गर्व करने के लिए पीटी ऊषा व मिल्खा जैसे नाम हैं जो अपने कैरियर के चरम पर ओलंपिक में चौथा स्थान हासिल कर पाए थे। अंजू बाबी जार्ज एक बार विश्व चैंपियनिशप में कांस्य पदक जीतने व एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के बाद अपनी निरंतरता खो बैठीं। भरोत्तोलन में कुछ वर्ष पहले काफी उम्मीदें जगीं थी लेकिन यह खेल डोपिंग के मामलों में पिसता नजर आ रहा है। मुक्केबाजी इन दिनों वापस पटरी पर लौटी है लेकिन इन्हें भी बड़े टूर्नामेंटों में नतीजे देने होंगे।
आखिर में बात निशानेबाजों की। कुछ महीनों पहले अभिनव बिंद्रा ने बयान दिया था निशानेबाज भारत को सबसे ज्यादा गौरव दिलाते हैं लेकिन उन्हें उपयुक्त पहचान नहीं मिलती। लेकिन बिंद्रा साहब हम उन पदकों को गिनने के लिए तैयार नहीं जहां दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों ने भाग न लिया हो। ओलंपिक व एशियाई खेलों में जौहर दिखाओ तब बात बनेगी। राजवर्धन राठौर ने एथेंस में चांदी का तमगा जीता तो उन्हें इसके लिए पर्याप्त पहचान और शोहरत मिली। लेकिन निशानेबाजी को बतौर खेल शोहरत दिलानी है तो एक खिलाड़ी से काम नहीं चलेगा। विलियडर्स में गीत सेठी व पंकज आडवाणी व शतरंज में विश्वनाथन आनंद जरूर अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं तो इनकी लोकप्रियता भी अच्छी खासी है लेकिन यह कभी उस स्तर तक नहीं पहुंच सकती जितना एक मैदानी खेलों के खिलाड़ियों को मिलती है। यह बात सिर्फ भारत में नहीं पूरे विश्व में लागू नहीं होती।
अब क्रिकेट को कोई अंधी नगरी में काना राजा बताए या कुछ और लेकिन सच्चाई यही है कि परिणाम के लिहाज से यही खेल भारत का नंबर एक खेल है पैसा उसी के पीछे भागेगा जो सबसे आगे हो। अगर क्रिकेट व्यावसायिक रूप से सफल है तो इसके पीछे उसकी कामयाबी छुपी हुई है। किसी अन्य खेल को आगे बढना है तो उसे नतीजों के मामले में क्रिकेट को पीछे छोड़ना होगा।

Friday, March 21, 2008

ओलंपिक खेलः अंतरराष्ट्रीय वर्चस्व की रस्साकसी


ओलंपिक का आयोजन सिर्फ कुछ खेलों और खिलाड़ियों का मेला भर नहीं। इसके मार्फत जहां आयोजक देश दुनियां को अपनी तरक्की, क्षमता और कौशल से अवगत कराने की कोशिश करता है तो वहीं भाग लेने वाले अन्य देश भी यह जतलाने का भरसक प्रयास करते हैं वे किसी से कम नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ओलंपिक में एक ऐसा युद्ध क्षेत्र तैयार होता है जहां बिना गोला बारूद के भीषण लड़ाई लड़ी जाती है।
आधुनिक ओलंपिक की शुरुआत 1896 में ग्रीस की राजधानी एथेंस में हुई। तब से एक-आध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो यह स्पष्ट है कि अंक तालिका के शुरुआती कुछ स्थानों पर वही देश काबिज होते आए हैं जो उस समय दुनिया की बड़ी ताकते रहीं हैं। इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, सोवियत संघ आदि शामिल है। अब तक जितने ओलंपिक खेलों का आयोजन हुआ है उसमें सबसे अधिक 15 दफा अमेरिका ने शीर्ष स्थान पर कब्जा किया।
यह बात विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है कि आधुनिक विश्व के पटल पर खास कर दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने अपना दबदबा बनाए रखा है। उसके इस वर्चस्व को सबसे तगड़ी चुनौती सोवियत संघ से मिली। हथियार, विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक-दूसरे को कड़ी चुनौती देने वाले ये मजबूत राष्ट्र खेलों में भी एक-दूसरे से एक इंच भी पिछड़ना नहीं चाहते थे। यह ओलंपिक ही था जो शीत युद्ध के दौरान इन दोनों को आपस में आमने-सामने की जोर-आजमाइश का मौका प्रदान करता था। सोवियत संघ ने अपनी इन कोशिशों में खासी कामयाबी भी हासिल की और सात बार अमेरिकी को पदक तालिका से शीर्ष स्थान से बेदखल किया। लेकिन 1992 में उसके विधटन के बाद अमेरिका ने अपना रुतबा फिर से हासिल कर लिया।
अब अमेरिका को दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश चीन से तगड़ी चुनौती मिल रही है। हथियारों व तकनीक के मामले में अमेरिकी का तेजी से पीछा कर रहे इस देश के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि वह 2030 तक अर्थव्यवस्था के मामले में अकल सैम को न्यूमरो यूनो की पदवी से हटा देगा। बहरहाल खेल की दुनिया को अमेरिका से आगे निकलने के लिए यह ड्रैगन कंट्री 2030 तक इंतजार नहीं करना चाहता और उसकी पूरी कोशिश है कि इसी वर्ष उसकी अपनी जमीन पर होने वाले ओलंपिक खेलों में वह सबसे ज्यादा सोने का तमगा बटोरे।
एथेंस में हुए पिछले ओलंपिक खेलों में भी वह अमेरिका के काफी करीब पहुंच गया था और तब उसने अमेरिका के 35 के मुकाबले 32 स्वर्ण पदक जीते थे। इसमें टेनिस और 110 मीटर की बाधा दौड़ में स्वर्ण जीतकर चीन ने कहीं बड़ा और महत्वपूर्ण संकेत दिया। ये दोनों खेल ऐसे हैं जिसमें एशियाई देशों की कभी धाक नहीं रही। इनमें अब तक या तो अमेरिकी ने बाजी मारी थी या किसी अन्य पश्चिमी देश ने। इन दोनों स्परर्धाओं में स्वर्ण पर कब्जा जमाकर चीन अमेरिकी इस बात कुली तस्दीक कर दी कि वह हर क्षेत्र में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने का माद्दा रखने लगा है चाहे बात खेलों की हो या कोई और।
हालांकि 2004 से 2008 तक काफी कुछ बदल चुका है। पिछले ओलंपिक खेलों की तैराकी स्पर्धा में अमेरिका से कई तमगे छीनने वाले आस्ट्रेलिया और रूस इस स्पर्धा में अब उतने मजबूत नहीं रहे तो वहीं टेबल टेनिस व बैडमिंटन में कई देश चीन की गुणवत्ता के काफी करीब आ गए हैं।

खैर खेलों के मार्फत देशों की तरक्की मांपने वालों के लिए अगस्त 2008 बेहद अहम है और वे इसका बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। बीजिंग ओलंपिक की अंक तालिका में आखिरी पदक का हिसाब हो जाने के बाद यह तय हो सकेगा कि अंतरराष्ट्रीय जगत का शक्ति संतुलन किस ओर झुक रहा है।

Thursday, March 20, 2008

कंजूस बैंकों की चांदी

१ अप्रैल २००९ से हमलोग पूरे भारत में किसी भी बैंक के एटीएम से बिना किसी शुल्क के पैसों की निकासी कर पाएंगे और अपना अकाउंट डिटेल भी जान सकेंगे. जाहिर है इससे हम ग्राहकों का फायदा तो होगा ही, ये उन कंजूस बैंकों के लिए भी मुंह मांगी मुराद है जो एटीएम लगाने पर खर्च नही करते.

सिर्फ़ राजधानी दिल्ली मे जितने एटीएम हैं उनमे से आधे से ज्यादा आईसीआईसीआई और एसबीआई के हैं. एक्सिस बैंक, बैंक ऑफ़ बडौदा, सिटी बैंक के भी ठीकठाक संख्या मे एटीएम हैं. लेकिन कुछ ऐसे बैंक हैं जिनके नाम मात्र के एटीएम काउंटर हैं. इनमे सेन्ट्रल बैंक, इंडियन बैंक आदि शामिल हैं. अब ये बैंक बिना किसी खास खर्च के अपने ग्राहकों को एटीएम सुविधा दे सकेंगे. ऐसे मे वो बैंक जो एटीएम पर बड़ी राशी खर्च करते हैं आरबीआई के इस फैसले पर ज़रूर निराशा हो रहे होंगे. मुमकिन है कि उनकी यह निराशा ग्राहकों के लिए परेशानी बन कर सामने आए. हो सकता है ये बैंक अपने एटीएम के रखरखाव पर कम ध्यान दे.

शायद इसकी शुरुआत भी हो चुकी है. जब से इस ख़बर कि सुगबुगाहट बढ़ी है तब से एटीएम नॉट इन सर्विस, कैश नॉट अवलेबल जैसे बोर्ड ज्यादा दिखने लगे हैं. उम्मीद करता हूँ कि आरबीआई इस ओर ज़रूर ध्यान दे रहा होगा ताकि हम जैसे बेचारे ग्राहकों को ज्यादा तकलीफ न हो.

Wednesday, March 19, 2008

पत्रकारिता में आरक्षण!


इस लेख की शुरुआत में ही साफ कर दूँ कि मैं जातिवादी नही हूँ और ना ही किसी जाति से मेरा खास लगाव या अलगाव है. चलिए अब असल मुद्दे पर आता हूँ. ज्यादा दिन नही बीते जब निजी क्षेत्रों पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण कि मांग उठी थी. बतौर पत्रकार मैं भी निजी क्षेत्र में कार्य करने वाला नौकर हूँ.

मेरे कार्यालय में सम्पादकीय विभाग में कुल २३ सदस्य हैं. इसमें से १५ सदस्य ऊंची जाति के हैं जबकि ८ पिछड़ी जाति के. ऊंची जाति के १५ सदस्यों में ११ ब्राहमण हैं, ३ राजपूत और १ कायस्थ. पिछड़ी जाति के ८ सदस्यों में ५ बनिया वर्ग के हैं २ कुशवाहा और १ यादव. हमारे यहाँ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मुस्लिम समुदाय का कोई भी सदस्य नहीं है. अब ये बताने कि ज़रूरत बिल्कुल नही है ये तस्वीर भारत की वास्तविक सामाजिक लास्वीर से कतई मेल नही खाती.

मेरे जो पत्रकार मित्र अन्य संस्थानों में कार्य करते हैं वो भी कुछ ऐसी ही दास्ताँ बयां करते हैं. अब जब समाज को आइना दिखाने वाला, उसे सच्चाई से रूबरू कराने वाला पत्रकार समुदाय ही समाज के कुछ गिने चुने तत्वों से बना हो तो वह किसी गंभीर मसले पर जहाँ उनका जातीय हित दव पर हो सच कैसे प्रस्तुत करेंगे. मैं यह नही कहता कि पत्रकारिता में आरक्षण लागु कर दिया जाए लेकिन इस बात कि सख्त जरुरत है कि अनुपात सही रखा जाए.

इन रंगों को फीका न करो

मेरे पड़ोस में एक बच्चे को होली के अवसर पर स्कूल में चार दिनों की छुट्टी मिली है. छुट्टी के दरम्यान उसे करीब २५ पन्नों का होमवर्क दिया गया है. बच्चे की उम्र करीब ६ साल है और मैं सोच रहा हूँ की यह बच्चा साल में एक बार आने वाली होली का लुत्फ़ उठाये या अपना होमवर्क निबटाये. मेरे ख्याल से होली से पहले २ दिन रंगो से भरे इस पर्व का उत्साह से इंतज़ार करना और होली के अगले दिन थोडी मायूसी के साथ दिन बिताना अपने आप में बहुत बड़ा सबक है. लेकिन होमवर्क के दबाव में यह बच्चा शायद इस सबक से बंचित रह जाएगा. हम इसलिए पढ़ते लिखते हैं की जिन्दगी बेहतर तरीके से जी सके ऐसे में आज के स्कूल बच्चो को रोबोट बनाने की तैयारी में हैं.

हॉकी के चाहने वालों से एक सवाल

टीवी, अख़बार, न्यूज़ वेबसाइट और ब्लॉग की दुनिया मे कई ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि क्रिकेट ने हॉकी को निगल लिया. वो ख़ुद को हॉकी का बड़ा प्रशंसक बताते हैं. मैं उनसे सिर्फ़ एक सवाल करना चाहता हूँ की भइया बिना इंटरनेट सर्फ़ किए हुए बताओ कि भारतीय हॉकी टीम ने आखिरी बार कब हॉलैंड, ऑस्ट्रेलिया या जर्मनी को हराया था?

मैं किस टीम का समर्थन करूँ

अगले महीने से आईपीएल शुरू हो रहा है लेकिन मैं यह फैसला नही ले पाया हूँ कि मुझे किस टीम का समर्थन करना है. मैं मूलतः बिहार का रहने वाला हूँ और आईपीएल की कोई भी टीम हमारे प्रदेश से नही है. मेरे पास दिल्ली और कोलकाता की टीमों को अपना समर्थन देने का विकल्प है क्योंकि कोलकाता बिहार के ज्यादा नजदीक है और मैं दिल्ली मी अपनी रोजी रोटी कम रहा हूँ.हालांकि मैं सचिन तेंदुलकर का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ इसलिए मेरा मन कभी कभी मुम्बई की टीम से अपना दिल जोड़ने को करता है लेकिन राज ठाकरे और बाल ठाकरे की बातें याद आते ही मैं अपना मन बदल लेता हूँ.

एक बार किसी साक्षात्कार के सिलसिले में मैं जयपुर भी गया था तो क्या जयपुर की टीम चुन लूँ. नही क्योंकि मुझे वहाँ मनपसंद नौकरी नही दी गई थी. मेरे एक शिक्षक दक्षिण भारत के हैं और वह मेरे बहुत अच्छे मित्र भी हैं इसलिए सोचता हूँ कि बंगलोर या हैदराबादी टीम के लिए नारे लगाऊँगा लेकिन यहाँ भी एक दिक्कत है. अपने उस शिक्षक के साथ मेरे विचार नही मिलते और अक्सर हमलोग वक युद्ध मे शामिल होते हैं इसलिए मैं उन्हें अपने खिलाफ एक मुद्दा नही दे सकता. प्रीति जिंटा मुझे पसंद है लेकिन उनका दौर अब बीत गया है इसलिए मोहाली नही चलेगा और चेन्नई तो हमेशा से हिन्दी के खिलाफ रहा है तो उसका सवाल ही नही उठता है.

अब मैं सोचता हूँ की जब जब भारत को राज्यों और शहरों मे बाटूंगा तो ऐसे छोटे और ओछे वर्गीकरण का दिल करेगा. इसलिए मैंने अभी-अभी फैसला किया है की मैं आईपीएल मे किसी टीम को सुप्पोर्ट नही करूंगा हा किसी की मज्जमत भी नही करूंगा. जब भी टीम इंडिया खेलेगी तो उसे अपना समर्थन दूँगा जो हमेशा से देता आया हूँ.

ब्लोग्वानी

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